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राफेल पर आज 'द हिंदू' की जिस रिपोर्ट पर मचा घमासान!
राफेल पर आज 'द हिंदू' की जिस रिपोर्ट पर घमासान मचा है, वह किसी सामान्य रिपोर्टर ने नहीं बल्कि उस अखबार के 73 वर्षीय चेयरमैन एन राम ने खुद लिखी है। रिपोर्ट के तथ्य और कथ्य पर बहस अपनी जगह, मगर यह बात दिल खुश कर गई कि जिस अखबार के मालिक और संपादक खुद मैदान में उतरकर वो भी 73 साल की उम्र में शानदार रिपोर्ट करें तो समझिए देश में पत्रकारिता अभी जिंदा रहेगी।
जिस दौर में संपादक नाम की संस्था को कारपोरेट एडिटर के तौर पर ढालकर खत्म कर दिया जा रहा हो, उस दौर में एन राम जैसे लोगों की रिपोर्ट उम्मीद जगाती है. पेशेवर पत्रकारों के स्वामित्व वाले मीडिया संस्थान ही पत्रकारिता को लेकर उम्मीद जगाए रख सकते हैं, चिट फंडिया कंपनियों के अखबार-चैनल नहीं. नरसिम्हन राम अखबार के एडिटर इन चीफ भी रह चुके हैं, और फिलहाल द हिंदू प्रकाशित करने वाले कस्तूरी ग्रुप के चेयरमैन हैं।DILL यह वही ए राम हैं, जो राजीव गांधी के जमाने में बोफोर्स घोटाले पर भी कलम तोड़ चुके हैं।
Ravish Kumar : झूठ के आसमान में रफाल की कीमतों का उड़ता सच. हिन्दू अखबार की रिपोर्ट सरकार जिस रफाल विमान को 9 प्रतिशत सस्ते दर पर ख़रीदने की बात करती है दरअसल वह झांसा दे रही है। द हिन्दू में छपी एन राम की रिपोर्ट से तो यही लगता है। एन राम कहते हैं कि प्रति विमान 41.42 प्रतिशत अधिक दाम देकर खरीदे जा रहे हैं। इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद लगता है कि कीमतों को लेकर संसद में हुई बहस अंतिम नहीं है।
मोदी सरकार का तर्क रहता है कि भारत और फ्रांस के बीच जो करार हुआ है उसकी गोपनीयता की शर्तों के कारण कीमत नहीं बता सकते। मगर उस करार में कहा गया है कि गोपनीयता की शर्तें रक्षा से संबंधित बातों तक ही सीमित हैं। यानी कीमत बताई जा सकती है। कीमत क्लासिफाइड सूचना नहीं है। विवाद से पहले जब डील हुई थी तब सेना और सिविल अधिकारियों ने मीडिया को ब्रीफ किया था और बकायदा कीमत बताई थी।
एन राम बताते हैं कि जब 2007 में दास्सों एविशन को लंबी प्रक्रिया के बाद चुना गया तब यही तय हुआ कि 18 विमान सुसज्जित अवस्था में आएंगे और 108 हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड तैयार करेगा। उस वक्त दास्सों ने एक विमान के लिए 79.3 मिलियन यूरो मांगा था। 2011 में यह कीमत 100.85 मिलयन यूरो हो गई। बेशक 2016 में 2011 की कीमतों के अनुसार 9 प्रतिशत की छूट मोदी सरकार ने हासिल कर ली मगर वो छूट 126 विमानों के लिए नहीं, 36 विमानों के लिए थी। एक विमान की कीमत तय हुई 91.75 मिलियन यूरो।
यह पूरी कहानी नहीं है। कहानी का बड़ा और दूसरा हिस्सा यह है कि दास्सों ने कहा कि भारत के हिसाब से विमान को सुसज्जित करने के लिए 1.4 बिलयन यूरो और देने होंगे। भारत ने मोलभाव कर इसे 1.3 बिलियन यूरो पर लाया। भारतीय वायु सेना की मांग थी कि रफाल विमान को 13 विशेषताओं से लैस होना चाहिए ताकि भारत की ज़रूरतों के अनुकूल हो। इसके लिए 36 विमानों के लिए 1.3 बिलियन यूरो देने पर सहमति हुई। इस हिसाब से प्रति विमान की कीमत होती है 36.11 मिलियन यूरो। 2007 में इसकी कीमत थी 11.11 मिलयन यूरो। वायु सेना के जिन विशेषताओं की मांग की थी उनमें यूपीए और मोदी सरकार के समय कोई बदलाव नहीं आया था।
दि हिन्दू ने इस सौदे से संबंधित रक्षा मंत्रालय के कई दस्तावेज़ देखे हैं। रफाल विमान सौदे के लिए सात सदस्यों की इंडियन नेगोशिएशन टीम (INT) बनी थी। इसके तीन सदस्य कीमत से लेकर कई बातों को लेकर एतराज़ करते हैं। इनके हर सवाल को टीम के बाकी चार सदस्य ख़ारिज कर देते हैं। हर बार 4-3 के अंतर से ही फैसला होता है। ये तीन सदस्य हैं, संयुक्त सचिव और एक्विज़िशन मैनेजर राजीव वर्मा, फाइनेंशियल मैनेजर अजीत सुले, एडवाइज़र( कास्ट) एम पी सिंह। इनका कहना था कि भारत की ज़रूरतों के हिसाब से तैयार करने के लिए अलग से 1.3 बिलियन यूरो की रकम बहुत ज़्यादा है। टीम ने इसे खारिज करते हुए लिखा कि भारत के हिसाब से 126 विमानों को तैयार करने के लिए 1.4 बिलियन यूरो दिया जाना था, उससे कहीं बेहतर है 36 विमानों के लिए 1.3 बिलियन यूरो देना। क्या शानदार हिसाब है! प्रधानमंत्री के नेतृत्व में रक्षा मामलों की मंत्रिमंडल की समिति ने टीम के फैसले पर मुहर लगा दी।
INT की रिपोर्ट की समीक्षा कानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और रक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति करती है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जो नोट दिया है और जिसे याचिकाकर्ताओं को भी दिया गया है, उसके अनुसार सरकार के नोट में रक्षा मंत्री मनोहन पर्रिकर की अध्यक्षता वाली रक्षा ख़रीद परिषद (DAC) की किसी भूमिका का ज़िक्र नहीं है। यह कैसे हो सकता है जबकि रक्षा ख़रीद प्रक्रिया के तहत DAC को ही फैसले लेने के अधिकार हैं। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने जब पेरिस में अपनी तरफ से डील का एलान कर दिया तो रक्षा मंत्री खुद को अनजान बता रहे थे।
एन राम का मूल सवाल यह है कि भारत सरकार के पास रफाल से कीमतों को लेकर सौदेबाज़ी करने के कई हथियार थे, उनका इस्तमाल क्यों नहीं किया गया। 4 जुलाई 2014 को यूरोफाइटर के शीर्ष अधिकारी ने रक्षा मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखा था कि वह पहले से बेहतर क्षमता से लैस 126 यूरोफाइटर 20 प्रतिशत कम दाम पर दे सकता है। इस पत्र में यह भी लिखा है कि रक्षा मंत्री ने उनके देश के राजदूत से जो गुज़ारिश की उसके जवाब में यह पेशकश करते हुए उन्हें खुशी हो रही थी। यानी रक्षा मंत्री ने खुद पहल की थी। जबकि INT कमेटी ने यूरोफाइटर के प्रस्ताव को यह कह कर ठुकरा दिया कि यूरोफाइटर ने बिन मांगे प्रस्ताव दिया है, इस वक्त टेंडर बंद हो चुका है और नियमों के अनुकूल इस स्तर पर इस पर विचार नहीं किया जा सकता है। कमेटी का यह फैसला सही था या नहीं, इस पर बहस हो सकती है लेकिन सरकार इसे लेकर रफाल से मोल भाव तो कर ही सकती थी।
यूरोफाइटर ने तो यहां तक कहा कि वह भारत की ज़रूरतों को देखते हुए जर्मनी, इंग्लैंड, स्पेन और इटली के आर्डर को रोक कर पहले सप्लाई कर देगा। कमेटी के तीन सदस्यों ने यूरो फाइटर के इस प्रस्ताव को दर्ज भी किया है कि 20 प्रतिशत कम दाम पर विमान दे रहा है। यूपीए के समय जब टेंडर निकला था तब वायु सेना ने यूरोफाइटर का भी परीक्षण किया था। यह जहाज़ भी बेजोड़ पाया गया था मगर उस वक्त कीमतों के कारण पिछड़ गया। रफाल कम कीमत का प्रस्ताव देकर डील के अंदर घुसा और ज़्यादा कीमत पर जहाज़ बेचने की डील कर निकल गया। इससे किस किस को लाभ हुआ, किसे कितना पैसा मिला, इस बारे में अभी तक कोई रिपोर्टिंग सामने नहीं आई है जैसा कि बोफोर्स के समय हुआ था।
जब यूरो फाइटर 20 प्रतिशत कम दाम पर उसी क्षमता का जहाज़ दे रहा था तब 41.42 प्रतिशत अधिक दाम पर रफाल से क्यों खरीदा गया। यूरोफाइटर ने यह भी कहा था कि कंपनी भारत में यूरोफाइटर इंडस्ट्रीयल पार्क बनाएगी, ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाएगी और सपोर्ट देगी। रफाल के साथ हुई नई डील में हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स को भी बाहर कर दिया गया जिसे पहले 108 जहाज़ बनाने थे।
एन राम का कहना है कि दास्सों कंपनी के साथ व्यापारिक समझौता नहीं किया जाता है। दो मुल्कों के बीच समझौता होता है मगर संप्रभु गारंटी नहीं ली जाती है। फिर दो मुल्कों के बीच समझौते का क्या मतलब रह जाता है? संप्रभु गारंटी का मतलब है कि फ्रांस सरकार हर बात की ज़िम्मेदारी लेती। यही नहीं टेंडर बंद होने की बात कर यूरोफाइटर के प्रस्ताव को ठुकराया गया लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने पेरिस में जो एलान किया वो तो पूरी तरह से नई डील थी। पहले की प्रक्रियाओं से 126 विमानों की बात हुई थी, अब 36 खरीदे जा रहे थे। ज़ाहिर है उस स्तर पर भी कीमतों को लेकर मोलभाव हो सकता था।
एन राम ने लिखा है कि 2007 में 126 विमानों को भारत के हिसाब से तैयार करने के लिए अलग से 1.4 बिलियन यूरो देने थे। 2016 में 36 विमानों को तैयार करने लिए 1.3 बिलियन यूरो दिए जाने का फैसला होता है। गणित में आप फेल भी होंगे तब भी इस अंतर को समझ सकते हैं कि खेल कहां हुआ है। इस कारण हर विमान कीमत 25 मिलियन यूरो बढ़ जाती है। फ्रांस ने बेशक साधारण विमान की कीमत पर 9 प्रतिशत की छूट दी थी लेकिन सुसज्जित विमान की कीम 25 मिलियन यूरो बढ़ा दी गई। यही नहीं पहले के फोलो ऑन क्लाज को हटा दिया गया। इसके तहत 126 विमानों के लिए जो शर्तें तय हुई थीं उन्हीं के आधार और दाम पर 63 विमान और खरीदें जा सकते थे। ये क्लाज़ किस लिए हटाए गए? क्यों 36 विमानों को 41.42 प्रतिशत अधिक दामों पर ख़रीदा गया?