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World Population Day 11 July : विश्व जनसंख्या दिवस पर बढ़ती आबादी के बोझ तले होती संसाधनों की बर्बादी - ज्ञानेन्द्र रावत

Shiv Kumar Mishra
11 July 2020 8:31 AM GMT
World Population Day 11 July : विश्व जनसंख्या दिवस पर बढ़ती आबादी के बोझ तले होती संसाधनों की बर्बादी - ज्ञानेन्द्र रावत
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आबादी का गणित हमेशा से ही दुनिया को बदलने में अहम भूमिका निबाहता रहा है। सच है कि आज बढ़ती आबादी का संकट दुनिया के लिए भयावह चुनौती बन चुका है। इस बारे में विख्यात आस्ट्र्ेलियन वैज्ञानिक और आस्ट्र्ेलियन नेशनल यूनीवर्सिटी में माइक्रोबायलाॅजी के प्रोफेसर 95 वर्षीय फ्रैंक फेनर की एक दशक पहले दी गयी चेतावनी काफी महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार -''मानव जाति जनसंख्या विस्फोट और प्राकृतिक संसाधनों की बेलगाम खपत को बर्दाश्त नहीं कर पायेगी। नतीजतन अगले सौ सालों में धरती पर से मानव जाति का खात्मा हो जायेगा। संभवतः अगले 100 सालों के अंदर होमो सेपियंस यानी मानव लुप्त हो जायेंगे। अनेक अन्य जीवों का भी खात्मा हो जायेगा। इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता। मेरे हिसाब से अब बहुत देर हो चुकी है। मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि लोग कुछ करने की कोशिश में हैं बल्कि वे इसकी तरफ से अब भी मुंह मोड़े हुए हैं। मानव जाति अब एन्थ्रोपोसीन नामक अनधिकृत वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर चुकी है। इस युग को औद्यौगिक युग के बाद के समय को कहा गया है। पृथ्वी पर इसका प्रभाव धूमकेतु या हिमयुग के पृथ्वी पर पड़ने वाली टक्कर जैसा पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन की भी मानव जाति के खात्मे की दिशा में उल्टी गिनती के लिए अहम भूमिका है। जलवायु परिवर्तन महज एक शुरूआत है जबकि हमें मौसम में होने वाले बदलाव काफी पहले दिखने शुरू हो गए थे। संभवतः मानव जाति भी उसी राह पर चल रही है जिस पर वे तमाम प्रजातियां चलीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं।''

इस बारे में दुनिया के वैज्ञानिकों में अलग-अलग मत हैं लेकिन अधिकांश वैज्ञानिक और पारिस्थितिकीविद फेनर के मत से सहमत हैं। आॅप्टीमम पाॅपुलेशन ट्र्स्ट के उपाध्यक्ष सिमाॅन रास कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का नुकसान और तेजी से बढ़ती आबादी के कारण मानव जाति भीषण चुनौतियों का सामना कर रही है। इसका मुकाबला कर पाना आसान नहीं होगा। यह खतरनाक संकेत भी है। लेकिन कुछ मानते हंै कि बढ़ती आबादी और तेजी से हो रहे संसाधनों के खात्मे से लोगों में जागरूकता आयेगी, नतीजतन क्रांतिकारी बदलाव आयेंगे। एक अन्य विद्वान जेम्स लवलाॅक ने 2006 में ही चेतावनी दी थी कि अगली सदी में ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनिया की आबादी 50 करोड़ तक सिमट सकती है। उनके अनुसार जलवायु परिवर्तन को रोकने का कोई भी प्रयास इस समस्या को हल करने में कामयाब नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र् की मानें तो हमारे देश की आबादी जो अभी एक अरब 35 करोड़ के आसपास है, सदी के उत्तरार्द्ध शुरू होने तक एक अरब 50 करोड़ पार कर जायेगी। जहां तक दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होने के गौरव का सवाल है तो यह कीर्तिमान 2027 के आखिर में ही हासिल कर लेंगे। दुनिया के स्तर पर देखें तो 1987 में दुनिया की आबादी पांच अरब थी। इसमें हर साल 80 लाख की दर से बढ़ोतरी हो रही है। 2050 तक इसके 9.8 अरब होने का अनुमान है जो सदी के अंततक साढ़े बारह अरब का आंकड़ा पार कर जायेगी। इसमें भी दो राय नहीं है कि आबादी की चुनौतियों को बढ़ाने में प्रशासनिक विफलताओं का बहुत बड़ा योगदान है। कारण बढ़ती आबादी दुनिया के देशों के लिए अब लाभांश नहीं रही बल्कि अब वह सीमित संसाधनों पर बोझ बनती जा रही है। बढ़ती आबादी का खाद्य संकट गहराने में योगदान जगजाहिर है। ऐसी स्थिति में बढ़ते शहरीकरण के चलते लागोस, साओ पाउलो और दिल्ली जैसे कई महानगर बनेंगे। जाहिर सी बात है कि इसका दबाव पर्यावरण पर पड़ेगा ही।

गौरतलब है कि उस स्थिति में तो और खतरे बढ़ जाते हैं जबकि पर्यावरण प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंचने के कारण प्राकृतिक संसाधन खत्म होने के कगार पर पहुंच गए हेंा। स्थिति यह है कि वह चाहे भूजल हो, नदी जल हो, वायु हो, सभी भयावह स्तर तक प्रदूषित है। व्यावसायिक व निजी हितों की खातिर भूजल का अंधाधुंध दोहन जारी है बिना यह सोचे कि जब यह खत्म हो गया तब क्या होगा। हरित संपदा सड़क, रेल, कल-कारखानों के निर्माण यज्ञ में समिधा बन रही है। झील, तालाब, बाबड़ी, कुंए, पोखर का अतिक्रमण के चलते नामोनिशान मिटता जा रहा है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो रहा है। कृषि योग्य भूमि आवासीय जरूरतों की पूर्ति हेतु दिनोंदिन घट रही है। विडम्बना यह कि यह सब सरकारों के संज्ञान में हो रहा है। एैसी स्थिति में यदि वैश्विक तापमान बढ़ोतरी पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे तो इसकी प्रबल आशंका है कि तापमान में बढ़ोतरी अपने चरम पर जा पहुंचेगी, नतीजतन ध्रुवों की बर्फ जो पहले ही से तेजी से पिघल रही है, अंततः पिघल जायेगी और समुद्र का जलस्तर बढ़ जायेगा। इसका दुष्परिणाम एक करोड़ प्रजातियों में से तकरीब 20 लाख प्रजातियों के लुप्त होने के रूप में सामने आएगा।

भारत को लें, यहां 1951 से परिवार नियोजन कार्यक्रम जारी हैं, वह किस हद तक प्रभावी रहा, यह जगजाहिर है। 2000 में सरकार ने जनसंख्या आयोग का गठन किया। 2017 में परिवार विकास योजना भी लांच की। इसका भी हश्र परिवार नियोजन कार्यक्रम जैसा ही रहा। इसमें हाल-फिलहाल किसी बदलाव की उम्मीद दिखाई नहीं देती। संयुक्त राष्ट्र् की मानें तो देश में जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों का दुखद परिणाम ही कहा जायेगा कि सदी के अंत तक पहुंचते पहुंचते भारत की आबादी का आंकड़ा 150 करोड़ को पार कर जायेगा जबकि कुछ जानकारों के अनुसार यह आंकड़ा 2 अरब 70 करोड़ पार कर जायेगा। उस दशा में जबकि जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों के चलते चीन की आबादी 110 करोड़ पर रुक जायेगी। यह चीन की एक बच्चा नीति का परिणाम है। इसके तहत 2050 तक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की जनसंख्या भारत की आबादी का केवल 65 फीसदी रह जायेगी। वह बात दीगर है कि विसकाॅसिंन यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर यी फुजियान के अनुसार आगे चलकर बुजुर्ग आबादी चीन के आर्थिक विकास में बहुत बड़ी बाधा बनेगी।

संयुक्त राष्ट्र् की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1968 में आयोजित अंतरराष्ट्र्ीय मानवाधिकार सम्मेलन में अभिभावकों को बच्चों की संख्या चुनने का अधिकार मिला था। इस अहम बदलाव के जरिये महिलाओं को बच्चे को जन्म देने और अनचाहे बच्चे को दुनिया में लाने से रोकने का अधिकार मिला। साथ ही लड़के-लड़कियों के सशक्तिकरण, सभी को प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराने, यौनजनित बीमारियों के प्रति जागरूकता फैलाने व बालिकाओं के अधिकारों के लिए कानूनी प्रावधानों पर भी जोर दिया गया था। लेकिन जो हुआ, वह सबके सामने है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि 2050 तक दुनिया के जिन नौ देशों में दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी की बढ़ोतरी होगी, उनमें भारत शीर्ष पर है। उस सूची में भारत के बाद नाइजीरिया, पाकिस्तान, डेमोक्रेटिेक रिपब्लिकन आॅफ कांगो, इथियोपिया, तंजानिया, इंडोनेशिया, मिस्र और अमरीका हैं। इन देशों को बूढ़ी होती आबादी की चुनौतियों से भी जूझना होगा।

इसमें दो राय नहीं कि हमारे यहां जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को नाकाम करने में जाति-धर्म के नाम पर अपनी रोटी सेंकने वाले स्वयंभू ठेकेदारों और राजनैतिक दलों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। इसी के बलबूते वे सत्ता के शीर्ष पर पहुंचते रहे हैं। इस दिशा में कानून का अभाव हमारे राजनैतिक नेतृत्व की विफलता का सबूत है। लोक कल्याणकारी सरकारों का दायित्व है कि वह देशहित को सर्वोपरि मान धर्म-जाति के मोह को त्याग कठिन निर्णय लंे, यह जानते हुए कि जनसंख्या वृद्धि; राष्ट्र् के सर्वांगीण विकास में सबसे बड़ा अभिशाप है। जनसंख्या नियंत्रण की प्रभावी नीति के बिना वह चाहे रोजगार, भोजन, आवास, चिकित्सा, शिक्षा, कुपोषण, स्वास्थ्य, सुरक्षा, जैसी मूलभूत आवश्यकताए हों या फिर प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा-सुरक्षा हो, पर्यावरण, प्रदूषण, आवागमन, सिंचाई, पेयजल, संचार या विज्ञान, तकनीक या फिर विकास आदि के अन्य सवालों से निपटना आसान नहीं है। जनसंख्या वृद्धि रूपी नासूर का इलाज अब बेहद जरूरी है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया के मशहूर वैज्ञानिक स्टीफन हाॅकिंग की चेतावनी आने वाले दिनों में सही साबित होगी कि पृथ्वी पर टिके रहने में हमारी प्रजाति का कोई दीर्घकालिक भविष्य नहीं है। यदि मनुष्य बचे रहना चाहता है तो उसे 200 से 500 साल के अंदर पृथ्वी को छोड़कर अंतरिक्ष में नया ठिकाना खोज लेना होगा।

Shiv Kumar Mishra

Shiv Kumar Mishra

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