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संजय कुमार सिंह
द टेलीग्राफ ने आज सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन में टकराव की कहानी छापी है। इसमें बताया गया है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की 'राजनीति' से आगे बढ़ते हुए कैसे सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बंटवारे की ओर बढ़ रहा है। अखबार की खबर का उपशीर्षक है, "उपासना पर नाराज होने वाले प्रमुख को निकालने की कोशश"। इसमें बताया गया है बार का चुनाव दिसंबर में होता है और इस बार दिसंबर में चुने गए एसोसिशन के प्रेसिडेंट और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने इस साल फरवरी में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा द्वारा नरेन्द्र मोदी की उपासना जैसी प्रशंसा को नामंजूर करते हुए कहा था कि ऐसी टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए अनुचित हैं और इससे न्यायिक स्वतंत्रता की बुरी छवि बनती है। इस संबंध में एक आधिकारिक प्रस्ताव पास हुआ था। अब दवे को प्रेसिडेंट के पद से हटाने और 25 फरवरी के अनके अनधिकृत प्रस्ताव को वापस लिए जाने पर चर्चा के लिए एसोसिएशन के सेक्रेट्री अशोक अरोड़ा ने एक बैठक बुलाई है।
आज ही इंडियन एक्सप्रेस ने बुधवार को रिटायर हुए सुप्रीम कोर्ट के जज दीपक गुप्ता का इंटरव्यू छापा है। इसका शीर्षक ही है, "(राज्यसभा की सीट) स्वीकार नहीं करता ... हालांकि कोई मुझे ऑफर भी नहीं करेगा"। मेरा भी मानना है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश को राज्य सभा का सदस्य मनोनीत करना अपने आप में अनैतिक है (राष्ट्रपति के दस्तखत से हुआ है तो गैर कानूनी क्या होगा) पर उन्हें ऐसी पेशकश की गई और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया यह बेहद निराशाजनक है। और ऐसा सिर्फ मुख्य न्यायाधीश के रिटायर होने पर किए जाने के कारण नहीं है। उससे पहले की स्थितियां भी इस पेशकश और स्वीकारोक्ति पर उंगली उठाने वाली हैं। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने कहा कि 2018 की जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के जजों की प्रेस कांफ्रेंस का आईडिया भी अच्छा नहीं था। किया गया है। रिटारमेंट के बाद पद स्वीकार करने के संबंध में पूछे गए एक सवाल के जवाब में न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा है, .... कुछ पंचाट हैं जिसे कानूनन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों द्वारा चलाया जाना है और किसी ना किसी को इन पदों पर नियुक्त किया जाना है पर यह मेरे लिए नहीं है। अल्प अवधि की नियुक्तियों को सरकारी नियुक्तियों से अलग किया जाना चाहिए और इसमें फैसला सुप्रीम कोर्ट का होना चाहिए। यही मेरा न्यायिक और निजी नजरिया रहा है।
अपने इंटरव्यू में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने कहा है, ढेर सारे पैसों और फैन्सी लॉ फर्मों (अच्छी या बढ़िया) से जुड़े मामले लिस्टिंग में प्राथमिकता पाते लगते हैं। रंजन गोगोई के मामले में उन्होंने कहा है, पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले में सुप्रीम कोर्ट की छवि बेहतर नहीं हुई है। लाइव लॉ की एक खबर के अनुसार कुछ ही दिन पहले अधिवक्ता रीपक कंसल ने सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट जनरल को पत्र लिखकर मामलों की लिस्टिंग में भेदभाव का आरोप लगाया था और अपनी शिकायत दर्ज कराई थी। इस मामले में उन्होंने लिखा था, अर्नब गोस्वामी की याचिका गुरुवार की रात दिखल की गई और शुक्रवार को सुबह 10.30 बजे के लिए लिस्ट हो गई। आरोप लगाया है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री अकसर मामलों को लिस्ट करने में कुछ विशेष वकीलों और कानूनी फर्मों के साथ पक्षपात करती है। उन्होंने कहा कि कई मामले ऐसे हैं जो 17 अप्रैल को दायर हुए थे लेकिन उन्हें अभी तक लिस्ट नहीं किया गया है।
आईआईएम अहमदाबाद के सेवानिवृत्त प्रोफेसर जगदीप छोकर ने ऑनलाइन पत्रिका डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि उनकी याचिका 15 अप्रैल को दायर की गई थी और उसके साथ साथ अर्जेंसी या अत्यावश्यकता का अनुरोध भी किया गया था, लेकिन उनकी याचिका को तुरंत सुनवाई नहीं मिली। याचिका पर पहली सुनवाई सोमवार 27 अप्रैल को हुई. छोकर कहते हैं, "यह बड़ा अजीब लगता है कि लाखों प्रवासी श्रमिकों के मुद्दे की जगह अर्नब गोस्वामी की याचिका को तरजीह दी गई। ऐसा लगता है कि क्या अत्यावश्यक है और क्या नहीं, यह आकलन करने में सुप्रीम कोर्ट एक व्यक्ति के ऊंचे दर्जे से प्रभावित हो गया।"