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यूपी से लेकर बंगाल तक राजनीति में ब्राह्मण क्यों हुए खास?
नई दिल्ली: बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने पिछले दिनों ऐलान किया है राज्य के मंदिरों में पूजा करने वाले पुजारियों को ₹1000 महीना देगी. जिन पुजारियों के पास खुद के मकान नहीं है उन्हें राज्य की आवास योजना के तहत मुफ्त में मकान भी दिया जाएगा. यह घोषणा ऐसे वक्त हुई है. जब उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण पार्टी अपने शबाब पर है.
ब्राह्मणों के भगवान परशुराम अब राजनीति के प्रतीक बन चुके हैं. समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी की तरफ से उनकी सरकार आने पर भगवान परशुराम की मूर्तियां लगवाने के बाद भारतीय जनता पार्टी के विधायक का बयान आ चुका है कि हम राज्यों में ब्राह्मणों की जीवन बीमा और मेडिकल बीमा कराने की पहल करेंगे. हालांकि इस बयान पर सरकार की तरफ इस पर कोई प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है.
थोड़ा सा पीछे जाएं तो पिछले साल आंध्र प्रदेश चुनाव के मौके पर वहां की तत्कालीन सरकार में ब्राह्मण युवाओं को दो लाख की सब्सिडी देकर स्विफ्ट डिजायर कार उपलब्ध कराई थी. कार की बाकी रकम भी बहुत सस्ते ब्याज पर दी गई थी. आंध्र प्रदेश में ब्राह्मणों के कल्याण के लिए सरकारी उपक्रम के रूप में एक कारपोरेशन भी है इस कारपोरेशन की इकाई के रूप में कोऑपरेटिव क्रेडिट सोसायटी है जोकि ब्राह्मणों को सस्ते ब्याज दर पर कर्ज मुहैया कराती है तेलंगाना राज्य में भी ब्राह्मणों के लिए सरकारी उपक्रम तेलंगाना ब्राहमण समक्षेमा परिषद को स्थापित किया जा चुका है.
ताज्जुब हो ना इसलिए जरूरी
ऐसा भी नहीं है कि इन राज्यों में ब्राह्मण आबादी का बड़ा हिस्सा है. यूपी में ब्राह्मण की आबादी 8 से 12% मानी जाती है संख्या के लिहाज से वह मुसलमानों से कम है. राज्य में मुस्लिम आबादी 16 से 20% के बीच से ही जाती है. वेस्ट बंगाल यहां पर सीएम ममता बनर्जी ने मंदिर के पुजारियों को खुश करने का दांव खेला है. वहां तो ब्राह्मण आबादी और भी कम है भले ही जाति के आधार पर कोई सरकारी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन स्थानीय राजनीतिज्ञों के अनुसार बंगाल में अधिकतम ब्राह्मण 4 से 6% के बीच ही है. यह कभी वहां की पॉलिटिक्स में लड़ाई भी नहीं रहे हैं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी ब्राह्मणों की आबादी कम ही है.आंध्र प्रदेश में इस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने ब्राह्मण युवाओं के लिए कार योजना लेकर आए थे. उस वक्त राज्य में ब्राह्मणों की आबादी 3 से 4% ही बताई गई थी.
फिर यह दांव क्यों?
एक वक्त ब्राह्मण कांग्रेस के परंपरागत वोट बेंक माने जाते र.हे लेकिन नब्बे के दशक में देश के राजनीतिक प्रदेश में आए बदलाव के बाद ब्राह्मण बीजेपी का वोट बैंक माने जाने लगे. जिन जिन राज्यों में बीजेपी कमजोर रही है वहां ब्राह्मणों ने क्षेत्रीय दलों के साथ गर्ल भैया की है. यूपी का ही उदाहरण लें तो जिन ढाई दशक में बीजेपी हासिये पर रही है और तीस साल से कांग्रेस खो गई. उस दरमियान ब्राह्मण समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ रहा 2014 में मोदी युग शुरू होने के साथ ही ब्राह्मणों ने अपनी बीजेपी में वापसी की और उसका नतीजा रहा कि 2017 में राज्य में विशाल बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में वापसी की. अलग-अलग राज्यों में ब्राह्मणों को रिझाने की राजनीतिक दलों ने भूमिका निभाकर अपनी जीततय की है. उसकी वजह यह है कि आबादी में भले ही कम हो लेकिन ब्राह्मण राजनीति में बहुत मुखर होते हैं. जिस राजनीतिक दल के साथ होते हैं उसका माहौल बनाने के काम आते हैं. इलाके में उनका दबदबा भी होता है.
2019 में आंध्र प्रदेश चुनाव के वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने खेला था. तब राज्य के दलित नेता ने बातचीत में कहा था कि राज्य में बड़ा वोट बैंक ना हो लेकिन लगभग हर घर में उनकी पहुंची है. क्योंकि सुख-दुख के जितने भी कर्मकांड होते हैं वह ब्राह्मणों के द्वारा कराए जाते हैं और उनके यजमान ब्राह्मणों पर बड़ा विश्वास करते हैं. जो समय आने पर ब्राह्मण कहते हैं शत प्रतिशत नहीं लेकिन 75% लोग उनकी बातों के अनुसार वोट कर देते हैं. नायडू ने ब्राह्मणों को खुश करने का इसलिए खेला कि उन्हें लगता है कि ब्राह्मणों के माध्यम से उनकी घर-घर माउथ टो माउथ पब्लिसिटी में ब्राह्मण का जरिया बन जाएंगे.
ओपीनियन मेकर
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डिवेप्लिंग सोसाइटीज के प्रोफेसर संजय कुमार कहते है कि ब्राह्मण अपर कास्ट की राजनीत के लिए चेहरा हुआ करते थे. मंडल उभार के बाद अपर कास्ट और खासकर ब्राह्मणों के दबदबे में कमी आई यहीं से ब्राह्मणों को खुश करने के लिए पार्टियों ने खुश करने के लिए दांव खेला है. दूसरी वजह यह है कि ब्राह्मणों की आबादी भले ही कम हो लेकिन साक्षरता की दर सबसे ज्यादा है. इसलिए हमेशा ओपेनियन मेकर की भूमिका में रहता है. अब देखना बिहार , बंगाल और यूपी में ब्राह्मण किसके साथ जाएगा.