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पेगासस खुलासे पर भारत में लोगो को गुस्सा क्यों नहीं आया?
भारत सरकार पर इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर कई कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की जासूसी कराने का आरोप लगा है. सरकार ने इस आरोप पर दी गई प्रतिक्रिया में स्पष्ट भी नहीं किया है कि उन्होंने इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया या नहीं. पेगासस के जरिए लोगों की जासूसी के खुलासे के बावजूद भारत में स्पष्ट तौर पर कोई गुस्सा या नाराजगी, कम से कम आम जनता में, नजर नहीं आई. कई पत्रकार और सिविल सोसाइटी के लोग इससे चकित हैं. कई लोगों का मानना था कि सरकार अपने नागरिकों की जासूसी कर रही है, अगर ऐसे आरोप जनता के सामने आते हैं तो इसकी गंभीर प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिलहाल भारतीय विपक्षी दलों की ओर से संसद में इस मुद्दे पर सरकार का विरोध किया जा रहा है.
लेकिन यह भारत में आम चर्चा का विषय नहीं है. बता दें कि पेगासस एक इस्राएली सॉफ्टवेयर है, जो किसी भी फोन को हैक कर सकता है. पेगासस बनाने वाली कंपनी की उपभोक्ता सिर्फ सरकारें होती हैं. एक हालिया जांच रिपोर्ट में भारत सरकार के ऊपर इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, राजनेताओं, नौकरशाहों और पत्रकारों की जासूसी कराने का आरोप लगा है. सरकार ने इस आरोप पर दी गई प्रतिक्रिया में स्पष्ट भी नहीं किया है कि उन्होंने इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया या नहीं.
पहली बार पेगासस सॉफ्टवेयर का मामला करीब दो साल पहले सामने आया था. अब दुनियाभर के पत्रकारों के एक समूह की ओर से की गई हालिया जांच में 50 हजार लोगों की एक लिस्ट उजागर की गई है. इस लिस्ट में शामिल लोगों को पेगासस का संभावित शिकार बताया गया है. हालांकि जांच में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि जिन लोगों का नाम लिस्ट में है, उनमें से कितने लोगों की वाकई पेगासस के जरिए जांच की गई है. इनमें से सिर्फ 67 लोगों के ही फोन की ही फॉरेंसिक जांच की गई है. जानकार कहते हैं कि यह बात जांच को थोड़ा कमजोर करती है, फिर भी यह समझ से परे है कि जिस खुलासे के बाद फ्रांस और इस्राएल में जांच शुरू हो चुकी है, भारत में उस पर ऐसी चुप्पी कैसे है.
जानकार इसकी वजह भारत में निजता को ज्यादा तवज्जो न दिया जाना मानते हैं. समाजवादी जन परिषद के राष्ट्रीय महासचिव अफलातून कहते हैं, "बहुसंख्य भारतीय व्यक्तिगत अधिकारों को कमतर मानते हैं. वर्तमान सरकार की ओर से भी 'आधार' से जुड़े एक मामले में यह तर्क दिया जा चुका है कि जब भारत की बहुसंख्यक जनता गरीब है और उसके पास बुनियादी अधिकार तक नहीं हैं तो ऐसे में निजता के अधिकार का मसला बहुत पीछे आता है." हालांकि सरकार के इस तर्क को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था और निजता को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 से जुड़ा बताया था. यह अनुच्छेद नागरिकों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है. जानकार कहते हैं लेकिन ऐसे फैसले भी सरकार को निजता के उल्लंघन से नहीं रोक पाते. अफलातून ऐसा ही एक उदाहरण देते हैं. वह कहते हैं, "फैसले में आधार को अनिवार्य नहीं बताया गया था लेकिन सच्चाई यह है कि बिना आधार आप ज्यादातर सरकारी काम नहीं कर सकते."
सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक चंदन श्रीवास्तव कहते हैं, "सरकार कई मामलों में तर्क दे चुकी है कि जब तक नागरिकों को बुनियादी अधिकार नहीं मिल जाते, निजता के अधिकार का कोई मूल्य नहीं है. लेकिन इसी तर्क को उल्टा करके देखने की जरूरत है. यानी जब तक नागरिकों को निजता का अधिकार नहीं मिलता तब तक वे पूर्ण नागरिक नहीं बन सकेंगे."
सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक चंदन श्रीवास्तव कहते हैं, "सरकार कई मामलों में तर्क दे चुकी है कि जब तक नागरिकों को बुनियादी अधिकार नहीं मिल जाते, निजता के अधिकार का कोई मूल्य नहीं है. लेकिन इसी तर्क को उल्टा करके देखने की जरूरत है. यानी जब तक नागरिकों को निजता का अधिकार नहीं मिलता तब तक वे पूर्ण नागरिक नहीं बन सकेंगे." भारत के राजनीतिक जानकार कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भारत में भ्रष्टाचार बड़ा राजनीतिक मसला हुआ करता था. यह मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता खोने की बड़ी वजहों में से एक था. लेकिन फिलहाल भारत में सरकार को भ्रष्ट नहीं माना जा रहा है क्योंकि लोग ऐसा मानने को तैयार नहीं हैं. जानकार कहते हैं कि कई बार ऐसी सोच का जमीन पर नेताओं के व्यवहार से खास लेना-देना नहीं होता बल्कि यह बात नेता के व्यक्तित्व से तय की जाने लगती है.
कई विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि साधारण भारतीय कहीं ज्यादा आसानी से नेताओं को माफ कर देते हैं और उन्हें राजनीतिज्ञों के बर्ताव से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. वे कहते हैं कि जिन राजनेताओं को लोग पसंद करते हैं, उन्हें सही ठहराने के लिए रास्ते निकाल लेते हैं. यूं तो भारत में ईमानदार, शांतिप्रिय, प्रभावी, बुद्धिमान और एक ही शादी या कोई शादी न करने वाले नेता पसंद किए जाते रहे हैं लेकिन लोग जिन नेताओं को पसंद करते हैं, भले ही उनका आपराधिक मामलों या भ्रष्टाचार का इतिहास रहा हो, वे उन्हें सही ठहरा लेते हैं. सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक चंदन श्रीवास्तव के शब्दों में ऐसा भारत 'मुग्ध लोगों का समाज' है.
जानकार कहते हैं कि भारतीयों को खुद पर नजर रखे जाना बिल्कुल पसंद नहीं है लेकिन सरकार का जानी-मानी हस्तियों पर नजर रखना उसे उत्तेजित नहीं करता. इसकी वजह के बारे में सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषक चंदन श्रीवास्तव कहते हैं, "जब तक सरकार ऐसा कोई फैसला नहीं करती जिससे जनता पर सीधा बुरा असर हो, तब तक लोगों में गुस्सा नहीं पैदा होता."
भारत में फिलहाल पत्रकारिता का राजनीतिक आधार पर बंट जाना भी समस्या को बढ़ाने की वजह रहा है. फिलहाल ज्यादातर व्यावसायिक मीडिया का इस्तेमाल सरकार के कदमों को सही ठहराने के लिए किया जा रहा है. पेगासस खुलासे के बाद भी ज्यादातर भारतीय मीडिया ने सरकार से सवाल पूछने के बजाए सामने आई सूचनाओं पर ही सवाल खड़े किए. चंदन श्रीवास्तव कहते हैं, "भारत में सत्ता और जनता के बीच पर्याप्त दूरी है. इसके बीच में कई चरण होते हैं. वे चरण मौजूद हैं लेकिन अपना काम सुचारु रूप से नहीं कर रहे हैं." इस बात को अफलातून भी दोहराते हैं और सरकार की निरंकुशता की वजह बताते हैं. भारत में ज्यादातर जानकार मानते हैं कि सत्ता की मनमानी लंबे समय तक जारी रहेगी और बढ़ती महंगाई, खराब होती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी और निजता के उल्लंघन की खबरों के बावजूद वह शक्तिशाली बनी रहेगी. लेकिन अफलातून मानते हैं कि जनता में सीधी प्रतिक्रिया नहीं दिख रही क्योंकि भारत में विपक्षी दल जनता की गोलबंदी करने और किसी आंदोलन को खड़ा करने में कमजोर हुए हैं लेकिन जनता के मन में जासूसी की बात बैठ गई है और समय आने पर लोगों की राजनीतिक रुचि में इसकी प्रतिक्रिया भी दिखेगी. भारत में पिछले कुछ सालों में ज्यादातर राजनीतिक आंदोलन आम जनता ने किए हैं.