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दूसरी नजर : पहरेदार से उम्मीद , वो मामले जो लंबित है
पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम
वीजी रो बैरिस्टर थे और मद्रास हाईकोर्ट में वकालत करते थे। वे वाम झुकाव वाले उदारवादी थे। उन्होंने हर तरह के विज्ञान, राजनीतिक शिक्षा और कला, साहित्य तथा नाटक में मौजूद उपयोगी ज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी शुरू की थी। भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ था और इससे आजादी की बड़ी अनुभूति हुई थी, विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत मिली आजादी की गांरटी से। इनमें से एक स्वतंत्रता 'संगठन या यूनियनें बनाने के अधिकार' को लेकर थी।
तब की मद्रास राज्य की सरकार, जो घोर कम्युनिस्ट विरोधी थी, ने 10 मार्च, 1950 को एक आदेश जारी कर पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। ऐसा 1908 के एक औपनिवेशिक कानून इंडियन क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट 1908 को लागू करके किया था। इस कानून और सरकार के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। जब सरकार को लगा कि आदेश न्यायोचित नहीं था, तो स्पष्ट रूप से मूल कानून के प्रावधानों को 'कड़ा' बनाने के लिए 12 अगस्त, 1950 को वह संशोधन ले आई और एक उचित प्रक्रिया पेश की और इस प्रकार एक कानूनी कल्पना के जरिए पिछले आदेश में संशोधनों को लागू कर दिया।
पहरेदार का बड़ा फर्ज
हाईकोर्ट के पूर्ण पीठ (मुख्य न्यायाधीश राजामन्नार और न्यायमूर्ति सत्यनारायणा राव और विश्वनाथ शास्त्री) के सामने कानूनी बाजीगर टिक नहीं पाए। हाईकोर्ट ने मद्रास राज्य के संशोधनों और आदेश दोनों को सिरे से खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में अपील खारिज करते हुए प्रधान न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ने पांच जजों वाले संविधान पीठ की ओर से लिखा था- अगर तब इस देश में अदालतों को इस तरह के महत्त्वपूर्ण और जो आसान भी न हों, काम से वास्ता पड़ता है, तो ऐसा किसी धर्मयोद्धा की भावना में विधायिका की शक्ति के आगे झुकने की चाहत के कारण नहीं होता है, बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त कर्तव्य को पूरा करने के लिए ही किया जाता है। यह विशेष रूप से मौलिक अधिकारों के संदर्भ में उतना ही सही है, जिसमें अदालतों को एक पहरेदार की भूमिका के लिए तय किया गया है।
किसी भी अन्य संस्थान की तरह और किसी भी अन्य देश के संस्थानों की तरह बाद के सालों में कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट लड़खड़ाया है, लेकिन समय रहते तेजी से अपने को संभाल भी लिया है, अपने पर जमी धूल भी साफ की है और महापुरुष की तरह लंबे कदम भी भरे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि अदालतें (अपनी सारी कमियों के साथ) और खासतौर से सुप्रीम कोर्ट, ऐसी संस्थाएं हैं जिन्हें सबसे ज्यादा लोगों का विश्वास हासिल है।
मैंने यह लंबी प्रस्तावना उस आलोचना को नरम करने के लिए लिखी है, जो दो मामलों में सुप्रीम कोर्ट को झेलनी पड़ी है, जिनका अभी तक कोई फैसला भी नहीं हुआ है और ये दोनों मामले देश में कानून के शासन के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हैं।
नोटबंदी की हार
पहला मामला नोटबंदी का है। जैसा कि हर कोई जानता है कि 8 नवंबर, 2016 को केंद्र सरकार ने एक हजार और पांच सौ रुपए के नोटों को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। अकेले इस कदम ने भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत खराब करने की शुरुआत कर दी थी। 2017-18 की अंतिम तिमाही से जीडीपी में लगातार गिरावट शुरू हो गई और यह गिरावट लगातार सात तिमाहियों तक जारी रही। आठवीं तिमाही (जनवरी-मार्च 2020) में भी इसने नया रिकार्ड बनाया। कोरोना महामारी ने भारत को चपेट में लिया और हमारा ध्यान इस पर से भटक गया। लेकिन हमेशा याद रखिए कि मौजूदा आर्थिक संकट महामारी और पूर्णबंदी से पहले का है।
नोटबंदी को सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्टों में चुनौती दी गई थी। 16 दिसंबर, 2016 को प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाले तीन सदस्यों के पीठ ने एक विस्तृत आदेश जारी किया था। अदालत ने नौ महत्त्वपूर्ण सवालों वाली याचिकाओं को स्वीकार किया था और सभी हाईकोर्टों में लंबित पड़े इन मामलों को अपने पास ले लिया था, और सभी अदालतों को आमजन से जुड़े नोटबंदी से संबंधित किसी भी मामले की सुनवाई से रोक दिया था और यह निर्देश दिया था कि इन मामलों की सुनवाई पांच जजों का संविधान पीठ करेगा। पिछले चार साल से नोटबंदी का यह मामला वहीं का वहीं अटका पड़ा है।
संवैधानिक सत्ता पलट
दूसरा मामला जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद 370 का है। 5 अगस्त, 2019 को राष्ट्रपति ने दो संवैधानिक आदेश जारी कर अनुच्छेद 370 को स्वतः निष्प्रभावी बना दिया और जम्मू-कश्मीर पर संविधान के सारे प्रावधान लागू कर दिए। इस कदम से भारी बदलाव यह आ गया कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म हो गया। राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट कर पूरे इलाके में पूर्णबंदी लागू कर दी गई। विधान परिषद खत्म कर दी गई, विधानसभा को भंग कर दिया गया, राष्ट्रपति शासन जारी रखा गया और बाद में उसे राज्यपाल शासन लागू करके हटा दिया गया।
राज्य मानवाधिकार आयोग सहित सभी शासकीय निकायों को भंग कर दिया गया। सैकड़ों राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया गया (जिनमें महबूबा मुफ्ती और सैफुद्दीन सोज जैसे नेता तो बिना आरोपों के अभी तक हिरासत में हैं), निवासस्थान संबंधी कानूनों को एकदम से बदल दिया गया और कई अधिकारों, जिनमें मीडिया के भी अधिकार शामिल हैं, अभी तक निलंबित हैं।
जस्टिस रामन्ना की अध्यक्षता वाले पीठ ने 2 मार्च, 2020 को कई आपत्तियों को खारिज कर दिया और मौखिक आदेश दिया कि मामलों को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जाएगा। कोरोना विषाणु ने दखल दिया और 25 मार्च को देशव्यापी पूर्णबंदी लागू कर दी गई। मामले सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं हो सके। इंटरनेट और 4 जी से संबंधित अलग मामलों में चार मई को एक आदेश जारी किया गया।
इस स्तंभ का मूल मकसद यह है कि सुप्रीम कोर्ट के एक प्रहरी होने की भूमिका बार-बार कसौटी पर कसी जाती रहेगी। अदालत को अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए, कभी भी नहीं।
अदालतों में हाल में इसी तरह के महत्त्व वाले अन्य मामले सुनवाई के लिए आए हैं। लेकिन ये होती रहने वाली घटनाएं हैं, इसलिए मैं अपनी टिप्पणी को किसी और दिन के लिए सुरक्षित रखूंगा। सभी नागरिकों का जोश भरा निवेदन यह है कि भारत की श्रेष्ठ अदालतें हमेशा जीवित बनी रहें और प्रधान न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री द्वारा स्थापित आदर्शों को मानते हुए अपना कर्तव्य निभाएं।
[इंडियन एक्सप्रेस में 'अक्रॉस दि आइल' नाम से छपने वाला, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता, पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह 'दूसरी नजर' नाम से छपता है। हिन्दी अनुवाद जनसत्ता से साभार।]