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मनीष सिंह
दिसम्बर 1989 में वीपी सिंह देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर विराजमान थे। वैसे तो वे उप्र की एक रियासत मांडा के राजा थे। मगर चुनावी नारों में स्वघोषित फकीर थे, अब चुनाव बाद देश की तकदीर थे। उनकी खुद की तकदीर, बाहर से टेक दे रही भाजपा के हाथ मे थी। तकदीर वाले फकीर की सरकार बने हफ्ता हुआ था, की गृहमन्त्री की बेटी किडनैप हो गयी।
1982 तक श्रीनगर में अमिताभ, विनोद मेहरा और राखी "किंतनी खूबसूरत ये तस्वीर है, ये कश्मीर है" गुनगुनाते फिरते थे। तब नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार थी। जुलाई 1984 में इंदिरा ने फारुख को हटाया। फारुख के जीजा, गुलशाह की सरकार बनवा दी। उम्मीद थी कि जीएम शाह केंद्र और कांग्रेस के इशारों पर चलेंगे।
गुलशाह अपनी ही फितरत के थे। अपनी जमीन मजबूत करने लगे। पाकिस्तान में जिया इस्लामिक क्रांति ला रहे थे। वही खेल शाह खेलने लगे। कश्मीर में पहली बार हिन्दू मुस्लिम दंगा 1986 में हुआ। शाह की पुलिस देखती रही।
बहरहाल, इन हालात में शाह को बर्खास्त किया गया। 1987 में चुनाव हुए। प्रशासन ने भारी पैमाने में धांधली की, फारुख के पक्ष में, जो राजीव के करीब हो चुके थे। इस्लामिक तंजीमो ने इलेक्शन के पर्चे भरे थे। तब तक उनकी राजनीति जैसी भी थी, भारत के सम्विधान के बैनर तले थी। धांधली, जेल भरना, प्रचार रोकना, कॉउंटिंग में ठगी.. फारुख की सरकार आ तो गयी मगर यूथ ने परिणाम और सरकार को रिजेक्ट किया। पाकिस्तान ने फायदा उठाया। इसमे से कुछ एलिमेंट छांटे, हथियार पैसा, ट्रेनिंग देना शुरू किया। जेकेएलएफ अस्तित्व में आया।
1989 तक हिंसा बढ़ी, पुलिस की एट्रोसिटीज भी, जगमोहन- फारुख में झगड़ा भी। राजीव ने जगमोहन को हटा दिया। सितम्बर 1989 में पहली बार किसी कश्मीरी पंडित की हत्या हुई। दिसम्बर में राजीव को जनता ने हटा दिया।
मुफ़्ती जो राजीव के पर्यटन मंत्री थे, अब पाला बदलकर वीपी सिंह के गृहमंत्री हो चुके थे। केंद्रीय गृहमंत्री की बेटी का अपहरण, देश की पहली इस तरह की घटना थी। सरकार ने बेटी बचाने को प्राथमिकता दी। कई आतंकवादी छोड़ दिये गए। कश्मीरी एक्स्ट्रिमिंस्ट ने पहली बार जीत का स्वाद चखा। हिम्मत बढ़ी तो पुलिस प्रशासन में उच्चस्थ अधिकारियों की हत्याएँ शुरू हुई। इसमें ज्यादातर पंडित थे।
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ये 1990 था। और क्या साल था वो। चन्द्रशेखर का मिशन था वीपी को निपटाना। वीपी का मिशन था देवीलाल को निपटाना। मगर सबसे दूरदर्शी थे आडवाणी, अपनी पार्टी को दो सीट से अस्सी सीट तक जा चुके थे। उनका मिशन था हिन्दू वोटों की अगली छलांग लगाना। सो जेकेएलएफ से हिन्दुओ को बचाने के लिए जगमोहन को वापस भेजा गया। फारुख जगमोहन खिलाफ थे। सो जगमोहन के पद सम्भालते ही फ़ारुख ने इस्तीफा दे दिया। जगमोहन को खुला मैदान मिल गया।
प्रशासन आतंकियों पर सख्त हुआ। गौकदल नाम की जगह पर बहुत से "आंतकवादी" मारे गए। सेंट्रल फोर्सेज द्वारा मास किलिंग का आरोप उछला। शोरगुल होता रहा, मगर इस तरह की छिटपुट घटनाएं भी होती रही, आरोप उछलते रहे। जेकेएलएफ और इस्लामिक तंजीमों ने कश्मीरी पंडितों पर खुलकर गुस्सा उतारना शुरू किया। उन्हें वादी छोड़ने के एलान हुए। तो भारत की सरकार ने क्या किया?
सरकार ने बसे लगाकर सारे कश्मीरी पंडित, वादी से बाहर कैम्पो में भेज दिये। उन्हें सुविधायें, राशन, और मासिक खर्च देने के वादे जगमोहन प्रशासन ने किये। जल्द से जल्द स्थिति सामान्य करके वापस भेज देने का वादा था। इधर केंद्र में जार्ज फर्नांडिस कश्मीर मामलों के मंत्री थे। जगमोहन का हिसाब-किताब उनकी समझ से बाहर था। तो जगमोहन छह माह होते होते फिर से हटा दिए गए। जगमोहन गए, बात गयी। कैम्पो में पंडित इंतजार करते रहे। उनकी सांसे, जीवन, वक्त, उम्मीदें और घड़ी 1990 में रुक गयी। आज भी वहीं रुकी है।
इधर वीपी की बैसाखियाँ रथ लेकर बड़ी दूर निकल गयी। मंडल के व्हीलचेयर पर लदकर वो दूर तक रथ का पीछा नही कर पाये। भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। उनकी सरकार भी 1990 में ही दफन हो गयी।
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कोई 11 माह तक वीपी देश की तकदीर रहे। उंसके बाद जीवन बियाबान में गुजरा, 2008 में अंतिम सांस ली। बड़े अच्छे कवि भी थे। उन्होंने लिखा है
कैसे भी वार करूँ ,उसका सर
धड़ से अलग नहीं, होता था
धरती खोद डाली
पर वह दफ़न नहीं होता था
उसके पास जाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दाँत काटूँ
तो मुँह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते-करते मैं हाँफने लगा
पर उसने उफ़्फ़ नहीं की
तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं,अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।
मैं अपने दोस्त का सर काटूँ
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ।