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गेंहू की कीमतों में अचानक आई बड़ी कमी, सुनकर किसानों के उड़े होश
दुनिया के सभी अमीर देश सर जोड़ कर बैठे हुए हैं कि यक्रेन और रूस का युद्ध जो बहुत लंबा होता नजर आ रहा है उसके दौरान पूरी दुनिया पर अकाल, बेरोजगारी, गरीबी और संसाधनों की कमी का दौर आने वाला है, इससे कैसे निपटा जाएगा। रूस और यूक्रेन जहां युद्ध चल रहा है दोनों देशों को "रोटी की टोकरी" कहा जाता है। दुनिया का 30प्रतिशत चावल, गेहूं, और दालें इन दोनों ही मुल्कों में पैदा होते हैं। सूरजमुखी जिससे तेल निकलता है और पकवान बनाए जाते हैं पूरी दुनिया में आधा इसी क्षेत्र में उगता है। दुनिया में जब से गैस मिली है रूस तब से ही दुनिया का सबसे ज्यादा गैस उत्पादन करने वाला देश रहा है और तेल के उत्पादन में भी है दुनिया में दूसरे नंबर पर है। रूस और बेलारूस में खाद के इतने कारखाने हैं कि इस वक्त दुनिया में इस्तेमाल होने वाली खाद की हर पांचवी बोरी वहीं से आती है।
यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में पैदा हुआ गेहूं का संकट अभी खत्म नहीं हुआ है, इसके बावजूद इस कमोडिटी के दाम में यानी गेंहू के कीमत में हाल में तेज गिरावट आई है। मंगलवार, 28 जून को गेहूं की कीमत 9.39 डॉलर प्रति बुशल (लगभग 313 डॉलर प्रति टन) रह गई जबकि 7 मार्च को इसकी कीमत 12.94 डॉलर प्रति बुशल (लगभग 431 डॉलर प्रति टन) पर पहुंच गई थी। इस तरह रिकॉर्ड ऊंचाई से दाम 27 फीसदी गिर चुके हैं। वैसे एक साल पहले जुलाई 2021 में दाम 6 डॉलर प्रति बुशल के आसपास थे।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के दाम रूस-यूक्रेन युद्ध से पहले से ही ऊंचे चल रहे थे। कोविड-19 के कारण सप्लाई चेन बाधित हो गई थी। इसलिए अनेक देशों में इसकी किल्लत हो गई और दाम बढ़ने लगे। युद्ध के कारण स्थिति और बिगड़ गई। दुनिया का 30 फीसदी गेहूं निर्यात रूस और यूक्रेन ही करते हैं।
गेहूं के दाम में इस गिरावट का प्रमुख कारण रूस का आश्वासन है। रूस और तुर्की ने कहा है कि वे काला सागर के रास्ते यूक्रेन का गेहूं निकालने पर चर्चा के लिए तैयार हैं। दरअसल, पिछले दिनों जर्मनी में जी7 देशों की बैठक में भी यह मुद्दा उठा और इन देशों ने रूस से इस पर विचार करने का आग्रह किया।
युद्ध शुरू होने के तत्काल बाद भारत ने गेहूं निर्यात को बढ़ावा देने की कोशिश की थी। तब यहां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की तुलना में 30 से 40 फीसदी ज्यादा भाव मिले थे। लेकिन जल्दी ही पता चला कि मार्च में अचानक तापमान बढ़ने से उत्तरी राज्यों में गेहूं की फसल को नुकसान हुआ है। सरकारी खरीद भी पिछले साल के 434 लाख टन के मुकाबले 187.46 लाख टन पर अटक गया।
देश में गेहूं संकट की आशंका बनती देख सरकार ने 13 मई को इसके निर्यात पर पाबंदी लगाने का फैसला किया। हालांकि उसके बाद सवा महीने में करीब 18 लाख टन गेहूं का निर्यात किया गया। यह निर्यात बांग्लादेश समेत कई देशों की सरकारों के आग्रह पर किया गया।
उधर, युद्ध के कारण यूक्रेन के बंदरगाहों पर गेहूं और अन्य अनाज बड़ी मात्रा में जमा हो गए हैं। रूसी सेना ने इन बंदरगाहों पर या तो कब्जा कर लिया है या वहां तक आना-जाना रोक दिया है। हालांकि यूक्रेन से तत्काल निर्यात की उम्मीद नहीं है क्योंकि रूसी बमबारी में बंदरगाहों को भी नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा समुद्र में जो बारूदी सुरंगें बिछाई गई हैं उन्हें भी हटाना पड़ेगा।
गेहूं के अलावा मक्का और सोयाबीन की कीमतों में भी गिरावट आने लगी है। इन फसलों की वैश्विक पैदावार अच्छी होने की उम्मीद में इनके दाम घटे हैं। ग्लोबल मार्केट में अन्य कृषि जिंसों की कीमतों में भी नरमी का रुख है। कुछ विशेषज्ञ यह मान रहे हैं कि कृषि जिंसों की महंगाई शायद अपने शीर्ष पर पहुंच गई है। चीन में कोविड लॉकडाउन हटने से वहां से भी दूसरे बाजारों में सप्लाई में सुधार आया है। इसका असर भी कीमतों पर दिखने लगा है।
जिस क्षेत्र में युद्ध होता है वहां दो तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं, एक तो यह कि पैदावार बहुत कम होकर रह जाती है और लोग सिर्फ अपनी ही जरूरत के मुताबिक मुश्किल से अन्न का उत्पादन करते हैं, इसके बावजूद भी अगर जरूरत से ज्यादा पैदा हो जाए तो वह इतना कम होता है कि कई गुना महंगा हो जाता है। जाहिर सी बात यह है "रोटी की टोकरी" में अनाज ही कम आएगा तो फिर उसको मिलेगा जो ज्यादा से ज्यादा कीमत अदा करेंगे। जब के इन अमीरों के मुकाबले में भूख और अकाल ऐसे लोगों का मुकद्दर बनेगा जो गरीबी लाचारी में जी रहे हैं और जो इनसे बचने की ताकत नहीं रखते।
द्वितीय विश्व युद्ध में 1943 में आने वाला बंगाल का अकाल जिसे हम युद्ध अपराध कह सकते हैं इसमें 43 लाख बंगाल के लोग मौत का भोजन बन गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध जब हुआ तो भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था और ब्रिटिश लोकतंत्र का चैंपियन चर्चिल था जो उस समय वहां प्रधानमंत्री भी था। उसने खाद्यान्न के गोदामों को ताले लगा दिए थे कि अब गेहूं सिर्फ अंग्रेज इस्तेमाल करेंगे। एक अधिकारी ने जब पूरी स्थिति लिखकर भेजी के लोग भूख से मर रहे हैं तो उसने फाइल पर लिखा " क्या अब तक गांधी मर गया" और गोदामों के ताले नहीं खोले।
कुछ ऐसा ही हाल दुनिया के अनगिनत देशों में आने वाले महीनों में होने वाला है। रूस यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में दुनिया में एक अरब 70 करोड़ लोग तो फौरन प्रभावित हो गए थे। यह लोग युद्ध से तीन तरह के खतरों का शिकार हो चुके हैं पहला खाने की कमी और कीमतों में कई गुना वृद्धि, तेल और गैस की कमी और उनकी कीमतों में वृद्धि, तीसरा आर्थिक स्थिति की दुर्दशा जो पहले ही कोरोना की वजह से बर्बाद हो चुकी थी।
46 गरीब देशों में से 38 देश इस मुसीबत में आ रहे हैं जब के 58 छोटे-छोटे द्वीप जैसे देशों में से 40 को इसका सामना करना पड़ रहा है, इन देशों में 25 देश अफ्रीका से और एशिया से और 19 लेटिन अमेरिका और दूसरे स्थानों से संबंध रखते हैं। और यह भी सच्चाई है के इस स्थिति में भारत पाकिस्तान बांग्लादेश में भी परेशानी खड़ी हो सकती है। अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका और एशिया के देशों में जब अकाल की स्थिति पैदा होगी तो लोग उन देशों की तरफ पलायन के लिए दौड़ पड़ेंगे जहां खाना मौजूद होगा और जो नहीं भाग सकेंगे वह अपने ही देश में खाने के गोदामों पर लूटमार करेंगे।
वैसे अभी भी 65 लाख यूक्रेनी अपने खेत खलियान छोड़कर अपने ही मुल्क में महफूज शहरों में जा चुके हैं जबकि 35 लाख मुल्क ही छोड़ चुके हैं। युद्ध जैसे-जैसे अन्य देशों को भी लपेट में लेगा दुनिया में हथियारों की ऐसी दौड़ शुरू हो जाएगी जिससे बच पाना नामुमकिन होगा। अपनी सुरक्षा के लिए राज्यों को पेट काटकर हथियार हासिल करने पड़ेंगे। युद्ध की दहशत की स्थिति यह है कि स्वीडन जैसा मुल्क जो कभी नैटो का सहयोगी नहीं बना वह भी मजबूरन उसमें शामिल हो गया और रूस की गैस के मुकाबले कोयला खरीद रहा है या फिर अरब से एलएनजी। तेल के लिए यूरोपीय देशों में अभी से लाइनें लग रही हैं। कुछ देश तो इसका स्वाद कुछ हफ्तों में चखना शुरू हो जाएंगे। सिर्फ एक छोटे से मुल्क श्रीलंका में अकाल से मुतासिर होने वालों की संख्या 50 लाख हो सकती है।