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कांग्रेस की घेराबंदी से सभी दलों की रणनीति गड़बड़ाई
लखनऊ प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
उत्तर प्रदेश में चुनाव अभी 2017 में होना है. लेकिन उसकी तैयारियां जिस प्रकार के हर दल कर रहा है, उससे एक बात तो साफ़ है कि इस बार चुनावी महाभारत उत्तर प्रदेश में ही देखने को मिलेगी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल में किये हुए विकास कार्य के बल पर चुनाव लड़ेंगे. इसकी घोषणा वे अपनी लगभग हर सभाओं में करते हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में वे अपना प्रचार रथ भी निकालने जा रहे हैं. जिसकी बागडोर किसी और को न देकर वे खुद सम्भालेंगे. इसका परिणाम भी सामने आएगा. जैसा कि समाजवादी पार्टी के दूसरे नेताओं को मैं देख-सुन पा रहा हूँ, उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौपी जा रही है, वे सिर्फ खाना-पूर्ति कर रहे हैं. इस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने हर जिले में अपने पर्यवेक्षक भेजने शुरू कर रहे हैं. इन पर्यवेक्षकों का यह हाल है कि जिस जिले में वे जाते हैं, उस जिले के बड़े नेता उनके लिए हर सुख-सुविधा का इंतजाम करते हैं, जिनकी उन्हें जरूरत होती है. इस तरह से पर्यवेक्षकों द्वारा जो रिपोर्ट अखिलेश यादव एवं सपा मुखिया मुलायम सिंह को भेजी जायेगी, उसकी सत्यता कितनी होगी, इसके लोहिया जी ही मालिक हैं. कांग्रेस के मैदान में मजबूती से उतरने के कारण सपा पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ने की सम्भावना है. सपा के तमाम वोटर इसी कांग्रेस से टूट कर आएं हैं. यदि कांग्रेस मजबूत होती है, तो सपा को उसके नुक्सान की भरपाई कैसे करनी होगी, इस पर रणनीति बनानी होगी.
यदि हम भाजपा की बात करें, तो उत्तर प्रदेश के चुनाव की बागडोर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हाथ में ले ली है. इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मदद लेनी शुरू कर दी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा का जमीनी एवं सामाजिक संगठन है, जो इस तरह के कार्यक्रमों में सिद्धहस्त है. उसने भी लगभग अपनी रणनीति तय कर रखी है. भाजपा की जमीनी हकीकत से नरेंद्र मोदी को अवगत करवा दिया है. भाजपा की ओर से चुनाव किसी के नेतृत्व में लड़ा जाए, लेकिन यदि भाजपा की सरकार बनती है, तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ही बनेगी. उन्हें मानव विकास संसाधन मंत्रालय से हटाने की प्रक्रिया भी इसी रणनीति के तहत की गयी है. संघ एवं भाजपा की रणनीति के मुताबिक़ आधी आबादी पर उनका फोकस अधिक रहेगा. कांग्रेस की हालिया दिखी रणनीतियों से भाजपा के बार सकते में हैं. क्योंकि उत्तर प्रदेश में भाजपा का जो वोटर दिख रहा है, वह कांग्रेस से ही टूट कर आया है. नरेंद्र मोदी के दो सालों के कार्यकाल की उपलब्धियों से निराश यदि किसी दल की ओर जाने का मन बनाया, तो वह निश्चित रूप से कांग्रेस ही होगी.
यही बात उत्तर प्रदेश के सशक्त दल बसपा के बारे में भी कहा जा सकता है. कांग्रेस के मजबूत होने पर सबसे ज्यादा नुकसान यदि किसी दल को होना है, वह इसी दल को है. इसका अधिकांश मतदाता पहले कांग्रेस का मतदाता हुआ करता था. जिस तरह से बसपा में भगदड़ मची है, उससे एक बात साफ़ हो गयी है कि बसपा का मूल मतदाता भी विकल्प के बारे में सोचने लगा है. ऐसे समय कांग्रेस से अधिक अच्छा विकल्प उसके सामने और कोई नहीं होगा.
इस तरह से जैसे –जैसे 2017 नजदीक आ रहा है. सभी दलों द्वारा रणनीति तय की जा रही है, उससे धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश के चुनाव की तस्वीर साफ़ हो रही है. राजबब्बर को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौपना उसी रणनीति का एक हिस्सा है. राजबब्बर के नाम से आज भी भीड़ इकट्ठा हो सकती है. बिना अतिरिक्त प्रयास के हो सकती है. इस भीड़ को वोट में परिवर्तित करने की जिम्मेदारी शीला दीक्षित की है. जो एक मझी हुई खिलाड़ी हैं. अब देखना यह है कि वे अपनी इस काबिलियत को वोट में कितना बदल पाती हैं.
प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गाँधीवादी-समाजवादी चिंतक, पत्रकार व्
इंटरनेशनल को-ऑर्डिनेटर – महात्मा गाँधी पीस एंड रिसर्च सेंटर घाना, दक्षिण अफ्रीका