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ये राजीव जी का एक फैसला राजनीति के विरुद्ध एक नेकनीयत कदम था

Shiv Kumar Mishra
16 May 2020 4:59 AM GMT
ये राजीव जी का एक फैसला राजनीति के विरुद्ध एक नेकनीयत कदम था
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मगर रिट्रोस्पेक्ट में दलों के अंदरूनी लोकतंत्र को भी खा गया, जिसे आज साफ देखा जा सकता है।

मनीष सिंह

मासूम और अच्छे इरादों के साथ लिए गए फैसले भी नर्क का रास्ता बना देते हैं। मनमोहन सिंह में ये मशहूर पंक्तियां नोटबन्दी के दौरान बीजेपी की सरकार की आलोचना के लिए कही थी। यह पंक्तियां देश के स्वप्नदृष्टा प्रधानमंत्री और बेहद खूबसूरत शख्स के एक फैसले पर भी लागू होती है।

इसके पहले यह स्वीकार कीजिये कि पार्टी के बतौर भाजपा आज सबसे बेहतर संगठन है। इसलिए कि जमीन से निकला कार्यकर्ता अपनी सफलताओं और राजनीतिक सूझबूझ से शीर्ष तक जा सकता है। आज के व्यक्तिपूजन के दौर को कुछ समय के लिए किनारे कर दें तो ज्यादातर वक्त वो सामूहिक फैसलों और आंतरिक लोकतंत्र वाली पार्टी रही है।

इसका कारण आरएसएस का प्रभुत्व और उसका नाजुक मौकों पर हस्तक्षेप हो सकता है। जो भी हो, बीजेपी किसी एक कुनबे की जेबी पार्टी नही है। इसका लीडर वंशानुगत नही है। यह तमाम दलों के बीच उसे अलग करता है। मगर ऐसा क्या हुआ कि शेष दल धीरे धीरे एक एक परिवार के जेबी सन्गठन बन गए। क्यों देश के अधिकांश राज्यों में किसी न किसी डायनेस्टी ने कब्जा जमा लिया?

ये राजीव जी का एक फैसला था, जो ऐसे तो दल बदल की राजनीति के विरुद्ध एक नेकनीयत कदम था। उस दौर में जब विधायक सांसद, आयाराम गयाराम की राजनीति कर रहे थे, सरकारें बना और गिरा रहे थे, यह कानून सरकारों में स्थायित्व लेकर आया। खरीद फरोख्त को विराम मिला। मगर रिट्रोस्पेक्ट में दलों के अंदरूनी लोकतंत्र को भी खा गया, जिसे आज साफ देखा जा सकता है।


दल बदल कानून आने के बाद यदि कोई सांसद, पार्टी व्हिप से हटकर सदन में वोटिंग कर दे, तो सदस्यता रद्द की जा सकती है। इसके बाद पार्टी लीडर की तानाशाही एब्सोल्यूट हो जाती है। इस कानून के बाद कोई इंदिरा, अंतरात्मा की आवाज पर सांसदों को एकत्र होकर वोट करने का आव्हान नही कर सकती। पार्टी का व्हिप, याने कोड़ा अब तलवार बन गया है।

नतीजतन वोट कैचर नेता अपनी मनमर्जी से टिकट बांट सकता है। जीत के बाद संसदीय दल को टट्टुओं की तरह जोत सकता है, अपना रथ और अपने परिवार को हांकने के लिए। कोई विरोध, कोई बयान मायने नही रखता क्योकि सदन में किसी बिल पर कोई उस विरोध को अंजाम नही दे सकता। नेता को चुनोती नही पेश कर सकता। बाद में यदि वोट कैचिंग एबिलिटी घट भी जाये, तो उसकी जगह किसी और क़ी चुनोती का खड़ा होना असम्भव है।

इन हालात का फायदा हर उस नेता ने उठाया, जिसने राजीव के बाद की राजनीति में अपना अलग दल बनाया। हर दल को, उस दौर के नेता के परिवार की दूसरी तीसरी पीढ़ी चला रही है। वही सत्ता भोगती है, या इसका इंतजार करती है। 20-30 लोग इस देश के लोकतंत्र, इसका मुस्तकबिल जेब मे रखे घूम रहे हैं, और पूरा लेजिस्लेचर उनकी पालकी ढोने वाला कहार बना हुआ है। सैंकड़ो प्रतिभाशाली वक्ता, प्रशासक, और गुणी लोग अवसर की तलाश में उम्र गवां गए। मगर उनको नम्बर दो, और तीन से ऊपर की जगहें अब उपलब्ध नही है।

केजरीवाल की तरह नई पार्टियां खड़ा करना असम्भव के हद तक कठिन है। ऐसे में उन्ही घिसे पिटे उबाऊ चेहरों से निराश जनता भाजपा की ओर लौट जाती है, तो आश्चर्य नहीं। बावजूद इसके, कि उसका एजेंडा और अक्षमता अब जगजाहिर हो चुकी है।

अस्सी के दशक का वो नेकनीयत फैसला,भविष्य में क्या रंग लाएगा, किसी ने नही सोचा था। रोड़ टू हेल इज पेव्ड विद बेस्ट इंटेंशन्स..

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