
पुणे में गिरफ्तारी पर आखिर दूसरे विचार के लोग क्यों नहीं गए उच्चतम न्यायालय

अवधेश कुमार
उच्चतम न्यायालय पर सबको विश्वास है। तो हमें 6 सितंबर को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। हालांकि मुझे पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए पांच लोगांे के विचारधारा से माओवादी होने को लेकर कोई संदेह नहीं है। हां, माओवादियों के साथ मिलकर ये हिंसक साजिशों में शामिल होंगे या उनको वित्त आदि से सहयोग कर रहे होंगे इसके प्रमाण हमारे पास नहीं है। मुझे नहीं पता कि पुणे पुलिस के पास क्या प्रमाण हैं। किंतु पिछले दो दिनों की घटना से कुछ बातेें साफ हो गई। जो अपने को राष्ट्रवादी कहते हैं उनकी भूमिका हर ऐसे अवसरों पर काठ के उल्लू के समान दिखाई देती है।
इन पांचों की गिरफ्तारी के विरुद्ध देश के पांच नामी लोगों ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर दी और उनके लिए नामी-गिरामी वकील खड़े हो गए। उनने बहस की। उच्चतम न्यायालय को उनको सुनना पड़ा और आज ये पुलिस की गिरफ्त में होने की जगह अपने घर में नजरबंद हैं तो इनकी बदौलत। यही नहीं दूसरी तरफ हाथों में तख्तियां लिए लोग इनके पक्ष में उतर पड़े। इसके समानांतर क्या हुआ? भाजपा ने एक पत्रकार वार्ता में इनकी आलोचना की। भाजपा के कुछ वकीलों को मैंने टीवी पर बहस करते या बाइट देते सुना।
प्रश्न है कि अगर इतने लोग उच्चतम न्यायालय में खड़े हो सकते हैं तो आप इनके विरुद्ध क्यों खड़े नहीं हो सकते? इनका एक संगठन है अधिवक्ता परिषद। मुझे नहीं मालूम उसके पदाधिकारी कौन-कौन हैं। किंतु ये चाहते तो कुछ मिनट में भारी संख्या में वकीलों की जमात न्यायालय में एकत्रित कर सकते थे। ये भी वहां बहस कर सकते थे। ऐसा होता तो अभी माहौल दूसरा होता। जिस तरह उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश की किसी एक पंक्ति को उद्धृत करके बाहर बताया जा रहा था और वही मीडिया की सुर्खियां बन गया है वैसा नहीं होता। मेरा मानना है कि उच्चतम न्यायालय ने इस पंक्ति के साथ और भी कुछ कहा होगा। अगर ये न्यायालय में होते तो बाहर आकर मीडिया को बता सकते थे कि न्यायाधीश महोदय ने इसके साथ क्या-क्या टिप्पणी की।
इसके साथ सड़कों पर उतरने का कार्यक्रम भी बनाया जाना चाहिए था। आप टीवी पर बयान देकर प्रत्यक्ष और छद्म माओवाद से मुकाबला नहीं कर सकते। भाजपा और आरएसएस को छोड़ दें तो भी वकालत से लेकर सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की राजधानी दिल्ली में ही बड़ी संख्या है जो नजरबंद पांचों की विचारधारा के विरुद्ध हैं। उन वकीलों की भूमिका को भी ये ठीक नहीं मानते। इनसे भी पूछा जाना चाहिए कि क्या आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? आप भी तो न्यायालय में जा सकते थे, सड़कों पर उतर सकते थे।
वैसे भी यह विचार की लड़ाई है। पुलिस और कानून की सीमाएं हैं। इनके पक्ष में जितने बड़े वकील खड़े हैं उनमें इनको या इनकी तरह अन्यों को माओवादी प्रमाणित करना आसान नहीं है। तो वैचारिक विरोध और संघर्ष सबसे बड़ा साधन है। इस साधन को अगर आप अपनाने को तैयार नही ंतो फिर यह लड़ाई आप हारेंगे ही।
हमें तो उच्चतम न्यायालय का शुक्रगुजार होना चाहिए जिसने उनकी गिरफ्तारी को गलत ठहराने की अपील स्वीकारने की जगह महाराष्ट्र एवं केन्द्र सरकार का जवाब आने तक उनको नजरबंद करने का फैसला दे दिया, अन्यथा इनकी कायरता से तो दूसरे पक्ष के लिए खुला मैदान मिल गया था। अगर ये छूट जाते तब भी ये टीवी पर विरोध मेें बयान देते दिखते।