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हम भारत के लोग लॉकडाऊन के पांचवे चरण में हैं और इतना तो शीशे की तरह साफ है कि बगैर शरीर की दुरूस्त रोग प्रतिरोधक क्षमता के कोविड-19 संक्रमण से बचाव नामुमकिन है तथा सच यहां तक है कि पर्याप्त पौष्टिक आहार के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता दुरूस्त रखने की कल्पना तक नहीं कर सकते है और हकीकत यह भी है कि लॉकडाऊन शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता दुरूस्त रखने का कोई वैज्ञानिक तरकीब तक नहीं है, अन्यथा इससे भला कौन इंकार कर सकता है कि लॉकडाऊन के प्रथम चरण के प्रथम दिन भारत में कोरोना से संक्रमित मरीजों की कुल संख्या महज 519 थी एवं कोरोना से संक्रमित मरीजों की हुई मौत की कुल तादाद सिर्फ 10 थी, जबकि लॉकडाऊन के पांचवे चरण के पहले हफ्ते में कोरोना से संक्रमित मरीजों की संख्या भारत में लगभग 2.75 लाख से अधिक है एवं कोरोना से संक्रमित मरीजों की हुई मौत की तादाद तकरीबन 7.5 हजार के आसपास है।
यद्यपि, 22 मार्च, 2020 के जनता कर्फ्यू की सफलता एवं मध्यप्रदेश की सत्ता में बीजेपी की 23 मार्च, 2020 की वापसी से अतिउत्साहित प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ने जब 24 मार्च, 2020 की रात को प्रथम चरण के लॉकडाऊन का एलान करते वक्त कहा था कि महाभारत की लड़ाई 18 दिनों चली थी जबकि कोविड-19 के खिलाफ जंग 21 दिनों की है तो पूरे देश ने यही सोचा था कि 21 दिनों के लॉकडाऊन के बाद कोरोना का खतरा खत्म हो जाएगा, पर कोरोना का खतरा खत्म होने की कौन कहे कोरोना संक्रमित मरीजों की तादाद लॉकडाऊन के प्रथम चरण के अंतिम तिथि में बढ़कर 10815 हो गयी और कोविड-19 संक्रमण से हुई मौत की संख्या बढ़कर 377 हो गयी। बावजूद इसके कोविड-19 नेशनल टॉस्क फोर्स के महामारी विशेषज्ञों से बगैर कोई परामर्श किए प्रधानमंत्री लॉकडाऊन के अवधि विस्तार की प्रक्रिया पूरी करने में लगातार 68 दिनों तक मशगूल रहे और नतीजा यह हुआ कि लॉकडाउन के 75 दिन पूरे हो जाने के बाद देश के कुल 717 जिलों में से 613 जिलों में कोविड-19 के मामले पहुंच गए हैं।
भारत में जून के पहले हफ्ते में कोरोना संक्रमण की दर 6.5 फीसदी तक पहुंच गई जो कि जून के पहले हफ्ते में अमेरिका की कोरोना संक्रमण की दर से भी ज्यादा है और शर्मनाक तो यह कि पीएम केयर्स फंड की स्थापना के 72 दिनों बाद भी लॉकडाउन की अवधि में कोविड-19 के मुकाबले हेतु आंशिक तौर पर भी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं हो पाया है। इसे भारत की बदकिस्मती ही कहेंगे कि लॉकडाऊन के चौथे चरण के आखिरी हफ्ते में स्वयं ही प्रधानमंत्री के गृहराज्य में अहमदाबाद के सिविल अस्पताल को गुजरात हाईकोर्ट ने काल कोठरी से भी बदतर करार दिया है तथा निजी अस्पतालों को कोरोना टेसि्ंटग की छूट नहीं देने के गुजरात सरकार के फैसले को आपत्तिजनक कहा है। कोविड-19 के खिलाफ जंग में पूरी दुनिया के पास टेसि्ंटग, फिजिकल डिस्टेंसिंग, बार-बार हाथ धोना, सेल्फ आइसोलेशन के अलावा फिलहाल अभी और कोई रास्ता नहीं है।
दुनियाभर के वैज्ञानिकों के मुताबिक, जब तक इसकी कोई दवा या वैक्सीन नहीं आ जाती तब तक इन्हीं मानकों को अपनाना पड़ेगा। लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एन.एस.एस.ओ.) की हालिया रिपोर्ट के आंकडों से जो तस्वीर प्रदर्शित होती है, उनके मुताबिक इन मानकों पर चलना भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए मुमकिन नहीं और पीएम भी इससे बिल्कुल भी अनभिज्ञ नहीं। इससे कतई भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि बीते 75 दिनों में अमेरिका में जहां पौने दो करोड़ और रूस में सवा करोड़ से ज्यादा कोरोना टेस्ट हुए वहीं भारत में यह आंकड़ा 38 लाख को भी नहीं पार कर सका है और ऐसा सिर्फ व सिर्फ इसलिए कि लॉकडाऊन के 75 दिन पूरे हो जाने के बावजूद भारत में कोविड-19 टेसि्ंटग के कुल 612 लैब ही हैं, जबकि देश की आबादी 130 करोड़ से अधिक है।
इतना ही नहीं, भारत की ग्रामीण जनसंख्या का एक तिहाई और शहरी आबादी का तकरीबन 50 फीसदी नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के 6 सालों के प्रधानमंत्रित्वकाल के बाद भी ऐसे घरों में रहने को मजबूर हैं जहां प्रति दो व्यक्ति एक कमरा भी उपलब्ध नहीं है और इसका सीधा मतलब है कि कोविड-19 संक्रमण का संदेह होने पर ऐसे लोगों को उनके घरों में आइसोलेट या क्वारंटीन करना नामुमकिन है। इसी तरह बार-बार हाथ धोने के दिशा-निर्देश के बीच जल संकट एक बड़ा रोड़ा है, क्योंकि 40 फीसदी शहरी आबादी और 75 फीसदी ग्रामीण आबादी के घरों में टैप वाटर नहीं है। इसका मतलब है कि ग्रामीण घरों के लोग सार्वजनिक टैप, कुआं, ट्यूबवेल या बरसात का इकट्ठा किए हुए पानी का अपनी जरूरतों को पूरे करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, जहां फिजिकल डिस्टेंसिंग के मानक पर खड़ा उतरना मुश्किल है तथा पानी में भी संक्रमित होने का खतरा है।
हर घर के लिए बाथरूम एवं शौचालयों की अनुपलब्धता भी संक्रमण के लिए मुफीद माहौल बनाते हैं। संक्रमित व्यक्ति के इस्तेमाल किए हुए बाथरूम या शौचालय का इस्तेमाल अगर स्वस्थ व्यक्ति करता है तो उसके भी संक्रमित होने को खतरा होता है और आज की तारीख में भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 45 फीसदी घरों में बाथरूम नहीं है और 39 फीसदी घरों में दो अलग-अलग शौचालय नहीं है तथा शहरी इलाकों में 9 फीसदी घरों में बाथरूम एवं 4 फीसदी घरों में शौचालय नहीं है। देश में कुल मिलाकर अब भी 11 फीसदी लोग सार्वजनिक बाथरूम एवं 13.5 फीसदी लोग सार्वजनिक शौचालय का प्रयोग करते हैं। सर्वाधिक हैरानी की बात तो यह कि शहरी भारत के झुग्गी बस्तियों के 96 फीसदी घरों में पानी की कोई सुविधा नहीं है और ऐसे में सामुदायिक संसाधनों से पानी लेने की होड़ में फिजिकल डिस्टेंस कहां तक रखा जा सकता है ?
कटु सत्य तो यहां तक है कि भारत में केवल 34 फीसदी लोग ही खाने से पहले साबुन से हाथ धोते हैं, जबकि 62 फीसदी लोग हाथ धोने के लिए केवल पानी का इस्तेमाल करते हैं। 25 फीसदी लोग शौच के बाद साबुन से हाथ नहीं धोते, जबकि 75 फीसदी आबादी ही शौच के बाद हाथ धोने के लिए साबुन और पानी का इस्तेमाल करती है, पर हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री हैं कि किसी की भी सुनते नहीं सिर्फ अपने मन की सुनाते हैं। जबकि, कोविड-19 नेशनल टॉस्क फोर्स के महामारी विशेषज्ञ समूह के प्रमुख डा0 डीसीएस रेड्डी समेत एम्स, बीएचयू, जेएनयू सरीखे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों के चिकित्सा विशेषज्ञों ने 25 मई, 2020 को पीएम को पत्र लिखकर कोरोना महामारी पर नियंत्रण के लिए अपनाए गए केन्द्र सरकार के तौर-तरीकों की कड़ी आलोचना की है और बदतर तो यह कि बीते 75 दिनों के लॉकडाऊन की अवधि में पांच साल से कम उम्र के बच्चों, शिशुओं एवं माताओं के लिए रेडिमेड पौष्टिक पोशाहार सुनिश्चित करने के प्रति राज्य सरकारों की आपराधिक उदासीनता पर केन्द्र सरकार की रहस्यमयी खामोशी ने देश में कोरोना से अधिक कुपोषण के खतरे को बढ़ा दिया है, बावजूद इसके कि भारत में कोविड-19 के आरंभकाल में ही सुप्रीम कोर्ट के अलावा यूनिसेफ (संयुक्त राष्ट्र बाल कोष) ने भारत सरकार को सचेत किया था कि कोरोना संकटकाल में नियमित रेडिमेड पौश्टिक आहार की अनुपलब्धता की वजह से मौजूदा वर्ष में बीते वर्षों के मुकाबले माताओं एवं शिशुओं की मौतें अधिक हो सकती है।
इसे बेशर्मी की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि 24 मार्च, 2020 को रात वजीर-ए-आजम कोरोना को हराने की लोगों को कसमें खिला रहे थे तथा 31 मई, 2020 की सुबह को कोरोना से नजरें नहीं मिलाने की लोगों से अपील कर रहे थे और ऐसा सिर्फ व सिर्फ इसलिए कि लॉकडाऊन की अवधि में कोरोना को नेस्तनाबूद करने की कोशिश करने के बजाय वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का माखौल उड़ाते हुए सी.ए.ए विरोधी प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी को सुनिश्चित करने एवं गैर भाजपाई मुख्यमंत्रियों व नेताओं की छवि धूमिल करने के प्रयास में मशगूल थे। आपदा को अवसर में बदलने के नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के विलक्षण प्रतिभा का ही असर है कि गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के बेहद सख्त प्रावधानों के तहत दिल्ली पुलिस ने लॉकडाऊन अवधि में दिल्ली के प्रतिष्ठित जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की 27 वर्षीय गर्भवती छात्रा सफूरा जरगर सहित जेएनयू की छात्रा देवांगना कलिता एवं नताशा नरवाल को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में बंद कर दिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना वायरस महामारी के मद्देनजर देशभर की जेलों में बंद कैदियों की चिकित्सा सहायता के लिए स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई करते हुए राज्यों से जेलों में भीड़ कम करने के लिए आरोपित कैदियों सहित अधिकतम सात साल की सजा काट रहे कैदियों को पैरोल अथवा कि अंतरिम जमानत पर रिहा करने के लिए विचार करने को कहा था और सर्वाधिक निंदनीय तो यह कि दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ दिल्ली पुलिस की जांच को एकतरफा करार देते हुए संबंधित पुलिस कमिश्नर को पुलिस जांच की निष्पक्षता को सुनिश्चित करने को कहा है।
इतना ही नहीं बेशर्मी की हद तो यह कि बगैर मुख्यमंत्रियों से विमर्ष किए इंडियन डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के सख्त प्रावधानों के तहत सम्पूर्ण लॉकडाऊन का एलान करनेवाली केन्द्र की बीजेपी के नेतृत्ववाली सरकार लॉकडाऊन की अवधि में सरेआम कह रही थी कि ममता बनर्जी प्रवासी मजदूरों को वापस पश्चिम बंगाल लाने की इच्छुक नहीं थी और यहां तक कि पश्चिम बंगाल के महामहिम राज्यपाल जगदीप धनकड़ तक ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण से लेकर भ्रष्टाचार तक के आरोप लगा दिए और कमोबेश कुछ इसी तरह का दुष्प्रचार बीजेपी के छुटभैये नेताओं ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, भुपेश बघेल, अरविंद केजरीवाल एवं उद्धव ठाकरे के खिलाफ भी लॉकडाऊन की अवधि में प्रारंभ कर दिया, जबकि आकस्मिक लॉकडाऊन के ऐलान से पैदा हुई कुव्यवस्था की वजह से देशभर में लाखें प्रवासी श्रमिक घर की हजारों किलोमीटर की यात्रा पर न सिर्फ पैदल निकल पड़े अपितु कईयों ने तो घर पहुंचने से पहले ही राष्ट्रीय उच्च पथों, रेल डिब्बों एवं रेलवे ट्रैक पर भूख से तड़पकर या कट कर दम तोड़ दिया और सच पूछिये तो आकस्मिक लॉकडाऊन से पैदा हुई कुव्यवस्था का ही नतीजा है कि कोविड-19 संक्रमण की दैनिक बढ़ोतरी के मामले में दुनिया के टॉप-10 देशों में भारत इन दिनों तीसरे पायदान पर है।
बावजूद इसके देश में ऐसे पांच सितारा सुविधाओं से लैस निजी अस्पतालों की कमी नहीं जो कि कोविड-19 से संक्रमित मरीजों से उनकी इलाज के एवज में पांच लाख रूपए तक की वसूली करते हैं। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र की सरकार से पूछा है कि जब सरकार रियायती दरों पर प्राइवेट अस्पतालों को भूमि आवंटित कर सकती है, तो फिर क्यों नहीं कोरोना से संक्रमित मरीजों को रियायत दरों पर इलाज सुनिश्चित करने के लिए सरकार निजी अस्पतालों को हिदायत दे सकती है ? पर आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इंडियन डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के मूल भावनाओं के प्रतिकूल केन्द्र की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में महज भाजपा समर्थक बड़े व्यवसायिक घराने को संरक्षण प्रदान करने के मकसद मात्र से यह आपत्तिजनक दलील दी है कि भूमि एवं स्वास्थ्य प्रबंधन केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।
पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट खरीदारी घोटाले में हिमाचल प्रदेश बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजीव बिंदल की संदिग्ध भूमिका की पड़ताल अभी पूरी भी नहीं हुई कि उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री ने योगी आदित्यनाथ से स्वास्थ्य महकमें में व्याप्त भ्रष्टाचार की व्यापक जांच कराने की मांग कर दी है और देष इससे भी अनजान नहीं है कि केन्द्रीय सत्ता संरक्षित एक भारतीय कंपनी ने लॉकडाऊन के प्रथम चरण में ही चीन से आयातित गुणवत्ता विहिन कोविड-19 रैपिड टेस्ट किट 145 फीसदी के मोटे मुनाफे के साथ देश के प्रतिश्ठित भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद को बेचा। बेशक, लॉकडाऊन के चौथे चरण के आखिरी दिन 31 मई, 2020 की सुबह को जब प्रधानमंत्री ने अपनी मन की बात षुरू की तो मुझे उम्मीद थी कि लॉकडाऊन की अवधि में भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करनेवाले नेताओं, जांच की गरिमा को नकारनेवाले पुलिसकर्मियों एवं ऊंची दरों पर कोरोना से संक्रमित मरीजों की इलाज में लगे निजी अस्पतालों की कड़ी निंदा करेंगे तथा राहों में भूख से हुई श्रमिकों की मौत को आकस्मिक लॉकडाऊन के अपने फैसले की नाकामी करार देंगे, पर हमारी उम्मीद के विपरीत उन्होंने इस मौके का इस्तेमाल खुद की पीठ थपथपाने के लिए किया।
जबकि, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी ने अपनी ताजा रिपोर्ट में खुलासा किया है कि 75 दिनों के लॉकडाऊन की अवधि में 13 करोड़ से अधिक भारतीयों का रोजगार छिन गया और भारत में बेरोजगारी की दर बढ़कर 27.1 फीसदी पर पहुंच गयी। इसी तरह प्रतिष्ठित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेन्टर फॉर सस्टेनेबल इंप्लासमेंट की ताजा सर्वे रिपोर्ट चीख-चीख कर बयां कर रही है कि लॉकडाऊन की अवधि में भारत में 74 फीसदी लोगों को जरूरत के हिसाब से भोजन नहीं मिले हैं तथा 61 फीसदी परिवारों के पास अप्रैल महीने के पहले हफ्ते में एक भी दिन का राशन नहीं था, जबकि लॉकडाऊन की अवधि में देश में 84 फीसदी भारतीयों का स्वरोजगार चला गया और 76 फीसदी वेतन भोगी श्रमिकों एवं 81 फीसदी दिहाड़ी मजदूरों की नौकरियां खत्म हो गयी।
बहरहाल, श्रीयुत नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का आत्मनिर्भर भारत राग के तहत घोषित 20 लाख 97 हजार 53 करोड़ रूपए के बैंक कर्ज पर आधारित कथित राहत पैकेज की पांच किश्तों से स्पष्ट हो चुका है कि देश को अपने दम पर मजबूती की तरफ ले जाने का नारा महज ऐसा आशावाद है जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं है। अन्यथा, हमारे आदरणीय देशवासियों जरा मोदी के आत्मनिर्भर भारत राग पर यकीन करने से पहले पता तो कीजिए कि ताजा दौर की शुरूआत से पहले बीते एक साल में भारतीय स्टार्टअप कंपनियों में चीन के 1.40 अरब डॉलर कैसे आ गए थे और फरवरी, 2020 तक इनमें 54 बार निवेश हो चुका था। अगर बीते वर्षों में भारत की मैन्युफैक्चरिंग चीन पर निर्भर हो गयी थी तो पिछले पांच सालों में चीन की पूंजी ने भारत के डिजिटल भविष्य को जकड़ लिया है और हकीकत तो यहां तक है कि बीते वर्षों में जब हमें आत्मनिर्भरता के झंडे पकड़ाकर चीनी लड़ियों-फुलझड़ियों के विरोध के लिए उकसाया जा रहा था तब पर्दे के पीछे डिजिटल इंडिया को मेड इन चाइना बनाने का अभियान चल रहा था।
कॉर्पोरेट मंत्रालय, स्टॉक एक्सचेंज (भारत व हांगकांग) में दिए गए ब्यौरे, कॉर्पोरेट घोषनाओं और विदेशी निवेश के आंकड़ों पर आधारित गेटवे हाउस (इंडियन कांउसिल ऑन ग्लोबल रिलेशंस) की ताजा रिर्पोट बताती है कि भारत अब चीन के वर्चुअल बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट (पूंजी एवं निवेश के दम पर एशिया से यूरोप तक फैला चीन का प्रभाव क्षेत्र) का हिस्सा बन चुका है। स्टार्टअप, मोबाइल एप्लिकेशन, ब्राउजर, बिग डेटा, फिनटेक, ई कॉमर्स, सोशल मीडिया, ऑनलाइन मनोरंजन आदि नई अर्थव्यवस्था का हिस्सा है। कोविड के बाद के भारतीय भविष्य की योजनाओं में चीन गहराई तक पैठ गया है। चीन की तकनीक निवेशकों ने मार्च, 2020 तक पांच वर्षों में भारतीय स्टार्टअप कंपनियों में करीब 4 अरब डॉलर का निवेश किया। भारत के 30 यूनीकॉर्न (एक अरब डॉलर से अधिक के वैल्यूएशन) स्टार्टअप में से 18 में चीन का निवेश है। चीन की दो दर्जन तकनीकी कंपनियां भारत के 92 बड़े स्टार्टअप में पूंजी डाल चुकी है। शाओमी भारतीय बाजार की सबसे बड़ी मोबाइल कंपनी है और हुआवे सबसे बड़ी दूरसंचार उपकरण सप्लायर है। अलीबाबा, टेनसेंट, शनवेई कैपिटल (शाओमी) और बाइट डांस भारतीय बाजार में सबसे बड़े निवेशक हैं। पेटीएम, बिग बास्केट, डेलीहंट, टिकट नाऊ, विडूली, रैपिडो, जोमैटो, स्नैपडील में निवेश के साथ अलीबाबा, ई कॉमर्स, फिनटेक व मनोरंजन क्षेत्र का सबसे बड़ा निवेशक है। बायजूज, ओला, ड्रीम-11, गाना, माइगेट, स्विगी आदि में निवेश के साथ शिक्षा, गेमिंग लॉजिस्टिक्स, सोशल मीडिया, फिनटेक के स्टार्टअप टेनसेंट के पूंजी पर चल रहे हैं।
शनवेई कैपिटल ने सिटी मॉल, हंगामा डिजिटल, ओया रिक्शा, रैपिडो, शेयरचैट, जेस्टमनी में निवेश किया है। गूगल प्ले और आइओएस पर सबसे ज्यादा डाउनलोड होनेवाले एप्लिकेशन में 50 फीसदी चीन की कंपनियों के हैं। बाइट डांस का टिकटॉक 20 करोड़ सब्सक्राइबर के साथ भारत में यूट्यूब को पीछे छोड़ चुका है। बाइट डांस का वीगो वीडियो और अलीबाबा का शेयर इट इसी फेहरिस्त का हिस्सा है। अलीबाबा का यूसी ब्राउजर भारत के मोबाइल ब्राउजर बाजार में 20 फीसदी हिस्सा रखता है। टेनसेंट ने वीडियो नेटफ्ल्कि्स जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म मैक्सप्लेयर में पैसा लगाया है। यानि कि बीते पांच सालों में डिजिटल इंडिया के प्रत्येक शुभंकर की कीर्ति कथा चीन की पूंजी से बनी।
मुझे यहां यह जिक्र करने में स्वयं शर्म महसूस हो रही है कि आत्मनिर्भरता के आवाजों के बीच दुनिया की कथित सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के कद्दावर बीजेपी नेता अमित शाह की 07 जून, 2020 की बिहार जनसंवाद रैली में भी चीन की तकनीक खुशबू बिखेर रही थी एवं बिहार जनसंवाद रैली के तामझाम पर 200 करोड़ रूपए के खर्चे राज्य की गरीबी को मुंह चिढ़ा रही थी। सच पूछिए तो डिजिटल इंडिया पर चीन का नियंत्रण भारत को पेचीदा मुकाम पर ले आया है। जनाब! चीन की पूंजी निकालते ही स्टार्टअप क्रांति बैठ जाएगी। आत्मनिर्भर भविष्य के लिए स्टार्टअप पूंजी के श्रोत तैयार करने होंगे जो नुकसान के बावजूद आती रहे। ऐसी उत्पादन क्षमताएं बनानी होगी जो चीन से सस्ता उत्पादन कर सकें। यह सबकुछ आत्मनिर्भरता की नारेबाजी जितना आसान नहीं है। सस्ता उत्पादन व मजदूरों के मजबूत क्रय शक्ति के लिए नीति निर्माण करने होंगे।
हालांकि, जॉन मिल्टन ठीक ही कहते थे कि परमात्मा के बाद केवल पाखंड है जो अदृश्य होकर भी मौजूद रहता है। अन्यथा कि जर्मनी के कलम, इटली के चश्मे और स्विट्जरलैंड की घड़ी भारत के पीएमओ की शोभा तो बढ़ा सकते हैं, पर भारत की आत्मनिर्भरता तो कतई भी बयां नहीं कर सकते। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि महामारी कोविड-19 ने देश के सामाजिक और आर्थिक जीवन को पटरी से उतार दिया है तथा इसे फिर पटरी पर लाने की जो कोशिशें हो रही है, उनमें दीर्घकालिक एवं स्पष्ट सोच की कमी झलक रही है। केन्द्र और राज्य सरकारें पुख्ता योजना लेकर नहीं चलेंगी, तो स्थिति को सुधारने में ज्यादा दिक्कतें खड़ी हो जाएगी। असल में देश कई मोर्चों पर पहले से ही लड़ रहा था। मसलन, देश में केन्द्र सरकार के कई फैसलों के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे, विश्वविद्यालयों में छात्रों के प्रदर्शन का जैसे सिलसिला चल पड़ा था।
आर्थिक मोर्चे पर दशकों की सबसे कमजोर विकास दर से देश जूझ रहा था तथा बेरोजगारी भी कई दशकों के सर्वोच्च स्तर पर थी और इस तरह के प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच देश और दुनिया को महामारी ने घेर लिया है तो निश्चित तौर पर मौजूदा संक्रमण काल में दूर दृष्टि सम्पन्न ठोस व स्पष्ट नीतियों और केन्द्र-राज्य के बीच बेहतर तालमेल से काम करने की दरकार है, जो कामयाबी दिला सके।
लेखक पत्रकार और आर्थिक जगत के जानकार है.