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ज्ञानेन्द्र रावत
देश आज अन्नदाता किसान के आक्रोश का सामना कर रहा है। वह मोदी सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले एक महीने से भी अधिक समय से दिल्ली की सीमा पर आंदोलनरत है। अब स्थिति यह है कि देश की राजधानी दिल्ली की कोई भी सीमा हजारों की तादाद में किसानों से अटी पडी़ है। खासियत यह कि इसमें बच्चे,बूडे़, जवान, महिलाएं और पूर्व सैनिकों की भागीदारी अहम है। सरकार और सरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी की अपने हितू पूंजीपतियों के हाथ में देश की खेती सोंपे जाने और उनको लाभ पहुंचाने की हठधर्मिता को मद्देनजर रखते हुए देश का अन्नदाता भगवान किसान जबतक उसकी मांगें मानी नहीं जातीं, तबतक अपने आंदोलन को जारी रखने की पूरी तैयारी के साथ राजधानी की सीमा पर डटा है। सबसे बडी़ बात सरकार दावा कुछ भी करे उसे देश के अधिकांश किसान संगठनों के साथ-साथ सभी वर्गों और आम जनता का पुरजोर समर्थन मिल रहा है।
यह इसी बात से जाहिर हो जाता है कि एक महीने बाद सरकार की सारी कोशिशों और आंदोलन में फूट डालने की हर संभव कोशिशों के बावजूद वह मजबूती के साथ डटे हुए हैं। जबकि यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि देश के किसान को आज एक वर्ग विशेष और सत्ताधारी दल के विचारवंत महाभट विद्वानों के द्वारा खालिस्तानी, पाकिस्तानी, विरोधी दलों के चमचे और न जाने कितने - कितने विशेष अलंकरणों से विभूषित किया जा रहा है। ऐसा इसलिए कि वह सरकार की कृषि-किसान विरोधी नीति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। वह गूंगी और बहरी सरकार को अपनी पीड़ा सुनाना चाहते हैं। इसीलिए वह दिल्ली आना चाहते थे लेकिन वह दिल्ली न आ सकें, इस ख़ातिर सरकार ने जो जतन किये, उनको रास्ते में ही रोकने के लिए पुलिस बलों की तैनाती की, सड़कें खोदी, मिट्टी के टीले बनाये, गड्ढे खोदे, यह क्या जाहिर करता है।
जबकि वह पहले ही साफ तौर पर कह चुके हैं कि हम किसान की लड़ाई लड़ने आये हैं। हमारे लिए सभी जातियां, धर्म, वर्ग और संप्रदाय एक समान हैं। हम सभी का सम्मान करते हैं , सभी हमारे साथ हैं और सभी का हमें हर संभव सहयोग भी मिल रहा है। हमारी लड़ाई तो देश बचाने को लेकर है। देश की मिट्टी, कृषि सरकार द्वारा चंद पूंजीपतियों के हाथों में सौंपने के खिलाफ है। कंपनियां, हवाई अड्डे, बंदरगाह, रेल, बस अड्डे और किलों को तो सरकार पहले ही गिने-चुने अपने पूंजीपती मित्रों को बेच ही चुकी है। हमारे आंदोलन की योजना सड़क खोदना नहीं है, ना रास्ता रोकना है। हम तो अपनी पीड़ा सरकार को बताना चाहते हैं। वह भी सरकार सुनना नहीं चाहती। हमारा रास्ता तो सरकार सड़क खोदकर, वैरीकेड लगाकर, वाटर कैनन कर और दमन के जरिये रोक रही है। पुलिस को रास्ते - रास्ते हमारा रास्ता रोकने के लिए ,लाठी चार्ज करने के लिए तैनात किया गया है।
यही नहीं वह ऐसा कर भी रही है। फिर भी हमने पुलिस वालों पर हाथ नहीं उठाया है और आगे भी नहीं उठायेंगे। हम उनके आगे लेट जायेंगे। लेकिन हाथ नहीं उठायेंगे। वह तो सरकार का हुक्म मानने के लिए यहां भेजे गये हैं। वह मजबूर हैं। वह हमारे दुश्मन तो नहीं हैं। यह सच है कि किसी पर डंडा लाठी पड़ती है तो उसे गुस्सा तो आता ही है। लेकिन यह भी सच है कि आखिर वह भी तो हमारे ही बेटे हैं। उस हालत में वह हमारे ऊपर लाठी क्यों चलायेंगे। हां हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई हमें खालिस्तानी कहे, पाकिस्तानी कहे या देश की विरोधी पार्टियों का चमचा कहें, हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदुस्तानी रहेंगे। हम किसान हैं, जो देश के लोगों का पेट भरने के लिये सर्दी, गर्मी और बरसात में अपना खून-पसीना बहाते हैं। असलियत यह है कि हमें जो खालिस्तानी, पाकिस्तानी और कांग्रेस आदि विरोधी दलों का चमचा बता रहे हैं, वह तो रेपिस्टों का समर्थन करने वाले लोग हैं, हत्यारों को पूजने वाले हैं और हिटलरी मानसिकता के लोग हैं, उनसे इसके अलावा और उम्मीद ही क्या की जा सकती है।
सरकार बार-बार बातचीत का दिखावा कर देश की जनता और किसानों को गुमराह करने की जीतोड़ कोशिश कर रही है। विडम्वना देखिए एक ओर सरकार बातचीत का ढोंग कर रही है, वहीं प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद,विधायक और अंधभक्त कृषि कानूनों को किसान के हितकारी होने का दंभ भरते नहीं थक रहे। प्रधानमंत्री तो बारम्बार इन कानूनों की वकालत करते हुए यह कह रहे हैं कि देश के किसान को विपक्ष बरगला रहा है। भ्रमित कर रहा है। इस कानून से किसान की तकदीर बदल जायेगी। यहां गौरतलब यह है कि यदि यह कानून किसान की तकदीर बदल देंगे तो क्या कारण है कि देश के कृषि विशेषज्ञ किसानों के पक्ष में दलील दे रहे हैं।क्यों अब दूसरे राज्यों से लोग दिल्ली के लिए कूच कर रहे हैं। आखिर क्यों राज्यों की पुलिस उनको दिल्ली आने से रोक रही है। उन पर क्यों लाठी चार्ज किया जा रहा है। हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर की मानें तो लोकतंत्र में विरोध का अधिकार सभी को है। मीडिया के जरिये अपनी बात हर कोई रख सकता है। संसद-विधान मंडल में विरोध कर सकता है। उस हालत में किसान इस अधिकार से वंचित क्यों किया जा रहा है।उसकी जायज मांगों पर क्यों नहीं सुनवायी हो रही। यदि ऐसा नहीं था तो कौन सी आफत थी कि बिना बहस के राज्यसभा में यह कृषि बिल पास करा लिया गया। यदि अपने पूंजीपति मित्रों को लाभ पहुंचाने की नीयत नहीं थी तो क्या कारण रहे कि बिल संसद में बाद में पास कराया गया,उससे पहले ही मोदी के पूंजीपति मित्रों के गोदाम बनकर तैयार हो गये जिन पर पिछले दो सालों से काम जारी था। क्या यह सुनियोजित साजिश नहीं है।
सरकार का यह रवैया उसकी हठधर्मिता और लोकतंत्र विरोधी मानसिकता का प्रमाण नहीं है क्या। इससे जाहिर हो जाता है कि अपने हक के लिए आवाज बुलंद करना इस सरकार के दौर में अपराध है। यदि यह अपराध है तो फिर देश के सत्ताधीश समूची दुनिया में किस मुंह से सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दंभ भरते नहीं थकते। उनका यह दोमुँहापन अब देश और देश का किसान बखूबी समझ चुका है। यह आंदोलन सरकार के किसान विरोधी रवैये का परिणाम है। यहां गौरतलब है कि यदि सरकार का इसी तरह का रवैया बरकरार रहा तो अभी तो वह सरकार की कृषि - किसान विरोधी नीति का ही विरोध कर रहे हैं, भविष्य में वह किसान वर्ग के लिए आरक्षण की मांग न करने लग जायें, इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता। समय की मांग है कि सरकार किसानों की मांग पर गंभीरता से देश हित को दृष्टिगत रखते हुए विचार करे और उनसे बातचीत के माध्यम से शीघ्र समस्या का हल निकालने का प्रयास करे। यही वक्त का तकाजा है। अन्यथा यह विरोध आत्मघाती भी हो सकता है।
गौरतलब यह है कि दुख तो तब होता है जब देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी मन की बात कार्यक्रम में ही नहीं बारम्बार कृषि कानून की वकालत करते हुए उसे किसान हित में बताते हैं जबकि यह जगजाहिर है कि इस काले कृषि कानून के चलते देश का पच्चासी फीसदी किसान जो ज्यादा से ज्यादा पांच एकड़ से भी कम का मालिक है, पूंजीपतियों का गुलाम हो जायेगा और उसकी हैसियत केवल मजदूर जैसी हो जायेगी। पूंजीपतियों को जमाखोरी - कालाबाजारी की खुली छूट मिल जायेगी और कम से कम पच्चीस से तीस लाख करोड़ का कृषि किसानी का कारोबार का मालिक किसान नहीं, देश के गिने-चुने चार-पांच पूंजीपति हो जायेंगे। सरकार भले कुछ कहे असलियत में किसान न अपनी मर्जी से कोई फसल बो सकेगा और न उसे अपनी मर्जी से कहीं बेच ही सकेगा। सरकार की नीयत का खुलासा इसी बात से हो जाता है कि जब किसान की मक्का की फसल बाजार में आने वाली थी, उसी दौरान सरकार ने विदेशों से लाखों टन मक्का का आयात किया। ऐसी सरकार किसान की हितैषी हो सकती है क्या? उससे किसान हित की आशा ही बेमानी होगी।
आज देश का किसान कृषि विरोधी कानून को लेकर देश की राजधानी आकर सत्ता पर काबिज देश के मालिक बने लोगों के कानों पर दस्तक दे रहा है। लेकिन सत्ताधीशों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। वह तो हठधर्मिता की सीमा लांघ चुके हैं। वे यह भूल जाते हैं कि देश के पहले स्वाधीनता संग्राम में किसानों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका थी जिसमें देश के राजे-रजवाड़ों, अभिजात वर्ग और आम जनता का अहम योगदान था। वह बात दीगर है कि उस स्वातंत्रय समर में कुछ गद्दारों और बरतानिया हुकूमत के चाटुकारों की बदौलत कामयाबी न मिल सकी लेकिन नब्बे साल बाद तमाम कुर्बानियों के बाद गांधी के नेतृत्व में देश विश्व मानचित्र पर एक आजाद मुल्क के रूप में जरूर सामने आने में कामयाब हुआ। आज के हालात इस बात के संकेत अवश्य हैं कि अब आंदोलनकारियों को धीरे धीरे अन्य तबकों का भी पुरजोर समर्थन मिलना शुरू हो गया है। उनको जहां-जहां वह डेरा डाल रहे हैं, लोग उनके खाने-पानी के इंतजाम में बढ़-चढ़कर आगे आ रहे हैं। उनको रुक-रुककर जगह जगह चाय-पानी पिला रहे हैं। औरतें-बहन बेटियाँ खुलकर इस काम को अंजाम दे रही हैं। यह समाज की सहभागिता का सबूत है। इसलिए किसानों की ताकत को कम आंकना बहुत बड़ी भूल होगी। अब भी समय है सरकार संभल जाये और किसानों के साथ मिल बैठकर इस समस्या का समाधान निकाले अन्यथा बहुत देर हो जायेगी।यह लोकतंत्र का दंभ भरने वाली सरकार का रवैय्या है जो किसान की सबसे बड़ी हितैषी होने का दावा करते नहीं थकती। यहां गौरतलब है कि बातचीत का माहौल तो तब बने जब सबसे पहले सरकार किसानों पर दर्ज बारह हजार मुकदमे वापस ले, कृषि कानूनों को निलम्बित करे और किसानों को आतंकवादी कहने वाले हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर अपने बयान पर माफी मांगें। बिना इसके बातचीत का क्या औचित्य है।
इस बारे में यह कहना बिलकुल सही है कि देश के किसान पहले मुगलों से लड़े। फिर ईस्ट इंडिया कंपनी और बरतानवी हुक्मरानों से, अब ऐसे क्रूर शासक से लड़ रहे हैं जिसकी पिछली बीस पीढ़ी में शायद ही कोई किसान या सैनिक रहा हो। इतिहास में यह भी लिखा जायेगा कि जिस दौर में सत्ता के तलवे चाटने की अंधी दौड़ चल रही थी, तब अपनी मिट्टी की लाज बचाने के लिए किसान दिल्ली की गद्दी पर बैठे मूर्ख तुगलक की सनक से लड़ रहा था। लेकिन सत्ताधारी यह भूल जाते हैं कि किसान का आक्रोश जब जब चरम पर पहुंचा है, तब -तब उसपर काबू पाना बेहद मुश्किल होता है। इतिहास इसका प्रमाण है। इसलिए हठधर्मिता छोड़ सरकार जनहित में निर्णय ले। वह इतिहास से सबक ले कि दंभ रावण का भी नहीं रहा, तो जनता के आगे तानाशाह एक न एक दिन काल के कराल गाल में समा जाते हैं और उनका नामलेवा भी नहीं बाकी रहता। इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)