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ताशकन्द में पाकिस्तान से शांति समझौते की रात उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें सुबह काबुल के लिए उड़ना था। रात 1.20 पर वह सीने में दर्द और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत करते हैं। मौके पर उनके निजी डॉक्टर द्वारा इलाज किया जाता है, मगर 1.32 पर उनकी नब्ज थम जाती है। तब तक रशियन डॉक्टर्स भी आ जाते है। बेजान शरीर मे जान फूंकने की कोशिश करते हैं। जो बेकार रहती हैं।
मुगल सराय में जन्मे लालबहादुर श्रीवास्तव, अल्पायु में पिता को खोने के बाद रिश्तेदारों के संरक्षण में पलते बढ़ते हैं। काशी विद्यापीठ से मिली शास्त्री की डिग्री उनका सरनेम बनती है। उत्तर प्रदेश में जेबी कृपलानी के संरक्षण में आगे बढ़ते है, स्वाधीनता आंदोलन भागीदारी करते हैं। यूपी में विधायक होकर प्रदेश कांग्रेस में नाम बनाते है।
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश ( तब यूनाइटेड प्रोविंस) के पुलिस मंत्री बनते हैं। 1952 के चुनावों में, वह यूपी चुनाव अभियान में नेहरू के दाहिने हाथ बनते है। शीघ्र ही भारत की कैबिनेट में, नेहरू शास्त्री को जगह देते है।
52 के बाद पहला कार्यकाल नेहरू का पीक है, दूसरा ढलान, तीसरा डिजास्टर। नेहरू के बाद कोई और ताकतवर है , वो कृष्णा मेनन हैं। 1960 की ओर बढ़ते बढ़ते कांग्रेस में एक दक्षिणपंथी दल शक्तिशाली हो रहा है। मेनन का पत्ता साफ होता है 1962 की हार से। थके, हारे नेहरू ने पार्टी कामराज पर छोड़ रखी है, राजकाज कैबिनेट के। इसी हाल में एक दिन उनका अवसान हो जाता है।
ताकतवर दक्षिणपंथी गुट के केंद्र मोरारजी की दावेदारी तय है। कामराज को विकल्प ऐसा चाहिए, जिस पर कांग्रेस में मोरारजी को नापसन्द करने वाले सहमत हों। लेकिन वह प्रधानमंत्री बनकर,नेहरू जैसा बरगद भी न हो जाये। कामराज को "गमले में पीपल" चाहिए, तो नजर "मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो" लालबहादुर पर पड़ी।
लालबहादुर खुद इंदिरा या जेपी के नाम के इच्छुक थे। मगर 1964 में जेपी एक रिटायर्ड और मूल धारा से कटे हुए व्यक्ति थे। इंदिरा नेहरू की बेटी थी, मगर सांसद भी नही थी। कैबिनेट ने लालबहादुर को प्रस्तावित किया। कामराज ने चाभियाँ हिलाई, शास्त्री पीएम बन गए।
उन्हें लम्बा वक्त न मिला। चीन से हार की छाया और अकाल के दिनों में कमान संभाली थी। लिटिल स्पेरो निकनेम के साथ, उनका कद नेहरू के जूतों के लिए बेहद छोटा था। वे ईमानदार थे, मितव्ययी थे, अपनी कार का कर्ज चुकाते, पीएम हाउस में खेती करते, उपवास करते, और जय जवान जय किसान का नारा देते। शायद यही उनकी उपलब्धि रह जाती, अगर उनके अंतिम दिनों में अयूब जोश में न आते।
अयूब को लगा कि भारत का यह कमजोर वक्त, और कमजोर शख्स उनके लिए मुफीद है । कश्मीर, जो नेहरू के रहते न जीता जा सका, पोस्ट नेहरू युग मे एक कोशिश तो बनती थी। "ऑपरेशन ग्रांड स्लाम" याने कश्मीर में अप्राइजिंग, "ऑपरेशन जिब्राल्टर" याने कश्मीर पर कबायली हमला.. अयूब ने चाल चल दी। भारत ने जवाबी हमले में हाजी पीर जीता मगर कश्मीर के बड़े इलाके पाक के कब्जे में चले गए।
कश्मीर में फंसी सेना ने पंजाब में इंटरनेशनल बार्डर क्रॉस करने की इजाजत मांगी। शास्त्री की एक हाँ ने इतिहास बना दिया। इस "हां" से वह एकाएक नेहरू के जूतों में फिट हो गए, और अयूब का घमंड उन्ही जूतों से कुचल दिया। भारत का लाल, लालबहादुर, ताशकन्द में ऊंचे सर के साथ गया।
कश्मीर के इलाके पाक ने छोड़े, लाहौर हमने। मगर शास्त्री ने पाक का दिल जीता, हाजी पीर को लौटाकर। दूसरी सुबह उनके ताबूत को अयूब ने कन्धा दिया। मौके पर मौजूद डिप्लोमेट सुरिंदर मोहन चड्ढा ने लिखा, "आंसू अयूब के गालों से बह रहे थे"
भारत की अनसुलझी गुत्थियों में, शास्त्रीजी की मौत सुभाष बोस के बाद दूसरे रैंक पर है। मजे की बात की सुभाष का परिवार जहां उनके सम्बन्ध में तमाम अफवाहें खारिज करता है, शास्त्री के मामले में इस शोरगुल की शुरुआत ही परिवार से होती है।
और इन अफवाहों को हवा देता रहा है, वह तबका जिन्हें नेहरू-गांधी खानदान ने पौन सदी, सत्ता से बाहर रखा। इंदिरा शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनी। सो सीधे तौर पर वह इस मौत की बेनेफिशियरी प्रतीत होती है। इस तथ्य का लाभ उठाया जाता है।
पर सच यह है कि शास्त्री के बाद, इंदिरा को वसीयत में प्रधानमंत्री पद नही मिलना था। शास्त्री के बाद गुलजारी लाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री हुए। (वह नेहरू के बाद भी इसी पद पर रहे थे) जिस किसी ने उस दौर की राजनीति को जाना हो, जानेगा कि कांग्रेस का मतलब कामराज नीत गुट था।
यह गुट एक बार फिर, मोरारजी को रोकना चाहता था। दो साल पहले मोरारजी गच्चा खा चुके थे,अबकी बार न चूकने को कटिबद्ध थे। दो साल बाद कामराज भी वापस, उसी तरह "बोन्साई पीपल" की खोज में थे। अब तक नेहरू के बेटी, राज्यसभा के जरिये सांसद हो चुकी थी। शास्त्री केबिनेट में सूचना प्रसारण मंत्री थी। अब तक गूंगी गुड़िया के रूप में ख्याति पा चुकी थी।
कामराज ने इंदिरा पर दांव चला। वोटिंग हुई, सांसदों ने इंदिरा को चुन लिया। मोरारजी की किस्मत में तो पहला गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बनना लिखा था, सो आगे कांग्रेस छोड़ दी। जिन्हें शास्त्री की मौत, इंदिरा का सत्ता के लिए षड्यंत्र लगता है, जरा उस दौर की राजनीति को पढ़ें।
शास्त्री की हत्या सीआईए और केजीबी का षड्यंत्र बताने वाले भी उतने ही अहमक है। शीतयुद्ध के चरम दौर में, दोनों एजेंसी मिलकर, किसी दूसरे देश के हेड ऑफ गवर्नमेंट को, सोवियत जमीन पर मारेंगे??? यह सोचना स्टुपिडिटी कि हाइट है। रही अयूब की, उन्हें जो चाहिए था, मिल चुका था। उस रात वह शास्त्री के अहसानमंद थे।
शास्त्री कों हृदय की समस्या रही थी।कम से कम एक हार्ट अटैक, पीएम होने के पहले आ चुका था। दवाएं साथ लेकर चलते थे। अंत समय हार्ट रिकिण्डल करने का ही ट्रीटमेंट हुआ। मौके पर उनकी मौत को किसी तरह से सन्देहास्पद नही माना गया।
सत्तर सालों तक सुभाष और शास्त्री की मौत का स्यापा करने वाले, आज सत्ता और तथाकथित रहस्यों से भरी फाइलों के अंबार पर बैठे है। सात सालों में कोई रहस्योद्घाटन नही हुआ। मिथुन चक्रवर्ती की एक और फ़िल्म जरूर आ गयी। फेसबुक व्हाट्सप पर बकवासिये आज भी रटी हुई बाते गा रहे हैं। यहां तक कि ताशकन्द की फोटो में सुभाष बोस भी देख लेते हैं। याने जो आदमी छुपकर बाबा बनकर जीवन काट रहा है, वही आदमी ताशकन्द में आगे आकर फोटो खिंचवा रहा है। पागलपन की सीमायें तोड़ी जा चुकी हैं।
बहरहाल मुगलसराय की पैदाइश, लाल बहादुर शास्त्री की हत्या के अन्वेषन में लगे फिल्मकारों, और फेसबुकिया बकवासियों को चाहिए, की मुगलसराय में हुए एक रियल मर्डर पर भी फ़िल्म बनवायें। आखिर देश को सचाई जानने का हक है, आखिर दीनदयाल की हत्या के पीछे किसका षड्यंत्र था। मूवी का नाम हो ..
द मुगलसराय फाइल्स..