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Chaudhary Charan Singh: किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह: इंदिरा गांधी ने सिर्फ इसलिए ले लिया था उनकी सरकार से समर्थन वापस
साभार गूगल
अरविंद जयतिलक
Chaudhary Charan Singh: किसानों के मसीहा चैधरी चरण सिंह का राजनीति के विराट संसार में प्रवेश तब हुआ जब मोहनदास करमचंद गांधी ब्रिटिश पंजे से भारत को मुक्त कराने की जंग लड़ रहे थे। 1930 में गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान चरण सिंह हिंडन नदी पर नमक बनाकर उनका समर्थन किया। वे गांधी जी के साथ जेल की यात्रा की। दिल्ली से नजदीक गाजियाबाद, हापूड़, मेरठ, मवाना और बुलंदशहर के आसपास क्रांति का बीज रोपा। गुप्त संगठन खड़ा कर ब्रितानी हुकुमत को चुनौती दी। इससे खौफजदा ब्रितानी ताकत उन्हें गोली मारने का फरमान सुनाया। लेकिन उनके इंकलाबी तेवर कमजोर नहीं पड़े। उन्होंने भारत माता की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प ठान लिया। उन्होंने डटकर ब्रितानी हुकुमत की चुनौतियों का आंलिगन किया। जनता के बीच सभा करते हुए एक दिन पकड़ लिए गए। राजबंदी के रुप में डेढ़ वर्ष की सजा हुई। किंतु इस सजा कालखंड का भी उन्होंने सदुपयोग किया। जेल में रहकर 'शिष्टाचार' नामक ग्रंथ की रचना की जो भारतीय संस्कृति और समाज के शिष्टाचार के विविध पहलूओं का प्रकाश डालती है। चरण सिंह की अंग्रेजी भाषा पर गजब की पकड़ थी। उन्होंने 'अबाॅलिशन आॅफ जमींदारी' 'लिजेंड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडिया पाॅवरर्टी एंड इट्स साॅल्यूशन' नामक पुस्तकों का लेखन किया।
आजादी के उपरांत वे किसानों के ताकतवर नेता बनकर उभरे और भारत के किसानों ने उनमें एक मसीहा की छवि देखी। उनकी छवि एक गंवई व्यक्ति की थी जो सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास रखता था। 1952 में उन्हें डा0 संपूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में राजस्व तथा कृषि विभाग का उत्तरदायित्व संभालने का मौका मिला। इस उत्तरदायित्व का भली प्रकार निर्वहन किया। उनके द्वारा तैयार किया जमींदारी उन्मूलन विधेयक कल्याणकारी सिद्धांत की अवधारणा पर आधारित था। इस विधेयक के बदौलत ही 1 जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और गरीबों को उनका अधिकार मिला। लेखपाल पद के सृजन का श्रेय भी चैधरी चरण सिंह को ही जाता है। किसानों के इस मसीहा ने 1954 में उत्तर प्रदेश भूमि संरक्षण कानून को पारित कराया। 1960 में भूमि हदबंदी कानून को लागू कराने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही।
आसमान छूती लोकप्रियता के दम पर वे 3 अप्रैल 1967 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने समाज व अर्थव्यवस्था के गुणसूत्र को बदलने का मन बना लिया। उन्होंने किसानों, मजदूरों और हाषिए पर खड़े लोगों की समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण फैसले लिए। कुटीर उद्योग के विकास की नीतियां बनायी। सामाजिक समानता की स्थापना के लिए परंपरागत मूल्यों और मान्यताओं को हथियार बनाने के बजाए उस पर ही हमला बोला। उन्होंने एक शासकीय आदेश पारित किया कि 'जो संस्थाएं किसी जाति विशेष के नाम से चल रही हैं, उनका शासकीय अनुदान बंद कर दिया जाएगा।' इसका असर यह हुआ कि कालेजों के नाम के आगे से जातिसूचक शब्द हटा लिए गए। उनकी बढ़ती लोकप्रियता से विरोधी उनके खिलाफ मुखर होने लगे। उन पर जातिवादी, दलित और अल्पसंख्यक विरोधी होने के आरोप चस्पा किया जाने लगा।
17 अप्रैल 1968 को वे मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिए लेकिन जनमानस के नायक बने रहे। किसानों में उनकी लोकप्रियता बढ़ती गयी। मध्यावधि चुनाव में वह 'किसान राजा' के नारे के साथ मैदान में उतरे और विरोधियों पर शानदार जीत अर्जित की। 17 फरवरी 1970 को वे पुनः मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए। अपने दूसरे कार्यकाल में उन्होंने कृषि में आमूलचुल परिवर्तन का रोडमैप तैयार किया। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए उर्वरकों से बिक्री कर हटा ली। सीलिंग से प्राप्त भूमि को गरीबों में वितरित किया। उनका मानना था कि 'गरीबी से बचकर समृद्धि की ओर बढ़ने का एकमात्र मार्ग गांव और खेतों से होकर गुजरता है। गांवों के विकास की चिंता उन्हें बराबर कचोटती थी। इसीलिए उन्होंने आजादी के बाद ही 1949 में गांव और शहर के आधार पर आरक्षण की मांग उठायी। उनका कहना था कि चूंकि गांव शिक्षा और आर्थिक तौर पर शहरों से पिछड़े हैं इसलिए गांवों को सेवाओं में 50 फीसद आरक्षण मिलना चाहिए।
चरण सिंह अपनी योग्यता और लोकप्रियता के दम पर केंद्र सरकार में गृहमंत्री बने। पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उनका हक दिलाने के लिए मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। 1979 में वे वित्तमंत्री और उपप्रधानमंत्री बने और राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की। 28 जुलाई, 1979 को वे देश के प्रधानमंत्री बने। तब उन्होंने कहा था कि 'देश के नेताओं को याद रखना चाहिए कि इससे अधिक देशभक्तिपूर्ण उद्देश्य नहीं हो सकता कि वे यह सुनिश्चित करें कि कोई भी बच्चा भूखे पेट नहीं सोएगा, किसी भी परिवार को अपने अगले दिन की रोटी की चिंता नहीं होगी तथा कुपोषण के कारण किसी भी भारतीय के भविष्य और उसकी क्षमताओं के विकास को अवरुद्ध नहीं होने दिया जाएगा।' किंतु देश का दुर्भाग्य कि उन्हें यह सपना पूरा करने का मौका नहीं मिला। वह प्रधानमंत्री के पद पर कुछ ही दिन रहे। इंदिरा गांधी ने बिना बताए ही उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
दरअसल इसका कारण यह रहा कि इंदिरा गांधी पर जनता पार्टी की सरकार ने कई मुकदमें लगा रखे थे। वह चाहती थी कि चैधरी साहब समर्थन के एवज में उन मुकदमों को हटाने का भरोसा दें। लेकिन चौधरी साहब को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने सौदेबाजी को खूंटी पर टांग प्रधानमंत्री पद को ठोकर लगाना बेहतर समझा। उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपनी ईमानदार और सिद्धांतवादी राजनेता की छवि को खंडित नहीं होने दी। चौधरी साहब देश व समाज के प्रति संवेदनशील थे। उनमें राष्ट्रभक्ति व समाजभक्ति थी। वे एक राजनेता से कहीं ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। देश के राजनीतिक दलों और राजनेताओं को उनके राजनीतिक आदर्शों और जनसरोकारों से सीख लेनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य है कि उनके नाम की माला जपने वाले और उनके बताए रास्ते पर चलने का दंभ भरने वाले उनके द्वारा स्थापित कसौटी पर खरे नहीं हैं। वे चैधरी साहब के आदर्शों की बात तो जरुर करते हैं लेकिन उनके सिद्धांतों को ताक पर रखकर जाति, धर्म अगड़ा-पिछड़ा, सवर्ण-दलित का वितंडा खड़ाकर सत्ता हथियाने का व्यूह रचते हैं। देर-सबेर उन्हें समझना होगा कि वे चैधरी साहब के सपनों के साथ छल कर रहे हैं।