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शकील अख्तर
ये ज्यादा हो गया! यह आम आदमी की भावना है। उनकी भी जो राजनीतिक नहीं है और पिछले दो लोकसभा चुनावों से मोदी को वोट दे रहे थे। राहुल को पहले मानहानि के मामले में अधिकतम सज़ा फिर उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करना और फिर एक महीने में उनसे सरकारी आवास खाली करवाने का नोटिस।
देश में एक सहज बुद्धि है। न्याय की भावना। इंसानियत की अन्तरधारा। ये सदियों से बह रही है। राम जब वनवास के लिए जाते हैं तो दूर तक लोग साथ चलते रहते हैं। "लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे! " रामचरित मानस में तुलसीदास ने लोगों के मनोविज्ञान का बहुत सुदंर वर्णन किया है। राम लाख समझा रहे हैं मगर लोग वापस नहीं जा रहे। महाभारत में भी जब छल से जुआ जीता जाता है और पांडवों को वनवास जाना पड़ता है तो लोग कुछ नहीं कर सके। मगर सबकी सहानुभूति पांडवों के साथ थी। सब के अंदर से एक ही आवाज रही थी कि ये ज्यादा है!
यहां कोई किसी की तुलना नहीं है। सिर्फ भारतीय मनीषा की बात है। यहां न्याय के सिंहासन पर बैठकर बारिकियों से अनजान गड़रिया भी न्याय के सिद्धातों की बात करता था।
इसे एक मौका देना चाहिए। भारतीय संस्कार इस तरह की बात करता है। लेकिन मौके से पहले वह व्यक्ति की साधना उसका अनुभवों, संघर्षों से तपना भी देखता है। अटल बिहारी वाजपेयी को 1999 में इसी तरह जनता ने मौका दिया था। और 2004 में सोनिया गांधी को। याद कीजिए दोनों समय कोई हवा नहीं थी। बस एक सहानुभूति की अन्तरधारा थी। इनके साथ न्याय होना चाहिए की भावना। 2014 में मोदी जी की जीत अलग माहौल थी। वह बनाया गया था। अन्ना हजारे के जरिए। जिसका उपयोग करके मोदी जी सत्ता में आए और फिर उन्होंने अपना नेटवर्क बनाया। खासतौर से हिन्दु मुसलमान की राजनीति से इसे मजबूत किया। 2014 में तो वे विकास के नाम पर आए थे मगर फिर नफरत और विभाजन की राजनीति इतनी तेज हुई कि लोगों की सामान्य बुद्धि दब गई। धर्म के नाम पर लोग अतिवादी भावनाओं का शिकार हो गए।
अब पहली बार इसमें डेंट हुआ है। लोगों को लग रहा है कि राहुल के साथ अन्याय हो रहा है। जैसा दिनकर ने कहा है जनता इसी तरह बीच बचाव की बात सोचती है कि-
" दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पांच ग्राम
रक्खो अपनी धरती तमाम "
यह कृष्ण कह रहे हैं। दुर्योधन से। कृष्ण भारतीय जनमानस में सबसे ज्यादा रचे बसे नायक। और सबको मालूम है इसके बाद फिर बाजी पलट गई थी।
आज राहुल के पक्ष में नरेटिव बन गया है। आम जनता से लेकर विपक्षी नेताओं के बीच तक। केजरीवाल, अखिलेश, ममता, केसीआर सब साथ आ गए। नेता जनता की नब्ज को सबसे सही जानते हैं। उनमें एक छठी इन्द्रीय होती है। वह दूर से परिवर्तन की आहट सुन लेती है। सबको समझ में आ गया कि जिस तरह राहुल को घेरा जा रहा है उसी तरह एक एक करके सबको घेरा जाएगा। इजराइल में जनता का विद्रोह सब देख रहे हैं। इतने ताकतवार प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के खिलाफ। वहां की जनता भी लोकंतत्र के खत्म होने से डरी हुई है। इसी तरह फ्रांस में भी राष्ट्रपति इमेन्यूअल मेक्रान के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा है।
भारत के निराशा में डूबे विपक्ष के लिए यह आशा के संकेत हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर से लेकर देश के अंदर हो रही तेज हलचलों से। राहुल का बीस हजार करोड़ रुपए का सवाल चल गया। अगर विपक्ष तरीके से इसे उठा सका तो यह बोफोर्स की तरह घर घर पहुंच जाएगा। और शायद उससे भी ज्यादा। क्योंकि यह हर आदमी का पैसा है।
राहुल का सवाल यही तो है कि यह बीस हजार करोड़ रुपया किसका है जो अडानी को दिया गया। जनता शैल कंपनी नहीं समझती। उसे तो आम भाषा में बताना पड़ेगा। कांग्रेस इसमें थोड़ी कमजोर है। वह तकनीकी और कानूनी भाषा बोलती रहती है। जैसे राहुल ने अपने बायो में लिख लिया डिस्क्वालिफाई मेम्बर। अब भाजपा और मीडिया इसका अर्थ अयोग्य बताकर जनता को भरमा रही है। क्या जरुरत थी इस शब्द को लिखने की। सांसद हटा दो। खाली राहुल गांधी रहने दो। राहुल के नाम में अब बहुत वज़न आ गया है। अच्छा वकील जैसे अपनी ड्राफ्टिंग में एक शब्द ऐसा नहीं लिखता कि उससे विपक्षी वकील को फायदा हो। अच्छे ड्राफ्ट में कम शब्द लिखे जाते हैं। याचिका में विस्तार की गुंजाइश हमेशा रहती है। बाद में जब जरूरत हो और संशोधन किया जा सकता है। मगर फर्स्ट ड्राफ्ट में तो बहुत सटीक लिखना होता है।
ऐसे ही बेवजह सावरकर के मामले को बढ़ाया जा रहा है। अभी चार दिन पहले जब कांग्रेस के सोशल मीडिया ने बिना प्रसंग के लिख दिया था राहुल गांधी हैं सावरकर नहीं तो हमने टीवी पर बोला और ट्वीट भी किया कि यह आ बैल मोए मार करने की क्या जरूरत है। भक्त कांग्रेस में भी होते हैं। पड़ गए हमारे पीछे। और माहौल का प्रभाव ऐसा होता है कि बहुत अनुभवी आदमी ही इससे बच पाता है। राहुल ने फिर इसे हुई अपनी हालिया प्रेस कान्फ्रेंस में दोहरा दिया। इस बार शिवसेना संयम नहीं रख सकी। उसने सार्वजनिक रूप से विरोध किया। उद्धव ठाकरे खुद बोले और शिवसेना कांग्रेस अध्यक्ष खरगे के डिनर में नहीं गई। फिर मंगलवार को सुबह संसद में हुई विपक्षी दलों की बैठक में भी शिवसेना शामिल नहीं हुई। शिवसेना वह पार्टी है जिसने राहुल की यात्रा में सबसे पहले समर्थन किया था। और उद्धव के बेटे आदित्य सहित अन्य नेता राहुल के साथ चले थे। फिलहाल शिवसेना लचीला रुख अपनाए हुए है। मामला सुलझ जाएगा मगर बेवजह दो दिन के लिए तो भाजपा और मीडिया को मौका मिल गया।
सावरकर की महाराष्ट्र के बाहर कोई पहचान नहीं है। कांग्रेस जबर्दस्ती उन्हें चर्चित कर रही है। 2019 में जब राहुल ने पहली बार कहा था तब महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ नई गठबंधन सरकार बनी थी। शिवसेना ने तब भी विरोध किया था।
एक छोटी सी बात समझने की है कि सावरकर कोई विचारधारात्मक इशु नहीं है। इतिहास में ऐसे जाने कितने लोग हुए हैं जिनसे कांग्रेस की विचारधारा टकराती है। मगर इन पर बात तभी की जाती है जब कोई बड़ा सैद्धांतिक कारण हो। माफी नहीं मागूंगा कहने के लिए हर बार उनकी याद आना राजनीतिक परिपक्वता नहीं है। केवल इतना कहना कहना पर्याप्त है कि मेरा नाम राहुल गांधी है। बाकी अनकहे शब्द अपने आप लोगों तक पहुंच जाएंगे। और जो नहीं कहा जाता है उसमें सबसे ज्यादा ताकत होती है।
कहने की जरूरत आज यह है कि इस बीस हजार करोड़ रुपए से क्या क्या हो सकता है। पहली बात तो यह जनता को साफ बताना चाहिए कि यह पैसा उसका है। नोटबंदी के समय जमा कराया गया। नए नोट छापने में क्या क्या गड़बड़ें हुई क्या संदेह हैं। इन्हें बोलना पडेगा। जनता एबस्टर्ड ( अमूर्त) में नहीं समझती। उसे तो यह बताना पड़ेगा कि यह बीस हजार करोड़ रुपए वापस उसके पास कैसे आ सकते हैं। अगर उसका पैसा है जैसा कि राहुल कहते हैं तो उसके पास वापस कब आएंगे। विपक्ष की सरकार बनने के बाद यह राहुल को और बाकी विपक्ष को कहना होगा।
राहुल खुद न कहना चाहें तो खरगे कहें कि सरकार बनेगी और पहला साइन होगा बीस हजार करोड़ की आपकी जेब में वापसी।