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देश की जनता को वही पुलिस, वही कानून, वही भ्र्ष्टाचार क्यों दिये नेहरु ने!
राजीव मित्तल जी की वाल से.......
हम आजाद भारत के तुरंत बाद के सत्रह वर्षों और आज़ादी के पहले के 15 वर्षों में जवाहरलाल नेहरु की उपस्थिति पूरी मजबूती से पाते हैं, हां इनमें चाहें तो 1962 में चीन से हारे गए युद्ध से उनकी मृत्यु तक के दो साल निकाल सकते हैं.
महात्मा गांधी के सबसे बिगड़ैल शिष्य थे नेहरु, थे तो सुभाष चंद्र बोस भी उनके बहुत प्रिय..बाद में कई मौकों पर गांधी जी ने सुभाष को याद किया लेकिन वो बागी तो हो ही गए थे..और फिर तो देश ही छोड़ गए...बाकी जो जमावड़ा गांधी के इर्दगिर्द था, उनमें सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद समेत सब गांधी के शिष्य परमपरा के शिष्य थे..यानी आध्यत्मिक गुरु के आध्यत्मिक शिष्य.. नेहरु सबसे अलग थे...वो आज़ादी से 15 साल पहले से आज़ाद भारत के हर पक्ष पर अपनी सोच का ढांचा खड़ा कर रहे थे..लोकतंत्र उस ढांचे की मजबूत नींव था..नेहरु स्वप्नदर्शी भी थे..तभी उन्होंने गुरुदत्त की प्यासा से बहुत पहले नारी को बराबरी का स्थान देने और राजकपूर की श्री420 से बहुत पहले भ्रष्टाचारियों और कालाबाजारियों को फांसी पर चढ़ाने और जनता के हाथों जूतों से पिटवाने के एलान तक कर डाले थे..उनकी सोच में अगर गगनचुम्बी उद्योग थे, बांध थे और तकनीक की क्रांतियां थीं, उच्च शिक्षा के उच्चतम पैमाने थे, तो उनकी सोच में किसान मजदूर भी थे..यहीं आ कर महात्मा गांधी का यह पट्टशिष्य गांधी की अवधरणा के खिलाफ जा कर समाजवाद की बातें खुल कर करता था और सोवियत संघ की उस चमत्कारिक तरक्की का प्रशंसक था, जो शुरू के वर्षों में पंचवर्षीय योजनाओं के जरिये स्तालिन की देन थीँ.. इतना ही नहीं, नेहरु की ही वजह से 1934 में कांग्रेस के अन्दर जयप्रकाश नारायण, आसफ अली, अच्युत पटवर्द्धन और राम मनोहर लोहिया के जरिये समाजवाद की बयार बही..1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में जब गांधी और नेहरु समेत सभी बड़े कांग्रेसी नेता जेलों में ठूंस दिए गए, तब इन्हीं समाजवादी नेताओं ने इस आंदोलन की डोर अपने हाथों में थामी थी, और इसकी लौ बुझने नहीं दी थी..
अपने आज़ाद देश के नेहरु द्वारा देखे जा रहे सपनों को सबसे पहले तो बंटवारे ने धूल में मिलाया, फिर आज़ादी के दो महीने बाद ही कश्मीर पर नवोदित पाकिस्तान का हमला, फिर आज़ादी के 165 दिन बाद ही बापू की हत्या, फिर दिल से जुड़े समाजवादी नेताओं का प्रधानमंत्री जवाहर लाल से नाता तोड़ लेना..इतने सारे बवंडरों ने नेहरु को हिला कर रख दिया. और फिर अपने सबसे गहन साथी सरदार पटेल को भी नेहरु ने जल्द ही खो दिया..कुल मिलाकर नेहरु अगले करीब 15 साल बिल्कुल अकेले रहे..जिस हिंदुत्व से उन्हें घृणा थी, वो कांग्रेस पार्टी में सिर चढ़ कर बोल रहा था..उस कांग्रेस के साथ 15 साल कैसे बिताए होंगे नेहरु ने, यह अध्ययन का विषय है..
नेहरु इस कदर अकेले पड़ गए थे कि वो अपनी सोच का भौतिक यानी निर्माण पक्ष तो किसी हद तक पूरा कर सके लेकिन सैद्धान्तिक पक्ष के मामले में वो पूरी तरह मात खा गए..तभी तो कांग्रेसियों को चुनाव जितवाना और मताधिकार का मतलब केवल वोटबैंक बन कर रह गया..इस वोट बैंक को समेटने के चक्कर में नेहरु की कांग्रेस में वो सब कालाबाज़ारिये, भ्रष्टाचारी, कट्टर हिंदुत्व की सोच वाले, किसान-मजदूर का खून चूसने वाले गांधी टोपी पहन कर घुस गए, जिन्हें कभी नेहरु फांसी पर लटकाने की बात करते थे....इसी के साथ नेहरु बेसिक शिक्षा, बेसिक स्वास्थ्य सेवा का अखिल भारतीय विस्तार करने में चूक गए और किसान को मानसून और महाजन के रहमोकरम से नहीं निकाल सके.. नेहरु ने आज़ादी के बाद देश में अंग्रेजों की पुलिस व्यवस्था को क्यों नहीं बदला, क्यों अंग्रेजों के समय के कानून चलने दिए..क्यों देश भर में, खास कर बिहार में अकाल और बाढ़ का अनवरत सिलसिला चला..और क्यों आपदाग्रस्त जनता को माकूल राहत आज तक नहीं मिल सकी..
नेहरु की इन्हीं खामियों का नतीजा है नीचे की सच्ची कथा, जो फणीश्वरनाथ रेणु की किताब से ली है क्योंकि किसी राजनीतिक विश्लेषक से बेहतर मुझे रेणु ज़्यादा सटीक और सच्चे लगे जो खुद आज़ादी की लड़ाई के एक योद्धा हुआ करते थे और बाद में समाजवाद से जुड़ी शख्सियतों से मरते दम तक जुड़े रहे और आज़ादी के बाद भी कई बार जेल भेजे गए..
कांग्रेस के साठ साल या सत्तर साल को घटिया जुमलों से नहीं ढंका जा सकता, उसके रहने न रहने पर एक गंभीर सोच की ज़रूरत है..शायद आगे भी जारी रखूं..
गांधी जी की हत्या हो चुकी थी..देश पूरी तरह मातम में डूबा था..जिस दिन बापू का श्राद्ध था, उस दिन बावनदास ने महात्मा जी के वो सारे खत आश्रम वासिनी लक्ष्मी को सौंप दिए, जिनका हर अक्षर उस निरक्षर के लिए किसी भी आस्था से बढ़ कर था..वो खत अब उसके लिए किसी मतलब के नहीं रह गए थे.पूर्णिया के सतीनाथ भादुड़ी को वो खत देने को बोल कर चुप बैठ गया..
मन फट गया था उस तीन फुट के बावनदास का, जिससे महात्मा जी अपनी हर सभा में भाषण देने से पहले रघुपति राघव राजा राम जरूर गवाते और जिसके लिए जवाहर लाल नेहरु माइक ऊपर नीचे करते..और जो अपनी बेझड़ आवाज़ में सीताराम को सेत्ता राम बोलता..जिसके हर सवाल का हर जवाब गांधी जी हर हाल में देते..
उस माघ की कड़कड़ाती सर्दी में बावनदास बापू के श्राद्ध के दिन बगैर खाये पिये निकल पड़ा उन कालाबाजारियों को बेपर्दा करने के लिए, जिनको कभी जवाहर लाल फांसी पर लटकाने की बात करते थे..लेकिन रातोंरात वो सब भ्रष्टाचारी गांधी टोपी पहन कर, कांग्रेस में घुस शुद्ध हो चुके थे..
खगड़ा स्टेशन पर उतर कलीमुद्दीन पुर की ओर चल पड़ा बावनदास..नागर नदी... भारत-पूर्वी पाकिस्तान के बीच की सीमा रेखा..उसी के किनारे तो बसा है ये गांव..सीमा पार से लाखों का माल स्मगल हो कर आ रहा है आधी रात को.इसी जानकारी पर आया है यहां बावनदास..उस रास्ते पर आएंगी पचासों बैलगाड़ियाँ स्मगलिंग का माल ले कर..
कटहा के दुलारचंद कापरा, जिसके जुआघर में जुए के साथ साथ नेपाली लड़कियों का गोश्त नुचता है, दारू, गांजा का कारोबार चलता है..आज वो कटहा कांग्रेस का सेक्रेटरी है..आज के माल की सप्लाई में उसके साथ हैं सप्लाई इंस्पेक्टर, कटहा थाने का दरोगा और एक हवलदार..
अंधेरे में गाड़ियां आती दिख रही हैं..अंधेरे में एक आदमी को खड़ा देख बैल भड़कते हैं..सारे माल को भारतीय सीमा में निकाल कर ले जा रहे कलीमुद्दीन पुर गांव के नाका सिपाही ने बावनदास को पहचान लिया, तो भागा सरकारी बंगले पर, जहां सब दारू के साथ मुर्गा चाब रहे थे..
बावनदास का नाम सुनते ही कापरा एन्ड पार्टी के होश गुम..लेकिन अकेला है की सुन कर चैन की सांस ली..और सब लोग हाथ का दारू, मुर्गा और आनेवाली औरत का खयाल झटक भागे उधर..
कापरा ने मौके पर पहुंच कर देखा..हाँ बावनदास ही था..न जाने कितनी बार उसकी दुकान पर धरना दिया था इस बौने ने..
वो अपने आदमी को आवाज़ मारता है-हांको जी गाड़ी.
पहली गाड़ी लीक तोड़ कर बगल से निकल गयी..दूसरी गाड़ी भी निकाल ले गया गाड़ीवान..तीसरी के ठीक सामने खड़ा हो गया बावनदास..बैल उसे गिरा देता है..फिर सब गाड़ियां निकल जाती हैं..आखिरी के निकलने के बाद बावनदास की चिथड़ा हो चुकी लाश हवलदार और माल निकालने वाले सिपाही नागर नदी के पानी में उतर उस पार फेंक आते हैं और कापरा उसका झोला एक पेड़ पर टांग देता है..
अच्छा हुआ न, बापू के खत लक्ष्मी को सौंप आया था बावनदास..