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सुप्रीम कोर्ट: संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज
सुप्रीम कोर्ट ने 1976 में पारित 42वें संशोधन के अनुसार संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को आज खारिज कर दिया। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि करीब 44 साल बाद इस संविधान संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य नहीं है।
न्यायालय ने कहा कि संसद की संशोधन शक्ति प्रस्तावना तक फैली हुई है। प्रस्तावना को अंगीकृत करने की तारीख प्रस्तावना में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित नहीं करती है। इस आधार पर, पूर्वव्यापी वाले तर्क को खारिज कर दिया गया था। फैसले में यह भी कहा गया कि भारतीय संदर्भ में 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' का क्या अर्थ है।
सीजेआई खन्ना ने फैसले के बाद कहा, "लगभग इतने साल हो गए हैं, अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जाए।‘’ फैसले की शुरुआत में न्यायालय ने कहा, "रिट याचिकाओं को विस्तृत निर्णय की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तर्कों में खामियां और कमजोरियां स्पष्ट हैं।‘’
यद्यपि बयालीसवें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में शामिल किए जाने से पहले संविधान में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द मौजूद नहीं था, धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य रूप से सभी धर्मों के व्यक्तियों के साथ समान और बिना भेदभाव के व्यवहार करने के लिए राष्ट्र की प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करती है, जैसा कि आरसी पौडयाल बनाम भारत संघ के मामले में निर्णय में कहा गया है। फैसले में कहा गया, 'संक्षेप में, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक का प्रतिनिधित्व करती है, जो मूल ताने-बाने में जटिल रूप से बुनी गई है जो संवैधानिक योजना के ताने-बाने को दर्शाती है.'
समाजवाद के संबंध में, न्यायालय ने कहा, "भारतीय ढांचे में समाजवाद आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांत का प्रतीक है, जिसमें राज्य यह सुनिश्चित करता है कि आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण कोई भी नागरिक वंचित न हो। 'समाजवाद' शब्द आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को दर्शाता है और निजी उद्यमिता और व्यापार के अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करता है, जो अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत एक मौलिक अधिकार है।‘’
कोर्ट ने संशोधन पारित होने के 44 साल बाद याचिकाएं दायर करने पर सवाल उठाए। कोर्ट ने कहा, "तथ्य यह है कि 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के प्रस्तावना के अभिन्न अंग बनने के चौवालीस साल बाद 2020 में रिट याचिकाएं दायर की गईं, यह तथ्य प्रार्थनाओं को विशेष रूप से संदिग्ध बनाता है। यह इस तथ्य से उपजा है कि इन शब्दों ने व्यापक स्वीकृति प्राप्त की है, उनके अर्थों को "हम, भारत के लोग" द्वारा बिना किसी संदेह के समझा गया है। प्रस्तावना में शामिल किए गए कानूनों या निर्वाचित सरकारों द्वारा अपनाई गई नीतियों को प्रतिबंधित या बाधित नहीं किया गया है, बशर्ते कि इस तरह के कार्यों ने मौलिक और संवैधानिक अधिकारों या संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं किया हो। इसलिए, हमें लगभग 44 वर्षों के बाद इस संविधान संशोधन को चुनौती देने के लिए कोई वैध कारण या औचित्य नहीं मिलता है।‘’
अदालत ने कहा कि हमें वर्तमान रिट याचिकाओं में कोई औचित्य या नोटिस जारी करने की आवश्यकता नहीं है, और इसे तदनुसार खारिज किया जाता है।
चार साल पुरानी इन याचिकाओं पर अदालत की पीठ ने बीते 22 नवंबर को आदेश सुरक्षित रख लिया था। इससे पहले, पीठ ने मामले को बड़ी पीठ के पास भेजने के याचिकाकर्ताओं के अनुरोध को खारिज कर दिया, हालांकि सीजेआई खन्ना शुक्रवार को आदेश लिखवाने वाले थे, लेकिन उन्होंने कहा कि वह सोमवार को आदेश सुनाएंगे। ये याचिकाएं बलराम सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और भाजपा नेता व वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की थीं।