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पिछली सदी में दुनिया के मुसलमानो मे जिन दो शख्सियात की तहरीरों ने सबसे ज्यादा प्रभाव डाला है उनमें मिस्र के संगठन इखवानुल मुस्लिमून के रहनुमा सैयद कुत्ब और भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े मुस्लिम संगठन जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक अबुल आला मौदूदी हैं। दोनों लेखक उस दौर में अपनी कलम से इस्लाम को पेश कर रहे थे जिस दौर में इस्लाम के नाम पर चंद मजहबी रसूमात को पूरा दीन बनाकर मुसलमानो मे रायज कर दिया गया था और मुसलमानों में कुरान आधारित इस्लाम बिल्कुल ओझल हो गया था।
मुसलमानों का मौलवी तबका कुछ किताबों के आधार पर मुसलमानों को हांके जा रहा था। दुनिया में मुसलमान नाम की जाति तो मौजूद थी लेकिन उनका इस्लाम का तसव्वुर बिल्कुल कुरान से अलग था। इसी दौर में दुनिया को साम्यवाद के तौर पर एक नये नज़रिए से वास्ता पड़ रहा था और साम्यवाद को धर्म के मुकाबले एक बड़ी ईजाद के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। इसलिए मुसलमानों को साम्यवाद के असर से बचाना भी उस वक्त के मुस्लिम विद्वानों के लिए एक चुनौती का कार्य था जिसे टक्कर देने के लिए भारत में अबुल आला मौदूदी और मिस्र में सैयद कुतब ने मोर्चा संभाल रखा था। हालांकि उस समय का मौलवी वर्ग दोनों लेखकों को पसंद नहीं करता था इसके बावजूद दोनों लेखकों को उस समय के पढ़े लिखे नौजवानों में खूब पसंद किया जा रहा था क्योंकि दोनों लेखक जिस प्रकार तार्किक रूप से साम्यवाद के खिलाफ तनकर खड़े थे इनके बजाए मज़हबी तबका सिर्फ परंपरागत रूप से मज़हब को ढो रहा था।
अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब ने उस समय के गैर इंसानी नज़रियात को रद्द करते हुए इस्लाम को कुरान के संदर्भ में समझाने के लिए कलम चलाया और मुसलमानों की नई पीढ़ी के सामने इस्लाम का कुरानी तसव्वुर पेश कर दिया। दोनों लेखकों को मुसलमानों के अंदरूनी कई वर्गों से विरोध का सामना भी करना पड़ा खासतौर से उस वर्ग से जो यह समझता था के साम्यवाद के रूप में उसने एक नए खुदा का वजूद तलाश कर लिया है और अब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल साम्यवाद और लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही निहित है।
हम अगर खासतौर से भारत की बात करें तो भारतीय उपमहाद्वीप में उस समय अबुल आला मौदूदी को अपनी कुछ तहरीरों की वजह से मौलवियों के फतवों और नाराजगियों का भी सामना करना पड़ा। अगर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में कोर्स की किताबों से मौदूदी और सैयद कुतुब के लेख हटाए जा रहे हैं तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि मुसलमानों का मजहबी और खुद को आधुनिक कहने वाला वर्ग सदा ही इन दोनों लेखकों को पसंद नहीं करता रहा है।
हकीकत यह है की मौदूदी ने अपनी कलम के जरिए जो कारनामा अंजाम दिया अब उसकी आवश्यकता है या नहीं यह तो बाद की बहस है लेकिन यह दोनों लेखक कम से कम नौजवानों में इस्लाम के कुरान के मुताबिक तसव्वुर को पेश करने में कामयाब रहे हैं। हो सकता है कि दोनों लेखकों के लिए पाठ्यक्रमों से हटा दिए जाएं लेकिन फिर भी दोनों के जो प्रभाव अब मुस्लिम दुनिया पर नजर आते हैं उससे यह लगता है की पाठ्यक्रम हटने के बाद भी उनके प्रभाव कम नहीं होंगे। पाठ्यक्रम से दोनों लेखकों के लेख हटाने के लिए आपत्तिजनक क्या है इसका जवाब अब तक कोई नहीं दे सका है। और ये बात बिल्कुल सच है कि इन्हें हटवाने के लिए मुसलमानो के अंदरूनी तत्व जो मुसलमानो को बंधक बनाए रखना चाहते हैं वही जिम्मेदार होंगे।