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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी थे तिलका मांझी, जिसे हमारी इतिहास की किताबों में जगह नहीं दी गई

Arun Mishra
27 Nov 2021 10:35 PM IST
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी थे तिलका मांझी, जिसे हमारी इतिहास की किताबों में जगह नहीं दी गई
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स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी 1857 से 80 साल पहले लगी और इस चिंगारी को जलाने वाले थे वीर सपूत तिलका मांझी थे.



मंगल पांडे की बैरकपुर में उठी हुंकार के साथ ही देशभर में क्रांति की आग फैल गई थी. 1857 को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह कहा जाता है और इतिहास की कई किताबों में ये फ़र्स्ट रिवॉल्ट ऑफ़ इन्डिपेंडेंस के नाम से दर्ज है ग़ौरतलब है कि इससे पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में क्रांति की ज्वालायें भड़की थीं जिसकी पहली चिंगारी 1857 से 80 साल पहले लगी और इस चिंगारी को जलाने वाले थे वीर सपूत तिलका मांझी थे.

तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में तिलकपुर नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था. तिलका ग्राम प्रधान थे, इसलिए उन्हें मांझी भी कहा गया. क्योकि, पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है. अंग्रेजों के रिकॉर्ड में इनको जबरा पहाड़िया कहा जाता था. तिलका मांझी ने बचपन से ही प्रकृति के संसाधनों को अंग्रेज़ों द्वारा कब्जाते देखा था. अंग्रेज़ों द्वारा उसके लोगों पर किये जाने वाले अत्याचार देख कर ही वो बड़ा हुआ. उसके दिल में बस रही स्वतंत्रता की आग को ग़रीबों की ज़मीन, खेत, खेती आदि पर अंग्रेज़ों के अवैध कब्ज़े ने हवा दी.

1707 में औरंगजे़ब की मौत के बाद बंगाल मुग़लों के हाथ से छूटकर एक सूबा बन गया और तब यहां ज़मीन की क़ीमत वसूल करने के लिये जागीरदार और ज़मीनदार बैठ गये. ये ज़मीनदार ग़रीबों और आदिवासियों का शोषण करते. अंग्रेज़ों ने ज़मीनदारी प्रथा ख़त्म तो की लेकिन उनकी गद्दी पर गोरे साहब बैठ गये. अंग्रेज़ों ने भी आदिवासियों, गरीबों और दलितों का शोषण किया. अंग्रेज़ सरकार बिहार और बंगाल के आदिवासियों से भारी कर वसूलने लगी और आदिवासी महाजनों से सहायता मांगने पर मजबूर हो गये. अंग्रेज़ और महाजन आपस में मिले होते थे और महाजन धोखे से उधार चुकाने में असमर्थ आदिवासियों की ज़मीन हड़प लेते.

1770 में ही बंगाल में भीषण सूखा पड़ा. संथाल परगना पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा. आदिवासियों को लगा कि टैक्स कम किया जायेगा लेकिन कंपनी सरकार ने टैक्स दोगुना कर दिया और जबरन वसूली भी शुरु कर दी. कंपनी अपना खज़ाना भर्ती रही और लोगों की मदद नहीं की. लाखों लोग भूख की भेंट चढ़ गये.

तिलका मांझी का बचपन व युवावस्था ये सब देखते हुये बीता उसके युवा मन में अंग्रेज़ो के खिलाफ विद्रोह भर गया और उसने लोगों को इकट्ठा कर प्रेरित करना शुरू किया. 1770 आते-आते तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों से लोहा लेने की पूरी तैयारी कर ली थी. वो लोगों को अंग्रेज़ों के आगे सिर न झुकाने के लिये प्रेरित करते. उनके भाषण में जात-पात की बेड़ियों से निकल कर, अंग्रेज़ों से अपना हक़ छीनने जैसी बातें होती. 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी. इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया था. 1784 में इन्होने भागलपुर के अत्याचारी कलेक्टर क्लीवलैंड की ह्त्या कर दी. उसके बाद अंग्रेज़ अफसर आयरकुट के नेतृत्व में तिलका की गुरिल्ला सेना पर हमला किया गया था जिसमें कई लड़ाके मारे गए और तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया. कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया था और आदिवासियों और दलितों में दहशत पैदा करने के लिए अंग्रेज़ो ने भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक बरगद के पेड़ पर 13 जनवरी 1785 को सरेआम पर फांसी पर लटका दिया.

कई इतिहासकार तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं. 1831 का सिंगभूम विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह सब तिलका की जलाई मशाल का ही असर है. तिलका मांझी के जीवन पर महाश्वेता देवी ने बांग्ला भाषा में 'शालगिरार डाके' और राकेश कुमार सिंह ने हिंदी में 'हुल पहाड़िया' लिखा है.

प्राथमिक शिक्षा के पाठक्रमों में तिलका मांझी की कोई चर्चा भी नहीं होती. सूचना के युग में भी देश की युवा पीढ़ी तिलका मांझी की कुर्बानी से अनजान हैं इसलिए अब समय आ गया है कि हमें अपने इतिहास को दुरस्त करने की आवश्यकता है. तिलका जैसे शहीदों की उपेक्षा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि उनका विद्रोह अंग्रेज़ों के साथ देसी दिकुओं (शोषकों) के खिलाफ भी था. ये महान कुर्बानियां हैं, पर उच्च जातीय और अभिजात्य वर्गीय इतिहास दृष्टि ने बहिष्कृत भारत के नायकों को इतिहास से भी बहिष्कृत कर दिया. तिलका मांझी इतिहास की किताबों से भले ही ग़ुम हैं लेकिन तिलका मांझी आदिवासियों और दलितों की स्मृतियों और उनके गीतों में आज भी ज़िंदा हैं।

1991 में बिहार सरकार ने भागलपुर यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर तिलका मांझी यूनिवर्सिटी रखा और उन्हें सम्मान दिया. इसके साथ ही जहां उन्हें फांसी हुई थी उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया. वे आधुनिक भारत के पहले शहीद हैं. झारखंड के दुमका में तिलका मांझी की विशाल प्रतिमा लगी हुई है. इतिहास के वास्तविक नायकों को अब अपना सम्मान मिलने लगा है और यह प्रक्रिया अब और तेज होनी चाहिए.


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