- होम
- राष्ट्रीय+
- वीडियो
- राज्य+
- उत्तर प्रदेश
- अम्बेडकर नगर
- अमेठी
- अमरोहा
- औरैया
- बागपत
- बलरामपुर
- बस्ती
- चन्दौली
- गोंडा
- जालौन
- कन्नौज
- ललितपुर
- महराजगंज
- मऊ
- मिर्जापुर
- सन्त कबीर नगर
- शामली
- सिद्धार्थनगर
- सोनभद्र
- उन्नाव
- आगरा
- अलीगढ़
- आजमगढ़
- बांदा
- बहराइच
- बलिया
- बाराबंकी
- बरेली
- भदोही
- बिजनौर
- बदायूं
- बुलंदशहर
- चित्रकूट
- देवरिया
- एटा
- इटावा
- अयोध्या
- फर्रुखाबाद
- फतेहपुर
- फिरोजाबाद
- गाजियाबाद
- गाजीपुर
- गोरखपुर
- हमीरपुर
- हापुड़
- हरदोई
- हाथरस
- जौनपुर
- झांसी
- कानपुर
- कासगंज
- कौशाम्बी
- कुशीनगर
- लखीमपुर खीरी
- लखनऊ
- महोबा
- मैनपुरी
- मथुरा
- मेरठ
- मिर्जापुर
- मुरादाबाद
- मुज्जफरनगर
- नोएडा
- पीलीभीत
- प्रतापगढ़
- प्रयागराज
- रायबरेली
- रामपुर
- सहारनपुर
- संभल
- शाहजहांपुर
- श्रावस्ती
- सीतापुर
- सुल्तानपुर
- वाराणसी
- दिल्ली
- बिहार
- उत्तराखण्ड
- पंजाब
- राजस्थान
- हरियाणा
- मध्यप्रदेश
- झारखंड
- गुजरात
- जम्मू कश्मीर
- मणिपुर
- हिमाचल प्रदेश
- तमिलनाडु
- आंध्र प्रदेश
- तेलंगाना
- उडीसा
- अरुणाचल प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- चेन्नई
- गोवा
- कर्नाटक
- महाराष्ट्र
- पश्चिम बंगाल
- उत्तर प्रदेश
- शिक्षा
- स्वास्थ्य
- आजीविका
- विविध+
पराली की उपयोगिता समझें, जानिए कैसे इन मुख्य बातों से!
दिल्ली के क़रीब नोएडा में शनिवार, 13 नवंबर को प्रदूषण का स्तर (AQI) 777 था. दिल्ली में 481 और यही हाल ग़ाज़ियाबाद का. सुबह लोगों ने अपने घर के दरवाज़े नहीं खोले क्योंकि बाहर से ताज़ी हवा नहीं घुटन भारी धुँध का भभका था. यह हर वर्ष दीवाली के बाद का आलम है. लेकिन इसे रूटीन प्रक्रिया बता कर सरकार चुप हो जाती है. उसका एक ही तर्क होता है कि चूँकि हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसान पराली जलाते हैं इसलिए दिल्ली का आसमान धुएँ से भर जाता है. मगर सरकार ने यह कभी नहीं सोचा, कि इस पराली को न जलाने के लिए किसान को कैसे समझाया जाए? यह भी विचित्र है, कि पिछले साल भी पराली जली किंतु दीवाली के बाद ऐसी घुटन नहीं हुई. इसकी वजह थी पिछले साल कोरोना के भय से न दीवाली में पहले की तरह पटाखे जलाए गए न बाज़ारों में भीड़ रही. इसका अर्थ तो यही हुआ कि पराली के अलावा प्रदूषण के और भी कारक हैं. दिल्ली के प्रदूषण में पराली का योगदान 8 प्रतिशत है. किंतु सरकार चाहे वह केंद्र की हो या दिल्ली प्रदेश की, किसी ने भी इस समस्या से निजात पाने का कोई ठोस कदम नहीं उठाया.
सख़्ती बिना निदान नहीं
दरअसल बच्चों और सरकार में एक बात तो कॉमन है और वह यह कि दोनों पर थोड़ी तिरछी एवं कैड़ी नज़र भी रखनी पड़ती है. शनिवार को जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को हड़काया और वह थोड़ा सख़्त हुआ तब केंद्र व दिल्ली सरकार की कान में जूँ रेंगी है कि प्रदूषण से निपटने के लिए कोई सकारात्मक कदम उठाये जाएं. लेकिन किसानों से ख़ाली अपील करने से क्या होगा? उनको पराली का कोई और उपयोग बताया जाना ज़रूरी है. ध्यान रखें कि भारत में धान ही मुख्य फसल शुरू से रही है. तब ज़ाहिर है, पराली भी वर्षों से निकलती आई है. किंतु पराली जलाने और उससे होने वाले प्रदूषण की समस्या तो अभी कुछ वर्षों से उठी है.
कैश क्रॉप्स के चलते पराली!
दरअसल आजकल देश का जो भू-भाग धान का मुख्य उत्पादक बना है, वहाँ परंपरा से धान नहीं होता रहा है न यहाँ के निवासी चावल-भोजी हैं. मगर जब से हरित क्रांति की शुरुआत हुई, किसानों में कैश क्रॉप्स उपजाने की होड़ मच गई. नतीजा यह हुआ कि किसी एक फसल उपजाने पर ख़ूब ज़ोर और ज़रूरत की फसलों पर चुप्पी. अब धान होगा तो उसकी पराली (पुआल या पयार) भी होगी. ज़रूरत से ज़्यादा कोई भी फसल बोयी जाए, तो यही हाल होता है. पहले हम लोगों के यहाँ भी ज़रूरत का धान बोया जाता था और जो पयार निकलता उसे जलाने की बजाय हमारे परिवार में उसका और इस्तेमाल होता. जैसे उससे पशुओं को सर्दियों में जहां बांधा जाता उस तबेले को गर्म रखने के लिए यही पुआल, पयार या पराली बिछा देते. तबेला भी गर्म रहता और ज़मीन कहीं गीली होती तो यह पुआल सोख लेता.
पराली वार्मर भी था
परिवार के सदस्य भी चारपायी पर पुआल बिछाते फिर गद्दा, इसके चलते बिस्तर खूब गर्म रहता. बाद में इस पुआल को घूरे पर फेक देते और यह जैविक खाद बन जाता. पर तब एक तो इसकी मात्रा कम होती दूसरे तब घरों में पशु भी ख़ूब रहते. किंतु अब ग़ैर दुधारू पशुओं का घर में कोई काम नहीं रहा क्योंकि ज़्यादातर कृषि कार्य मशीनों से होने लगा है. इसलिए यह अनुपयोगी है. अब या तो सरकार इससे खाद बनाने के कारख़ाने खोले अथवा इससे बिजली बनाए, जैसा कि ऊख (ईख या गन्ना) की छाल (खोयी) से सभी चीनी मिल बिजली बना लेते हैं और इतनी कि उनका खुद का काम तो चलता ही है, वे ग्रिड को भी बिजली देते रहते हैं. इससे उनको पैसा भी मिलता है. फिर पराली से बिजली क्यों नहीं बना ली जाती? जबकि कुछ पॉवर प्लांट पराली से बिजली बना रहे हैं.
पराली से बिजली
कैथल-पटियाला रोड पर पोलड़ व कांगथली गाँव के बीच एक कारख़ाना लगा है, जो पराली से बिजली बनाता है. सुखबीर एग्रो एनर्जी लिमिटेड नाम का यह बिजली घर पंजाब के ज़लालाबाद से कांग्रेस विधायक रमिंदर सिंह अवला का है. यहाँ कई हज़ार टन पराली आती है और उससे बिजली बनती है. अगर ऐसे ही कारख़ाने और अधिक खुलें तो कोई किसान पराली नहीं जलाएगा. क्योंकि तब किसान को पराली के बदले पैसे मिलेंगे. कैथल के इस पॉवर प्लांट से किसानों को प्रति टन 1700 रुपए के क़रीब मिलते हैं. यही कारण है, कि यदि आप गुला-चीका से पोलड़ आना चाहें तो इन दिनों पूरे रास्ते ट्रैक्टर ट्राला में पराली लदी मिलेगी. अर्थात् किसान पराली जलाने को कोई उत्सुक नहीं रहता, यह आरोप तो खोखला है.
लॉक डाउन के अलावा भी विकल्प
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बातें और कही हैं. जैसे कि सप्ताह में दो दिन लॉक डाउन रखने का. यह ठीक है, लेकिन अकेले दिल्ली को ही लॉक करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा. दिल्ली के साथ-साथ नोएडा, फ़रीदाबाद, ग़ाज़ियाबाद, ग़ुरुग्राम और सोनीपत में भी इस नियम को फ़ालो करना होगा. यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है. एक बड़े इलाक़े को बिना किसी ठोस वज़ह के बंद नहीं किया जा सकता. इसलिए सरकारों को कुछ वैकल्पिक उपायों पर सोचना होगा. जैसे ऑड-इवेन पॉलिसी. अर्थात् सड़क पर एक दिन विषम नंबर की गाड़ियाँ निकलें तो अगले रोज़ सम नम्बरों की. पास की दूरी के लिए वहाँ वर्जित किए जाएं. इस पर सख़्ती से अमल हो कि कोई भी आदमी सड़क पर गाड़ी नहीं खड़ी करेगा. एक परिवार में कितनी गाड़ियाँ हों, इस पर भी सरकार अंकुश रखे. इसके अलावा प्रदूषण की दूसरी वजह है, बिजली से चलने वाले उपकरणों की बहुत अधिक खपत न हो. एसी, फ्रिज, हीटर आदि में बिजली की खपत भी अधिक है और इनसे भी प्रदूषण होता है। दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण में 13 पर्सेंट योगदान इन्हीं उपकरणों का है.
बाज़ार बढ़ेगा तो प्रदूषण भी
असल वजह यही है, कि जब उपभोक्तावाद बढ़ेगा तो हम चाह कर भी प्रदूषण को रोक नहीं सकते. इसके लिए हमें प्रकृति के क़रीब जाना होगा. प्रकृति कुपित होगी तो महामारियाँ भी आएँगी और जलवायु परिवर्तन भी होगा. अब देखिए, अभी पिछले महीने दशहरा के बाद केरल में भीषण बाढ़ आई थी. जबकि यह समय मानसून की विदाई का होता है. दीवाली से अभी तक तमिलनाडु के चेन्नई शहर के अधिकांश इलाक़े डूबे हुए हैं. जिन इलाक़ों में भयानक शीत होती थी, वहाँ अब गर्मी पड़ रही है और गर्म इलाक़े ठंडे. रेगिस्तानी क्षेत्र बाढ़ और बारिश से त्रस्त हैं. इस समस्या को इग्नोर करने से काम नहीं चलेगा बल्कि इससे रू-ब-रू होना पड़ेगा.