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प्रो दिग्विजय नाथ झा
भले ही कोई कुछ भी दावा करे, पर यह कटु सत्य है कि सरकारें प्रायः अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए ही नागरिकों के अधिकारों से ज्यादा नागरिकों के कर्तव्यों की बातें करने लगती है, बावजूद इसके कि जब संविधान वर्ष 1950 में लागू हुआ तो उसमें नागरिकों के कर्तव्यों को नहीं बताया गया था, किंतु पहली बार इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए मौलिक कर्तव्यों के अध्याय-4ए को शामिल किया और इसके लिए अनुच्छेद 51ए संविधान में जोड़ा गया। हालांकि, 42वें संविधान संशोधन में बिल्कुल भी यह जिक्र नहीं है कि जो भारतीय अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा, उसे अपना मौलिक अधिकार नहीं मिलेगा। एक बात और स्पष्ट है कि मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्यों में चोली दामन का साथ संविधान नहीं मानता है, यानी कि इसे संविधान में स्वीकार नहीं किया गया है कि जब तक आप कर्तव्य नहीं करेंगे तब तक अधिकार के पात्र नहीं होंगे। बेशक ही भारतीय संस्कृति में कर्तव्यों को महत्ता दी गई है, लेकिन भारतीय संविधान अधिकारों के मुकाबले कर्तव्यों को महत्व नहीं देता है। पर यदि देश को प्रगति के पथ पर दौड़ना है तो नागरिकों के कर्तव्यों की चर्चा अधिक करने के बजाय नागरिकों के अधिकारों की हिफाजत हर संभव सुनिश्चित करने होंगे। विगत सालों में सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए जो कई फैसले दिए हैं, वह पूरे विश्व में बहुत इज्जत से देखे जाते हैं।
यूरोप के मानवाधिकार न्यायालयों में पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट में भारत के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को नजीर मानकर कई अहम फैसले दिए गए हैं। बांग्लादेश में जब सैनिक तानाशाह जियाउर रहमान ने इस्लाम को राज्य का धर्म घोषित किया, उस वक्त वहां कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत के सुप्रीम कोर्ट के केशवानंद भारती के फैसले को आधार मानते हुए जियाउर रहमान के फैसले को निरस्त कर दिया था। परंतु इसे विडम्बना ही कहेंगे कि सबरीमाला, अनुच्छेद 370, राफेल लड़ाकू विमान, सुप्रीम कोर्ट में जूनियर असिस्टेंट पद पर कार्यरत महिला के यौन उत्पीड़न, नागरिकता संशोधन अधिनियम, निःशुल्क कोरोना वायरस की जांच व आर.टी.आई. तथा अंकेक्षण के वैधानिक प्रावधानों से पूर्णतः मुक्त पी.एम. केयर्स फंड सरीखे मामले में भारत की बड़ी आबादी सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले की प्रशंसक नहीं है और यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति का अधिकार सिविल सोसाइटी के लिए इन दिनों बड़ा मुद्दा बना हुआ है। यद्यपि मुझे नहीं पता कि पी.एम. केयर्स फंड के सृजन के पीछे श्रीयुत् नरेन्द्र दामोदरदास मोदी की मंशा क्या है, परंतु इतना तो शीशे की तरह साफ है कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आई.सी.एम.आर.) को बेची गई चीन से आयातित कोविड-19 रैपिड टेस्ट किट में बहुत मोटा मुनाफा कमाया गया है। इस गुणवत्ता रहित किट की भारत में आयात लागत 245 रूपये ही है, लेकिन सत्ता संरक्षित भारतीय कंपनी द्वारा 145 फीसदी के मोटे मुनाफे के साथ इसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद को 600 रूपए प्रति किट बेचा गया है। इससे कतई भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह समय केन्द्रीय हुक्मरानों के लिए असाधारण काम करने का है, लुटेरों को संरक्षण प्रदान करने का नहीं है। वैसे हमारी कौन कहे, डोनाल्ड ट्रंप या शी जिनपिंग अथवा कि भारत के प्रधानमंत्री तक नहीं बता सकते कि मानव को कोरोना के कहर से निजात कब मिलेगी और आम लोगों की जिंदगी कब सहज एवं स्वतंत्र हो सकेगी, इसे न तो डोनाल्ड ट्रंप या शी जिनपिंग तय कर सकते हैं और न ही भारत के प्रधानमंत्री।
यह तय करनेवाले तो कोई दूसरे ही हैं जो कैमरे की चमक और खबरों की उठापटक से दूर ऐसे अनोखे मिशन पर लगे हैं, जो दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं देखा। बेशक, मौजूदा कोरोना प्रकोप के बीच अपने कई दिव्य संबोधनों में भारत के प्रधानमंत्री ने जब केन्द्र की एन.डी.ए. सरकार की नाकामियों का बगैर जिक्र किए ताली-थाली बजाने एवं दीपक प्रज्वलित करने की नागरिकों से अपील की तो लगा कि सतयुग में मत्स्य, कुर्म, वराह व नृसिंह और त्रेता में वामन, परशुराम व पुरूषोत्तम श्रीराम तथा द्वापर में श्रीकृष्ण के बाद कलियुग में श्रीयुत् नरेन्द्र दामोदरदास मोदी अवतरित हुए हैं, परंतु आश्चर्यचकित करनेवाली बात है कि जस्टिस कुरियन जोसेफ, मदन बी लोकुर, ए.के. गांगुली, मार्कण्डेय काटजू व ए.पी. शाह देश की शीर्ष अदालत को श्री मोदी के प्रभाव से मुक्त रहने की सलाह दे रहे हैं और कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमती सोनिया गांधी कोरोना संकट से निपटने के लिए मोदी जी को सलाह दे रही हैं। जबकि, युगों-युगों के कालखंड में कोई श्रीयुत नरेन्द्र दामोदरदास मोदी सरीखा दिव्य पुरूष जन्म लेता है। यद्यपि वर्ष 2019 में 23 करोड़ 50 लाख भारतीयों ने ही संसदीय चुनावों में मोदीजी को अपना समर्थन दिया, परंतु 14 अप्रैल, 2020 को मोदीजी ने 130 करोड़ भारतीयों से आयुष मंत्रालय के सुझावों पर अमल करने का आह्वान किया। बहरहाल, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली का बगैर जिक्र किए पी.एम. ने कोरोना महामारी से अग्रिम मोर्चे पर जंग लड़ रहे कोरोना वॉरियर्स को सलाम किया।
सचमुच, बाबू नरेन्द्र दामोदरदास मोदी की ब्रांडिंग स्केल, मैनेजमेंट स्केल, सेल्स व मार्केटिंग स्केल का कोई तोड़ नहीं। कोरोना के बढ़ते संकट के बीच केन्द्र की सरकार ने बेहद ही अनोखे अंदाज में एलान किया कि कोरोना वायरस से संक्रमित आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लाभार्थीयों को मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान की जाएगी तथा आइसोलेशन का खर्च भी सरकार उठाएगी, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि भारत में जबसे कोरोना संक्रमण के मामले बढ़े हैं आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत मरीजों की अस्पताल में भर्ती होने का आंकड़ा 30 फीसदी गिर चुका है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण के दावे पर यकीन करें तो 25 मार्च, 2020 से 15 मई, 2020 के बीच आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के अंतर्गत अस्पतालों में भर्ती होनेवाले कैंसर से पीड़ित मरीजों की तादाद में 57 फीसदी, हृदय रोग से पीड़ित मरीजों की तादाद में 76 फीसदी, प्रसूति एवं स्त्री रोग से व्यथित मरीजों की तादाद में 26 फीसदी, सांस की समस्याओं से जूझ रहे मरीजों की तादाद में 80 फीसदी और हद तो यह कि इमरजेंसी चिकित्सा वार्ड में 12 घंटे से कम समय के लिए भर्ती किए जानेवाले मामलों में भी 33 फीसदी की अभूतपूर्व गिरावट आई है और यह स्थिति सिर्फ व सिर्फ इसलिए आई कि देश की बीमार चिकित्सा व्यवस्था का इलाज मरीजों की सब्सिडी में पीएम को दिखने लग गयी। अन्यथा, इस हकीकत से भला कौन इंकार कर सकता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में दुनिया के 195 देशों की रैकिंग में भारत 154वें स्थान पर है और यहां तक कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बांग्लादेश, नेपाल, घाना व लाइबेरिया से भी बदतर है। भारत के कुल 472 मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल शिक्षकों के तकरीबन चालीस फीसदी पद बीते दस सालों से रिक्त पड़े हैं। भारत में सालाना 2 करोड़ 60 लाख सर्जरी ही की जाती है, जबकि 6 करोड़ 50 लाख सालाना सर्जरी की दरकार है। भारत के स्वास्थ्य मंत्री ने राज्यसभा में स्वयं ही स्वीकार किया है कि देश में चौदह लाख डॉक्टरों की आज की तारीख में कमी है और भारत में प्रतिवर्ष लगभग 55 सौ डॉक्टर ही तैयार हो पाते हैं।
विशेषज्ञ डॉक्टरों के मामले में तो देश की स्थिति और भी हास्यास्पद है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार सर्जरी, स्त्री रोग व शिशु रोग सरीखे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50 फीसदी डॉक्टरों की कमी है और ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है। भारत वर्तमान में 2.61 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, पर हैरानी की बात है कि भारत अपनी कुल जीडीपी का मात्र 1.15 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। वर्ष 2020-21 में मेडिकल सेक्टर के लिए भारत सरकार का बजट 69 हजार करोड़ रूपए का है, यानी कि भारत की सरकार स्वास्थ्य मद में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति सिर्फ 92 रूपए 30 पैसे खर्च करती है, जबकि 2020-21 में भारत में प्राइवेट हेल्थ सेक्टर का बजट 8 लाख करोड़ रूपए का है और कटु सत्य तो यह कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार होता है, जहां कि हेल्थ सेक्टर मुनाफे का सबसे बड़ा बाजार है और यही एकमात्र वजह है कि भारत में प्राइवेट अस्पतालों की संख्या तकरीबन 80671 है, जबकि सरकारी अस्पतालों की कुल संख्या 23582 है, पर इन दोनों प्रकार के अस्पतालों में से सिर्फ 536 ही भारतीय हेल्थ गुणवत्ता परिषद के मानकों के अनुरूप है। भारत में 2500 की आबादी पर एक नर्स की मौजूदगी है, जबकि आदर्श अनुपात 500 की आबादी पर एक नर्स की है। भारत के सरकारी अस्पतालों में 1833 मरीजों पर सिर्फ एक बेड उपलब्ध है। आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत बीमा कराने की शर्तें इतने जटिल हैं कि आज की तारीख में भी 86 फीसदी भारतीय ग्रामीण मरीजों और 82 फीसदी भारतीय शहरी मरीजों को किसी तरह का नियोक्ता प्रायोजित या सरकारी फंड वाले बीमा उपलब्ध नहीं है। प्रति वर्ष तकरीबन साढ़े छह करोड़ भारतीय स्वास्थ्य के मद में खर्च की वजह से कर्ज के जाल में फंस जाते हैं। वर्ष 2013 और 2019 के बीच एक बार अस्पताल में भर्ती होने का औसतन चिकित्सा खर्च प्रति भारतीय शहरी मरीज 176 फीसदी एवं प्रति भारतीय ग्रामीण मरीज 160 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया है। फिर ताज्जुब क्या कि बीमा के बाहर जेब से किए जानेवाले खर्च 60 फीसदी से ज्यादा हैं जो इस मद में दुनिया के सबसे ज्यादा खर्च में से एक हैं। भारतीय परिवारों की अपनी जेब से स्वास्थ्य खर्च में सालाना अनुमानित हिस्सेदारी चालीस अरब डॉलर के आसपास है, बावजूद इसके कि हिन्दुस्तान न सिर्फ डायबिटीज व हृदय रोग की मंडी है, अपितु एचआइबी एड्स व तपेदिक के मामले में भी यह शीर्ष पर है। भारत के हेल्थ सेक्टर में इन दिनों पचास फीसदी नर्सों की कमी है और दिलचस्प तो यह कि भारत में मेडिसिन के डिस्ट्रिब्यूटर की तादाद तकरीबन दस हजार है, जबकि वाइन डिस्ट्रिब्यूटर की संख्या 72 हजार के आसपास है, दवाओं के रिटेलर की संख्या एक लाख पचीस हजार के करीब है, जबकि दारूओं के रिटेलर की तादाद 6 लाख 30 हजार है, दवा स्टॉकिस्ट की संख्या करीब 65 हजार है, पर शराब स्टॉकिस्ट की तादाद साढ़े तीन लाख से अधिक है। दवा की रजिस्टर्ड दुकानों की तादाद भारत में तकरीबन 5 लाख 50 हजार है, जबकि वाइन की रजिस्टर्ड दुकानों की संख्या इंडिया में लगभग 19 लाख 80 हजार है। बहरहाल, फ्रंटलाइन वॉरियर्स के लिए बेहद जरूरी पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट किट्स (व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण) की देश में उपलब्धता की जानकारी को बगैर साझा किए पी.एम. जब 24 मार्च, 2020 की रात को भारत में सम्पूर्ण लॉकडाउन का ऐलान कर रहे थे तो सचमुच ही मुझे ऐसा लगा कि भगवान भोलेनाथ डॉयरेक्ट कैलाश पर्वत से लाइव हैं। पीएम ने भारतीयों को घरों से बाहर नहीं निकलने और सोशल डिस्टेंसिंग का अक्षरशः पालन करने की सलाह दी तथा सोशल डिस्टेंसिंग को कोरोना वायरस को नेस्तनाबूद करने का एकमात्र रामवाण तरकीब करार दिया और फिर देष के 130 करोड़ लोगों को सोशल साइंस का पाठ पढ़ाकर वह अपने पीएम आवास में वापस लौट गए।
यद्यपि, मुझे तो नहीं लगता कि विगत् पांच हजार वर्षों के इतिहास में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के अलावा कोई नरेन्द्र दामोदरदास मोदी सरीखा दिव्य व्यक्ति भारत की भूमि पर अवतरित हुआ है। न्यूजीलैंड और सिंगापुर की सरकारों ने अपने देश में लॉकडाउन को सख्ती से लागू करने के लिए अपने अवाम को तीन दिनों का वक्त दिया, जबकि भारत के प्रधानमंत्री ने देश में लॉकडाउन को सख्ती से लागू करने के लिए भारतीयों को महज तीन घंटे का वक्त दिया और नोटबंदी के अपने फैसले की याद ताजा कर दी। बेशक, नोटबंदी की तरह लॉकडाउन के नतीजे भी उत्साहित करने वाले नहीं दिख रहे हैं और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के गर्भ से उत्पन्न ताली-थाली बजाने एवं दीप प्रज्जवलित करने के मोदी सर के देशी नुस्खे से कोरोना का प्रकोप थमने का नाम नहीं ले रहा तथा लॉकडाउन की बलिवेदी पर प्राण देनेवालों की तादाद लगातार बढ़ रही है और सरकार की संवेदनशीलता पर निरंतर सवाल खड़े हो रहे हैं। बतौर पीएम 27 अप्रैल, 2017 के शिमला के अपने संबोधन में जब उन्होंने हवाई चप्पलधारकों को हवाई जहाज में सफर कराने के सपने दिखाए थे तो किसी चप्पलधारकों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि 2017 के पीएम के 2020 के किसी बेतुके फैसले की वजह से हजारों हवाई चप्पलधारकों के सपने रेलवे ट्रैक व नेशनल हाईवे पर सदा-सदा के लिए दफन हो जाएंगे। माफ कीजिएगा! डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 के तहत सम्पूर्ण लॉकडाउन के ऐलान से पूरे देश में उत्पन्न कुव्यवस्था के जिम्मेवार सिर्फ व सिर्फ प्रधानमंत्री हैं।
मुझे यहां कहने में बिल्कुल भी कोई हिचक नहीं कि बगैर राज्यों, विपक्ष के नेताओं व नियोक्ताओं से विमर्श किए डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 के तहत बीते 53 दिनों में केन्द्र की सरकार ने आदेशों की झड़ी लगा दी, पर नियोक्ताओं, कामगारों, कृषकों व मजबूरों को कोई बड़ी रियायतें नहीं दी। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एक मालगाड़ी से सोलह मजदूरों के कट जाने की हृदय विदारक घटना के पश्चात् मोदी के गृह राज्य समेत भारत के कई राज्यों में श्रमिक हितों के खिलाफ लाए गए अध्यादेश बता रही है कि श्रमिकों के मसले पर केन्द्र की सरकार कितनी लापरवाह और संवेदनहीन साबित हुई है। इस घटना ने श्रमिकों को उनके घरों तक सुरक्षित पहुंचाने के इंतजामों के सरकारी दावों की पोल खोल दी है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि श्रमिक देश में इन दिनों भूखे तड़प रहे हैं, पर साधारण पृष्ठभूमि से आए भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नए पीएम आवास के निर्माण पर 10 हजार करोड़ रूपए व पीएम की ट्रैवल जरूरतों को पूरा करने के लिए नए विमान की खरीद पर साढ़े आठ हजार करोड़ रूपए खर्च करने के अपने फैसले पर अडिग हैं तथा नवसृजित पीएम केयर फंड में जमा रकम की जानकारी भारतीयों से साझा नहीं कर रहे हैं, जबकि प्रवासी श्रमिकों से रेल सफर किराये तक मनमर्जी वसूल रहे हैं। मैं पूछता हूं कि 25 मार्च, 2020 से लेकर आज की तारीख तक आखिर क्यों अपनी जान को हथेली पर लेकर मजदूर पैदल या कि साइकिल पर अथवा कि अन्य वाहनों में छिपकर निकलने को मजबूर हैं ?
हकीकत यह है कि सड़कों-राजमार्गों पर पुलिस यमराज के वेश में जागरूकता फैलाते हुए लोगों से घर में ही रहने की लगातर अपील कर रही है और अबतक भी देश के कई हिस्सों में घरों से बाहर निकलनेवालों का लाठियों से स्वागत कर रही है, परंतु मजबूरों के लिए पुलिस न तो रोटी का जुगाड़ कर रही है और न ही घरों में कैद कोरोना संक्रमितों का इलाज करा रही है। किराये के कमरे में कैद श्रमिकों से फिजिकल डिस्टेंसिंग के पालन की अपेक्षा सिवाय पीएम के हम और आप तो बिल्कुल भी नहीं कर सकते हैं। थोथी आत्म प्रशंसा द्वारा खुद को कुशल प्रबंधक बताकर मोदी अपने मुंह मियां मिट्ठु बन रहे हैं और कोरोना वायरस के संक्रमण से अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस व स्पेन सरीखे विकसित देशों को हुए व्यापक नुकसान की जानकारी लगातार भारतीयों से साझा कर रहे हैं, पर विकास के जिस गुजरात मॉडल को बेचकर मोदी पीएम बने, कोरोना के संक्रमण से हुई उस गुजरात की दुर्दशा का मोदी कभी जिक्र तक नहीं कर रहे हैं और सर्वाधिक शर्मनाक तो यह कि गुजरात में कोरोना के दुष्प्रभाव की हकीकत बयां करनेवाले आईएएस अधिकारियों की छुट्टी तक कर रहे हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि कोरोना के दुष्प्रभाव से निपटने के लिए सरकार ने सही समय पर सख्त फैसले किए, पर हम पीएम के इस दावे से कतई भी सहमत नहीं है, क्योंकि भारत में कोरोना ने 30 जनवरी, 2020 को ही दस्तक दे दी थी और केरल में कोरोना का जब पहला मामला सामने आया तो राहुल गांधी एवं ममता बनर्जी की पार्टी के सांसदों ने कोरोना पर संसद में चर्चा कराने की सरकार से मांग की, तो उनकी मांग का सरकार ने माखौल उड़ाया था और श्रीयुत् नरेन्द्र दामोदरदास मोदी नमस्ते ट्रंप इवेंट में लगे थे। 11 मार्च, 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैनडेमिक घोषित करने के बावजूद 22 मार्च, 2020 तक देश के गृहमंत्री अमित शाह मध्यप्रदेश के कांग्रेस की सरकार को नेस्तनाबूद करने में जुटे रहे और इस बीच देश में कोरोना संक्रमितों की तादाद में पांच सौ गुणा की बढ़ोत्तरी हुई। 12 मई, 2020 के कोरोना संक्रमण काल के अपने 33 मिनट के 5वें राष्ट्र के नाम संबोधन में श्रमिकों के त्याग एवं तपस्या को प्रधानमंत्री ने नमन करके त्याग व तपस्या सरीखे शब्दों की गरिमा को आहत किया है, क्योंकि सरकारी निर्णयों की नाकामी से हुई किसी भी मौत को कतई भी मृतकों की त्याग और तपस्या करार नहीं दे सकते हैं।
सवाल बड़े तीखे हैं, पर स्वयं हम भी एक श्रमिक हैं, इसलिए अपने देश के प्रधानमंत्री से इतना तो जानने का हक रखते ही हैं कि यूपी, एमपी एवं गुजरात सरकार के नए श्रमिक कानून क्या मालगाड़ी के चपेट में आने से एमपी के श्रमिकों की हुई मौत को सरकार की ओर से दी गई श्रद्धांजलि है? मोदी जी! आप कोई शहंशाह नहीं बल्कि एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि के हैसियत से भारत के प्रधानमंत्री हैं और आपके अचानक के अपरिपक्व फैसले से बीते सवा तीन सालों में दूसरी बार हजारों निर्दोष भारतीयों की मौत हुई है। इससे कतई भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि लॉकडाउन के प्रथम चरण में सरकार ने सिर्फ व सिर्फ अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए एक सुनियोजित रणनीति के तहत तबलीगी प्रोपेगेंडा को प्रोजेक्ट किया और 57 इस्लामिक देशों के संगठन एवं अंतराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ने जब भारत में माइनॉरिटी को लेकर सरकार के इरादे पर सवाल खड़े किए तो आनन-फानन में पीएम समेत आरएसएस सुप्रीमो मोहन भागवत 57 इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन के समक्ष नतमस्तक हो गए। हालांकि, अमित शाह कहां चुप बैठनेवाले थे, उन्होंने लॉकडाउन के तीसरे चरण में ममता बनर्जी के खिलाफ पूरे देश में दुष्प्रचार अभियान छेड़ दिया औैर अब आगे-आगे देखिए होता है क्या ? मुझे नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के क्रियाकलापों के मद्देनजर प्रो0 वसीम बरेलवी की एक शेर यहां याद आ रही है,
''आप बस किरदार हैं अपनी हदें पहचानिए,
वरना फिर इक दिन कहानी से निकाले जाएंगे।''
सर्वाधिक शर्मनाक तो यह कि जिस दिन लॉकडाउन के कारण गिरती अर्थव्यवस्था को संबल देने के लिए पीएम कथित 20 लाख करोड़ रूपए के वित्तीय पैकेज का एलान कर रहे थे, उस दिन देश के वित्तमंत्री महोदया कोरोना संक्रमण काल में पीएम की लोकप्रियता में 8 फीसदी के इजाफे का बखान कर रही थी, जबकि पीएम के गृहराज्य में श्रमिक सड़कों पर लगातार हिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं और हिंसक प्रदर्शन का कॉवरेज करनेवाले पत्रकारों पर राजद्रोह के मुकदमें दर्ज हो रहे हैं। अपनी गांठ से 20 लाख करोड़ रूपए निकालने के नाम पर बीते तीन दिनों में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने आंकड़ों के साथ जो बाजीगरी की है, वह बेहद ही निराले हैं। हमारे आदरणीय देशवासियों! कर्ज कोई कोरोना के मर्ज की दवा नहीं है। पर 20 लाख करोड़ रूपए के पैकेज में रेहरी-पटरी वालों के लिए कर्ज, कृषकों के लिए कर्ज, एमएसएमई के लिए कर्ज यानी कि कर्ज ही कर्ज के प्रस्ताव मात्र हैं।