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असल खबर क्यों छिपा रहा है मीडिया,अमर उजाला की यह खबर दूसरे अखबारों में कहां है?

Shiv Kumar Mishra
25 April 2020 7:07 AM GMT
असल खबर क्यों छिपा रहा है मीडिया,अमर उजाला की यह खबर दूसरे अखबारों में कहां है?
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संजय कुमार सिंह

आज के अखबारों को देख कर कैफी आजमी और जगजीत सिंह की ये लाइनें याद आ गईं - सोशल मीडिया पर बुधवार को और कल के अखबारों में एक खबर थी, माइक्रोसॉफ्ट के फाउंडर बिल गेट्स ने कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लिए गए फैसलों की सराहना की है। मोदी को लिखी चिट्ठी में गेट्स ने कहा कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई में आपकी सरकार ने डिजिटल क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल किया है। माइक्रोसॉफ्ट के फाउंडर ने मोदी द्वारा लॉकडाउन के फैसले को भी सही बताया है। वास्तविक स्थिति चाहे जो हो, कई अखबारों के साथ नवभारत टाइम्स ने आज खबर छापी है, लॉकडाउन बन गया स्पीडब्रेकर, नहीं बढ़ी नए केस आने की दर।

यह इस तथ्य के बावजूद है कि देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 72 दिनों में 10,000 हुई और इसे दूनी यानी 20,000 होने में सिर्फ आठ दिन लगे। कल मैं इस खबर की चर्चा कर चुका हूं। पर आज के अखबारों के शीर्षक, "लॉकडाउन का असर: काबू में कोरोना" (दैनिक जागरण) पढ़कर लगा कि जो छिपा रहे हैं वह तो पता है मुस्कुराने का कारण तलाशा जाए। वैसे तो इसका जवाब उसी खबर में होना चाहिए था और वह है देश में कोरोना से मरने वालों की संख्या कल शाम ही 686 हो चुकी थी और यह द हिन्दू की इसी सरकारी खबर में है। यह खबर उसमें भी लीड छपी है। दैनिक जागरण ने लिखा है, पिछले 30 दिनों का लॉकडाउन कोरोना को फैलने से रोकने में कारगर रहा है। इस दौरान टेस्टिंग में 24 गुना बढ़ोतरी के बावजूद कोरोना के पॉजिटिव केसों में 16 गुना बढ़ोतरी देखने को मिली।

अब इसमें खबर क्या है? दुनिया जानती है कि इससे बचने का एक ही तरीका है लॉक डाउन। सवाल यह है कि अपने यहां लॉकडाउन पहले क्यों नहीं किया गया। बताया यह जा रहा है कि इससे फायदा है। मने फायदा नहीं होता तो लॉक डाउन रखने की तुक थी? बढ़ाया जाता? इसी तरह, जब सबकी जांच की जानी चाहिए तो आप यह नहीं बता रहे हैं कि रोज कितने लोगों की जांच हो रही है। यह बताया जा रहा है कि जांच में 24 गुना बढ़ोतरी के बावजूद कोरोना के पॉजिटिव केसों में 16 गुना बढ़ोतरी देखने को मिली। भारत जैसे देश की स्थिति ऐसी है कि रोज एक लाख लोगों की जांच की जाए तो एक करोड़ लोगों की जांच करने में 100 दिन लगेंगे और 133 करोड़ लोगों की जांच करने में 13300 दिन यानी 36 साल से भी ज्यादा। ऐसे में गिन-चुन और छांट कर कुछ सौ लोगों की जांच और उसके परिणाम का क्या मतलब?

हमारे अखबार यही सब बताते हैं क्योंकि सरकार उन्हें यही सब फीड करती है। (अंग्रेजी में दुधमुंहे बच्चे को बोतल से दूध पिलाना फीड करना कहलाता है)। नवभारत टाइम्स ने लिखा है, लॉकडाउन का गुरुवार को एक महीना पूरा हो गया। सरकार ने कहा कि इस अवधि में जांच और मामलों की संख्या तो बढ़ी, पर कोरोना के पॉजिटिव केस आने की दर समान रही। आईसीएमआर ने कहा कि इस अवधि में कोरोना के टेस्ट में 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और नए केस 16 गुना बढ़े। भारत में स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बिगड़ी है। इसमें मरने वालों की संख्या नहीं है। स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि देश के 78 जिलों में पिछले 14 दिनों से कोई केस सामने नहीं आया है। इसके अलावा देश में 12 जिले ऐसे हैं, जहां 78 दिनों से कोई केस सामने नहीं आया है। निश्चित रूप से यह अच्छी बात है। पर क्या यही खबर है?

इसी तरह, आईसीएमआर के डायरेक्टर जनरल डॉ. बलराम भार्गव ने कहा कि लॉकडाउन से पहले सरकारी क्षेत्र की सौ लैब्स कोरोना की जांच कर रही थीं। अब सरकारी और निजी क्षेत्र की 325 लैब्स जांच का काम कर रही हैं। लैब्स को जरूरी सामान की सप्लाई के लिए देश भर में 15 डिपो बनाए गए हैं। यही नहीं अखबारों को बताया गया और उन्होंने लिखा है, पांच लाख टेस्ट किए जाने पर अमेरिका में 80 हजार कोरोना पॉजिटिव केस थे तो इटली में एक लाख। इसके मुकाबले भारत में यह संख्या करीब 21 हजार ही है। अब अमेरिका से भारत की तुलना करने का कोई मतलब है? क्या यह समझना मुश्किल है कि अमेरिका से तुलना क्यों की जा रही है। उस देश से क्यों नहीं की जा रही है जहां कोरोना का असर कम है?

मुझे मेरे सवाल का जवाब अमर उजाला में मिल गया। आप शीर्षक देखिए समझ जाएंगे। जब भाजपा नेता के पिता संक्रमित पाए गए थे तो भी अमर उजाला में खबर प्रमुखता से छपी थी। यह खबर आज किसी और अखबार में है। संयोग से कल ही लॉक डाउन का एक महीना पूरा हुआ और इसकी सरकारी खबर भी अमर उजाला ने छापी है। दूसरे अखबार इस खबर को पचा गए। आप समझ सकते हैं कि सामान्य स्थिति में यह खबर दूसरे अखबारों में कितना महत्व पाती पर कोरोना जो न कराए।

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