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जल संकट की आहट : कैसे उबरेगा इससे देश -- ज्ञानेन्द्र रावत
जल संकट समूची दुनिया की समस्या है। जहां तक हमारे देश का सवाल है, यह समझ से परे है कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक नदियां हमारे देश में हैं, उसके बावजूद हमारा देश भीषण जल संकट का सामना क्यों कर रहा है। गर्मी का मौसम आते-आते यह इतना भयावह रूप अख्तियार कर लेता है कि देश में लोग पानी की एक- एक बूंद के लिए तरस जाते हैं। देश में आई टी हब और सिलीकान वैली के नाम से विख्यात बंगलूर शहर का नजारा आजकल कुछ ऐसा ही है जहां के लोग पानी की एक- एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। आज बंगलूर की हालत यह है कि वहां के लोग एक पानी के टैंकर के लिए दो हजार रुपये से ज्यादा देने को भी तैयार हैं जो पहले 600-800 रुपये तक में मिल जाता था। लोगों को पानी की बोतलें मुंहमांगी कीमत पर स्कूटर में लादकर ले जाते हुए देखा जा सकता है। इस संकट से राज्य के मुख्यमंत्री का आवास भी अछूता नहीं रहा है। वहां भी टैंकरों से पानी की आपूर्ति की जा रही है। पानी के संकट की आंच से वे 110 गांव भी नहीं बचे हैं जिन्हें कुछ समय पहले बंगलूर शहर में शामिल कर लिया गया था। इस संकट के चलते स्कूलों को बंद कर दिया गया है। कोचिंग सेंटरों ने भी आपात स्थिति की घोषणा करते हुए छात्रों से वर्चुअली क्लास लेने के लिए कहा है। इन हालात में कार की धुलाई करने पर, भवन निर्माण एवं सड़क निर्माण और बागवानी आदि में पानी की बर्बादी पर 5000 रुपये के जुर्माना लगाने की घोषणा की गयी है। माल एवं सिनेमा हाल के प्रबंधकों से कहा गया है कि वे सुनिश्चित करें कि पेयजल का उपयोग सिर्फ पीने के लिए ही किया जाये। दरअसल इस संकट के पीछे बीते साल अलनीनो के प्रभाव के चलते कम बारिश के होने, झीलों के जलस्तर कम होने और बंगलुरु के लगभग चार हजार से ज्यादा तकरीब 4997 बोरवैलों का सूख जाना अहम कारण बताया जा रहा है। दरअसल यह समस्या भूजल स्तर के लगातार गिरते जाने की भी है जिसमें हर साल तेजी से बढो़तरी हो रही है। हालात की भयावहता का प्रमाण यह है कि 136 तालुका में से सरकार द्वारा 123 को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया है। सबसे बडी़ बात यह है कि बंगलुरु शहर को हाल-फिलहाल 1,850 मिलियन लीटर पानी मिल रहा है जबकि यहां के लोगों की जरूरतों को पूरा करने की खातिर 1,680 मिलियन लीटर पानी की और जरूरत है। इसको पूरा करने में नगर निकाय व जलदाय संस्थान बेबस है।
गौरतलब यह है कि अभी तो होली भी नहीं आई है और गर्मी के मौसम की शुरूआत भी नहीं हुई है, तब बंगलुरू शहर की पानी के मामले में यह दुर्दशा है तो गर्मी में पूरे देश की हालत क्या होगी? यह भयावह खतरे का संकेत है, इसे समझना होगा।
गौरतलब है कि दुनिया में सबसे अधिक समृद्ध नदियां भारत में ही पायी जाती हैं। देश के हर भूभाग में मौजूद नदियां पेयजल सहित विविध आवश्यकताओं की पूर्ति का नैसर्गिक स्रोत हैं। भारतीय नदियों में हर साल बहने वाले पानी की औसत गहराई 51 सेंटीमीटर है जो योरोप की नदियों की 26 सेमी, एशिया की 17 सेमी, उत्तरी अमेरिका की 31 सेमी, दक्षिणी अमेरिका की 45 सेमी, अफ्रीका की 20 सेमी और आस्ट्रेलिया की नदियों में प्रवाहित पानी की औसत गहराई 8 सेमी से भी अधिक है। फिर हमारे यहां पानी का संकट क्यों है़। जबकि हमारे यहां हर साल औसत बारिश 100 सेमी से भी अधिक होती है। इससे 4000 घनमीटर पानी मिलता है। इसमें नदियों से 1869 घनकिलोमीटर, कुंओं और तालाबों से 690 घनकिलोमीटर और भूजल से 433 घनकिलोमीटर पानी मिलता है।फिर यहां पानी का अकाल क्यों? इसमें हकीकत यह है कि बारिश से मिलने वाले 47 फीसदी पानी यानी 1869 अरब घन मीटर पानी नदियों में चला जाता है। इसमें से 1132 अरब घनमीटर पानी उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन इसका 37 फीसदी उचित भंडारण-संरक्षण के अभाव में बचाया जा सकता है।इस पर हमें सिलसिलेवार गौर करना होगा। सबसे बडी़ बात कि हमारी नदियां अविरल प्रवाह पर बढ़ते खतरे से जूझ रही हैं। उनके पानी में बढ़ता प्रदूषण बायोडायवर्सिटी पर बढ़ रहे खतरे को और अधिक भयावह बना रहा है। देश में बीते दशकों से नदियों का गैर मानसूनी प्रवाह कहीं कम तो कहीं बहुत कम हो रहा है। हमारी कई छोटी नदियां तो मौसमी बनकर रह गयी हैं। कृष्णा, कावेरी, महानदी, नर्मदा, गोदावरी और ताप्ती जैसी सदानीरा नदियों तक में गैर मानसूनी प्रवाह में कमी आ रही है। दर असल बरसात भले ही सामान्य हो, नदियों के गैर मानसूनी प्रवाह में कमी साल दर साल बढ़ती जा रही है। फिर सूखे दिनों में उनकी मात्रा बढ़ जाती है। और उनमें बढ़ता प्रदूषण जहां पानी को अनुपयोगी बनाता है, वहीं साफ-सफाई का खर्च भी बढा़ता है। जरूरी यह है कि नदियां किसी के भी प्रयास से हों प्रदूषण मुक्त होनी चाहिए। वे अविरल बहनी चाहिए। उनमें प्रवाह कम होने के कारण यह समस्या और भयावह होती जा रही है। गंदगी से निपटने के लिए देश में जागरूकता के बावजूद नदियों में गैर मानसूनी प्रवाह को बहाल करने या उसमें बढो़तरी करने का मुद्दा हाशिए पर है या यूं कहें कि काफी हद तक उपेक्षित है। यह जितनी जल्दी होगा, उतना ही समाज और देश के भविष्य के लिए अच्छा होगा। क्योंकि जो नदियां जाग्रत इको सिस्टम होती हैं, उनका सतत प्रवाहित जल जीवन के विविध स्वरूपों को स्वस्थ रख उनका लालन-पालन करता है, जो हाइड्रोलाजिकल साईकिल को सक्रिय रखता है, कारण कुछ भी रहे हों और उसके लिए भले औद्योगिक प्रतिष्ठानों के रसायनयुक्त कचरे आदि-आदि को जिम्मेदार ठहराया जाये,जब वे ही इतनी प्रदूषित हैं, उस दशा में जल संकट तो अविश्यंभावी है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता।
देखा जाये तो जल संकट का सामना पूरा देश कर रहा है। वह बात दीगर है कि वह कहीं कम तो कहीं बहुत ज्यादा है। देश की राजधानी सहित गुरुग्राम, फरीदाबाद, गाजियाबाद डार्क जोन में हैं ही, दिल्ली, शिमला, बंगलुरू सहित देश के बडे़-बडे़ महानगर केपटाउन बनने की राह पर हैं। पूरे देश का जायजा लें तो पाते हैं कि देश का उत्तरी इलाका भी इसकी मार से अछूता नहीं है जबकि उसे सतही जल के मामले में सबसे ज्यादा सम्पन्न माना जाता है। सुदूरवर्ती अंचलों भी स्थिति भयावह है। बुंदेलखंड में तो बीते बरसों में कई बार ऐसे मौके आये हैं जब लोग पानी के अभाव में घरों में ताले लगाकर रोजी-रोटी की तलाश में पलायन को विवश हुए हैं। महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश के सीमांत इलाकों में कई-कई मील चलकर आज भी एक घडा़ पानी लाती हैं महिलाएं। कहीं-कहीं गड्ढों का पानी पीने को मजबूर हैं लोग। यहां के कुछ इलाकों में लोग दो शादी इसलिए करते हैं कि एक पत्नी पानी लेने जाये और दूसरी घर का काम-काज करे। तेलंगाना की सीमा से सटे महाराष्ट्र के गांववासी पानी की समस्या के चलते पलायन को मजबूर हैं।
जहांतक तालाब, पोखर और जलाशयों का सवाल है, जलशक्ति मंत्रालय की मानें तो देश के जलस्रोत रखरखाव के अभाव में बर्बादी के कगार पर हैं। समूचे देश में 78 फीसदी जलस्रोत मानव निर्मित तो 22 फीसदी प्राकृतिक हैं।देशभर में मौजूद जलस्रोतों में से 16.3 फीसदी जलस्रोत यानी 3,94,500 इस्तेमाल में ही नहीं हैं। देश भर के 45.2 फीसदी जलस्रोतों की कभी मरम्मत ही नहीं हुयी। सबसे बडी़ आबादी वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश में 27,374 जलस्रोत सूख गये हैं। बिहार के सभी 23 बडे़ जलाशय गंभीर संकट में हैं। इनमें 16 सूखने के कगार पर हैं। नदियों के सूखने और भूजल नीचे जाने के कारण जलाशयों पर संकट गहराता चला जा रहा है।उत्तराखण्ड में 3096 जलस्रोतों में से 725 इस्तेमाल में नहीं हैं। 204 सूखे हैं। झारखण्ड में 560 पर किसी न किसी तरह का कब्जा है।4075 सूख गये हैं। 1689 जीर्णोद्धार के चलते बंद पडे़ हैं। देश की राजधानी दिल्ली के तीन चौथाई फीसदी जलाशय या तो सूखे हैं या अतिक्रमण उनका अस्तित्व मिटा रहे हैं। कहीं का पानी इतना गंदा है कि वह इस्तेमाल ही नहीं हो पा रहा है। यहां के 90 फीसदी जलस्रोत का इस्तेमाल नहीं हो रहा है और 77 में पानी की कमी है या यूं कहें कि सूख गये हैं। 90 मरम्मत के चलते बंद हैं, 8 मलबे से भरे हैं और 656 ऐसे हैं जिनका इस्तेमाल नहीं होता। इसके बावजूद देश में सरकार द्वारा जलाशयों का निर्माण जारी है। अमृत सरोवर इसी कडी़ का हिस्सा हैं।
दरअसल जल संकट को केवल बरसात की मात्रा के आइने में नहीं देखना चाहिए। हमारे यहां जल संरक्षण और जल संवर्धन की अनेकानेक योजनाएं जैसे मनरेगान्तर्गत जल संरक्षण, संवर्धन के काम, वाटर हार्वेस्टिंग के काम,वाटर शेड कार्यक्रम, पानी रोको और जलाभिषेक कार्यक्रम किये जा रहे हैं। इसके बाद भी जल संकट के गहराने का कारण क्या है? यह मूलभूत सवाल है जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं न कहीं कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है। यह सवाल किसी संस्था, विभाग, उसके स्थायित्व को लेकर कदापि नहीं है और न यह जल संरक्षण के कार्यों और उसकी सार्थकता पर ही है। जरूरी है कि जल की सार्वकालिक उपलब्धता के विषय में नये सिरे से सोचा जाये। सबसे पहले डि लर्निंग हो, उसके बाद समाधानों के तकनीकी पक्षों पर गौर किया जाये, उन्हें सुधारा जाये, वन भूमि पर किये जाने वाले जल संरंक्षण और मिट्टी के प्लान में यथोचित सुधार किया जाये। पानी के बुद्धिमत्ता पूर्ण उपयोग को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनायी जायें। खास बात यह कि इस सबका समग्र अध्ययन करते समय उसका फोकस समाज हो जिसकी सहभागिता के बिना यह सारी कबायद बेमानी रहेगी।इसी प्रकार जल संकट की हकीकत को समग्रता में समझा-बूझा जा सकता है। पानी को खण्ड-खण्ड कर विभागों की सीमाओं में बांधने का परिणाम हमारे सामने है। इसलिए सकारात्मक एवं नकारात्मक प्रभावों के कारकों को परखे और पानी की उपलब्धता के गणित को समझे बिना कदापि संभव नहीं है। होना यह चाहिए कि इसका दायित्व पानी के विभिन्न पहलुओं पर काम करने वाली अकादमिक संस्थाओं यथा आई आई टी रुड़की, वाटर और लैण्ड मैनेजमेंट आर्गनाइजेशन, सीजीडब्ल्यूबी, सीड्ब्ल्यूसी और कृषि विश्वविद्यालयों को सौंपा जाये और उनके निष्कर्षों को सरकारें व जल संरक्षण की दिशा में कार्यरत संस्थाएं कार्यरुप में परिणित करें, तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।