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चीन और भारत के बीच सीमा विवाद का हल इतना मुश्किल क्यों है? मेजर जनरल एस. बी. अस्थाना की कलम से समझिए
लद्दाख और लाइन ऑफ ऐक्चुअल कंट्रोल (LAC) से लगी कुछ जगहों पर चीन के खतरनाक अभियान और भारत और चीन की सेनाओं के बीच गतिरोध ने एक बार फिर दोनों देशों के बीच सीमा मुद्दे की जटिलता को उजागर किया है.
पिछले 30 वर्षों में भारत और चीन के बीच विशेष प्रतिनिधि स्तर की वार्ता के 22 दौर हो चुके हैं, और सीमा मुद्दे का समाधान कहीं नजर नहीं आता, इसी से पता चलता है कि समस्या कितनी विशाल है. अलग-अलग धारणाओं के बावजूद LAC एक समझौता फॉर्मूला बनी हुई है, जिसकी शांति और सौहार्द लाने में अपनी कठिनाइयां हैं, क्योंकि अगर इरादे बदलते हैं तो धारणाओं को बार-बार सीमा से परे बढ़ाया जा सकता है, जैसा कि कई बार चीन के साथ हुआ है. समझौतों और विश्वास बहाली के उपायों के जरिए शांति और स्थिरता कायम करने की योजना कारगर साबित नहीं हुई है.
क्या है चीन-भारत सीमा मुद्दे की जटिलता
पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) ने ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच हुए 1914 के शिमला समझौते को मानने से इनकार कर दिया. भारत सामान्य तौर पर लद्दाख में जॉनसन लाइन (1895) और ईस्ट में मैकमोहन लाइन को मानता है. महाराजा हरि सिंह ने जब राज्यप्राप्ति पत्र पर हस्ताक्षर किए, तो अक्साई चिन इसका हिस्सा था; इसलिए, इस पर भारत का हक था. भारत को तिब्बत को बीजिंग का हिस्सा मानने से पहले चीन को शिमला समझौते को स्वीकार करने के लिए मजबूर करना चाहिए था. इसलिए स्वतंत्र भारत और PRC के बीच आपसी सहमति से कोई सीमा संधि नहीं है. चीन पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता और इसलिए भारत चीन के साथ पुरानी संधियों/मान्यताओं पर भी दोबारा विचार कर सकता है.
अक्सर ये जिक्र किया जाता है कि चीन ने कई अन्य देशों के साथ अपने सीमा विवाद को सुलझा लिया है, हालांकि, चीन का तर्क है कि ये देने और लेने के सिद्धांत पर किया गया था. भारत और चीन अपने हिसाब से इतिहास की व्याख्या करते हैं, जिसमें आसानी से बदलाव की गुंजाइश नहीं है. भारत से तवांग लौटाने या चीन से अक्साई चिन लौटाने की उम्मीद करना दोनों तरफ के लोगों को स्वीकार हो, इसकी संभावना नहीं है. यही कारण है कि हर बार जब सीमा विवाद सुलझाने पर बातचीत शुरू होती है, तो ये अपरिभाषित LAC के प्रबंधन के लिए अतिरिक्त उपायों के साथ बिना किसी बदलाव के खत्म हो जाती है.
LAC पर 'ग्रेसफुल डिसइंगेजमेंट' क्यों मुश्किल है?
परिभाषा के अनुसार, LAC चीन और भारत की सेनाओं के वास्तविक नियंत्रण वाले क्षेत्रों का अस्पष्ट सीमांकन बतलाती है. इस शब्द का इस्तेमाल झोउ एनलाइ ने 1959 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिए अपने नोट में किया था, जिसके बाद 1960 में संबंधित पोजिशंस और 1962 की जंग के बाद, बीच में कुछ बिना नियंत्रण वाले क्षेत्रों के साथ, और बाद में 1993 के बाद से बातचीत के लिए इस्तेमाल किया गया, इस प्रावधान के साथ कि ये अनसुलझे सीमा मुद्दे पर दोनों देशों के क्षेत्र में आने वाली पोजिशन्स को प्रभावित नहीं करती है. दोनों देशों की LAC के बारे में अपनी धारणा है और कुछ क्षेत्रों में ये धारणा ओवरलैप यानी एक दूसरे के क्षेत्र को प्रभावित करती है. चूंकि LAC का सीमांकन नहीं किया गया है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और दायित्वों के प्रति बहुत कम सम्मान रखने वाला चीन, बिना सीमांकन वाली लाइन का फायदा उठाते हुए अपनी विस्तारवादी अतिक्रमण रणनीति के तहत नए दावे (गलवान घाटी) करता है और वहां तब तक सैनिकों की तैनाती/बुनियादी ढांचे का विकास करता है जब तक कि उसका विरोध न किया जाए या फिर संघर्ष की नौबत न आ जाए. भारतीय सेनाओं की तरफ से हर बार विरोध 'गतिरोध' में बदल जाता है.
गतिरोध खत्म करने में समस्या ये आती है कि संबंधित देशों में बढ़ती भावनाओं/राष्ट्रवाद और मीडिया की नजर के कारण सम्मानजनक वापसी बेहद मुश्किल हो जाती है, इस प्रकार दोनों पक्षों के लिए किसी भी समझौते पर पहुंचना राजनीतिक तौर पर महंगा पड़ता है. LAC का सीमांकन होने तक गलवान/ पैंगॉन्ग त्सो (Galwan/Pangong Tso) न तो पहला और न ही आखिरी गतिरोध है, बशर्ते दोनों पक्ष "सहमत होने के लिए सहमत" हों. हालांकि, चीन ऐसा करने में अपने पैर खींचता रहता है, क्योंकि उसे डर है कि ये वास्तविक सीमा बन जाएगी, उन्हें तवांग सहित 1959 में किए गए अपने दावों को छोड़ने के लिए मजबूर होना होगा और रणनीतिक हितों में कोई बड़ा फर्क पड़ने पर भारत को उकसाने का मौका उनके हाथ से निकल जाएगा. भारत की तुलना में LAC तक अपने बुनियादी ढांचे को पहले खड़ा करने वाला चीन ये कतई नहीं चाहेगा कि भारत पर मिले इस इस रणनीति लाभ को वो खो दे, इसीलिए वो भारत की तरफ इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने का विरोध करता है.
मेरी राय में, LAC का परिसीमन और सीमांकन तभी होगा, जब ऐसा नहीं करना राजनीतिक/रणनीतिक लिहाज से चीन को महंगा पड़ेगा. ये तब हो सकता है जब चीन को हिंद-प्रशांत में चीन के दुस्साहस के जवाब में देशों के समूह से दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट पर इतने भारी सैन्य दबाव का सामना करना पड़े जिसके आगे चीन झुकने पर मजबूर हो जाए. चीन ने COVID-19 से जल्दी उबरने के बाद इसे 'हेल्थ सिल्क रोड' से महामारी और अनुचित मुनाफाखोरी के बीच दावा किए गए क्षेत्रों में तुरंत फायदा उठाने के मौके के रूप में गलत तरीके से इस्तेमाल किया है, जिससे दुनियाभर में आक्रोश भड़का है. साउथ और ईस्ट चाइना सी में चीन की आक्रामकता, संचार की वैश्विक समुद्री लेन रोकने और उड़ानों की आजादी, ताइवान द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा करने के साथ मिलकर ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं, साथ ही आर्थिक रूप से नाता तोड़ने के परिणामस्वरूप चीन, हांगकांग में आंतरिक असहमति है, और आकस्मिक कारणों के साथ अमेरिका से भारी दुश्मनी बढ़ रही है.
चीन, 'बिना लड़ाई के जीतने' के सन त्जू (Sun Tzu) के सिद्धांत में विश्वास रखते हुए अपनी ओर से तभी अपने दुस्साहस को रोकेगा जब तक युद्ध की नौबत न आ जाए. भारत को QUAD (Quadrilateral Security Dialogue) जैसी हिंद-प्रशांत पहल के लिए और कोशिशें करनी होंगी और समान विचारधारा वाले देशों के साथ तालमेल बिठाकर चीन की सभी कमजोरियों पर निशाना साधना होगा. तब तक चीन और भारत के बीच LAC पर रस्साकशी जारी रहेगी.
(लेखक: मेजर जनरल एस बी अस्थाना, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 40 वर्षों के रक्षा मामलों के अनुभव के साथ इन्फेंट्री जनरल रह चुके हैं.)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)