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शराबियों की जमात ने उड़ाया सोशल डिस्टेंसिंग का मजाक, अब कैसे रुकेगा कोरोना?
हमारे यहां कहा जाता है कि किसी व्यक्ति, किसी समाज, किसी देश का असली चरित्र संकट के वक्त ही पता चलता है. सवाल ये है कि क्या राष्ट्र के तौर पर हमारा चरित्र वही हो गया है, जो आज शराब की दुकानों के बाहर लगी भीड़ से दिखा है. लेकिन ये याद रखा जाएगा कि जब भारत कोरोना वायरस से युद्ध लड़ रहा था तो भारत के ही लोग शराब की दुकानों के बाहर लाइन लगा कर खड़े थे.
ये किसी राष्ट्र के चरित्र का प्रतीक होता है कि उसके नागरिक संकट के वक्त क्या कर रहे थे. लेकिन जब देश एक बड़े संकट में है तो देश के लोगों के दिमाग में शराब घूम रही है. लोगों को देश से ज्यादा शराब की चिंता हो रही है. अगर इसी तरह से लोग शराब की दुकानों के सामने इकट्ठा होते रहे और अगर इसी तरह से लोग सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियां उड़ाते रहे तो 40 दिन घर में कैद रहकर देश ने अब तक जो तपस्या की है उस तपस्या का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. लेकिन ऐसा लगता है कि इस देश के लिए सिर्फ शराब जरूरी हो गई है. सोचिए अगर देश इस वक्त कोई असली युद्ध लड़ रहा होता तो क्या तब भी लोग इसी तरह से शराब की लाइनों में लगे होते?
कोरोना वायरस से लड़ाई भी किसी युद्ध से कम नहीं है. ये पिछले 100 वर्ष में देश और दुनिया का सबसे बड़ा संकटकाल है जिसमें खतरा अभी कम नहीं हुआ है. कोरोना संक्रमण के मामले में भारत दुनिया के टॉप 15 देशों में है फिर भी लोग देश के संकट को और अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ रहे हैं. किसी भी देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा.
ये कितना विरोधाभास है कि लॉकडाउन से थोड़ी रियायत मिलने पर शराब की दुकानों पर टूट पड़ने वाला ये देश महात्मा गांधी का देश है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हमेशा शराब का विरोध किया था. उनका कहना था कि शराब ना सिर्फ व्यक्तियों से उनका पैसा छीन लेती है बल्कि उनकी बुद्धि भी छीन लेती है. महात्मा गांधी यहां तक कहते थे कि अगर उन्हें एक घंटे के लिए भारत का तानाशाह बना दिया जाए तो वो सबसे पहले शराब की सभी दुकानों को बंद करा देंगे. लेकिन उन्हीं बापू के देश में लोग कुछ दिन शराब के बगैर जी नहीं सकते. शराब के नशे की देश को आदत पड़ती जा रही है.
एक रिसर्च के मुताबिक 2005 में भारत में प्रति व्यक्ति शराब की औसतन खपत 2.4 लीटर थी. जो 2010 में बढ़कर 4.3 लीटर प्रति वर्ष और 2016 में 5.9 लीटर प्रति वर्ष हो गई. वर्ष 2010 से 2017 के बीच भारत में शराब की खपत 38 प्रतिशत बढ़ी. ये हाल तब है जब विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO के मुताबिक दुनिया में करीब 200 बीमारियां शराब के सेवन से होती हैं. शराब की वजह से हर वर्ष दुनिया में करीब 30 लाख लोगों की मौत होती है.
कोरोना काल में भी जानकार यही कह रहे हैं कि शराब पीने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है इसलिए शराब के सेवन से दूर रहना चाहिए. लेकिन लॉकडाउन के 40 दिन के बाद शराब की दुकानें क्या खुलीं, ऐसा लगा कि लोगों ने शराब को ही संजीवनी मान ली. इसे पाने के लिए किसी भी नियम की परवाह नहीं की.
केंद्र सरकार ने शराब की दुकानें खोलने की इजाजत इसलिए दी थी कि कड़े नियम लागू करके सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो सकेगा. कोरोना संक्रमण का खतरा भी नहीं होगा और सरकारों की आमदनी भी शुरू हो जाएगी. क्योंकि शराब की बिक्री सरकारों की आमदनी का बड़ा ज़रिया होती है. अधिकतर राज्यों की 15 से 30 प्रतिशत आमदनी शराब बिक्री पर मिलने वाले टैक्स से होती है. 2019 में राज्यों को करीब 2 लाख 48 हज़ार करोड़ रुपये की कमाई शराब बिक्री से ही हुई थी. लेकिन लॉकडाउन के 40 दिन में शराब बिक्री बंद रहने से राज्यों को करीब 27 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है.
लॉकडाउन की वजह से सरकारों का बजट बिगड़ गया है. उदाहरण के तौर पर शराब की बिक्री ना होने से पंजाब को ही हर दिन 700 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा था. पेट्रोल-डीजल, शराब बिक्री और जमीन कारोबार, प्रमुख तौर पर इन्हीं पर टैक्स से राज्य सरकारों की मुख्य कमाई होती है. लॉकडाउन से सरकारों की कमाई बहुत कम हो गई है. जिससे किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि खर्च कहां से किया जाए. उदाहरण के तौर पर पिछले वर्ष अप्रैल महीने में दिल्ली सरकार की आमदनी 4500 करोड़ रुपये थी जबकि इस वर्ष सिर्फ 400 करोड़ रुपये के करीब ही रही. इसलिए कई राज्यों ने केंद्र सरकार से मांग की थी कि शराब की बिक्री शुरू की जाए. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इसकी वजह से देश को संकट में डाला जाए.
नियम ये है कि शराब की दुकानों पर एक वक्त पर पांच से ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं हो सकते हैं और एक दूसरे के बीच कम से कम 6 फीट की दूरी जरूरी है. लेकिन शराब की दुकानों के बाहर अधिकतर जगहों पर इन नियमों का पालन नहीं हुआ और लंबी लंबी लाइनें देखी गईं. कहीं-कहीं पर पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा.
महात्मा गांधी कहते थे कि शराब पीने वाला व्यक्ति अच्छे और बुरे की पहचान करना भूल जाता है. वो कहते थे कि शराब पर जब तक प्रतिबंध नहीं होगा तब तक हमारी आजादी किसी गुलामी से कम नहीं है. लेकिन आज जो लोग गांधी जी के अनुयायी होने का दावा करते हैं, जो लोग गांधी सरनेम पर राजनीति करने वालों के समर्थक हैं, उन्हें शराब के खिलाफ कही गई कोई भी बात बहुत चुभ जाती है. शराब के इन शौकीनों को बहुत बुरा लगता है जब शराब के विरोध में कोई कुछ कहता है. आज पूरे दिन ठीक ऐसा ही होता रहा.
हमारे देश में बड़े-बड़े बुद्धिजीवी और पत्रकार शाम को ड्रिंक्स पर बैठकर देश में बेरोजगारी की चर्चा करते हैं. अर्थव्यवस्था की चर्चा करते हैं. ये फैशन बन चुका है. इन चर्चाओं का नशा भी किसी शराब से कम नहीं है.