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रवि कुमार के फेसबुक पेज पर एक पोस्ट देखा। रांची के सेवासदन अस्पताल के बाहर एक नौजवान पेड़ से लटक रहा है। कुछ लोग वहां उस शव को देख रहे हैं। सरोज नाम के युवक का सुसाइड नोट भी रवि ने पोस्ट किया है। सुसाइड नोट पढ़ते हुए सिस्टम का जाना-पहचाना क्रूर चेहरा पढ़ने वाले की हत्या करने लगता है। हम चाहें बदलाव के जितने भी विज्ञापन बना लें, मगर सिस्टम जानता है कि उसके लिए हर आदमी एक शिकार है। कुछ नहीं बदला है। कहीं नहीं बदला है और कभी नहीं बदला था। पूरे सुसाइड नोट को पेश नहीं कर रहा हूं। उसके आधार पर संक्षिप्त ब्यौरा दे रहा हूं।
27 साल का सरोज अपना पासपोर्ट बनाने दिल्ली से रांची आता है। होटल में रूकता है। कमरे के सामने कुछ लोग शराब के नशे में हंगामा करते हैं। सरोज उन्हें टोक देता है। झगड़ा होता है। अगले दिन होटल में दूसरा कमरा ले लेता है ताकि उनसे सामना न हो। शराबी आते हैं और पता पूछने के बहाने सरोज को अगवा कर ले जाते हैं। कार की डिकी में डालकर। कुछ समय बाद वो खुद को रांची के महावीर अस्पताल में पाता है। अख़बार में ख़बरें छपती हैं। अस्पताल से निकल कर होटल और फिर थाने जाता है। उसके पिता साथ में थे। सरोज लिखता है कि पुलिस अधिकारियों ने मां बहन की गालियों के साथ बात की। उसके पिता ने फोन पर पुलिस को सूचना देते समय आई टी अफसर की जगह आई बी अफसर बोल दिया होगा। वैसे यह चूक सुनने में भी हो सकती है। सरोज ने सुसाइड नोट में लिखा है कि बस इसी एक बात से सारा केस किसी दूसरी दिशा में शिफ्ट हो गया। सरोज ने लिखा कि रात एक बजे पिताजी को घटना की सूचना मिली थी, अपने इकलौते बेटे की हालत सुनकर हो सकता है बोलने में चूक हो गई हो। लेकिन इस चूक की जो सजा मिली है, वो भयानक है। पिता को भी मां-बहन की गाली दी गई और कालर पकड़ कर धमकी।
पुलिस अधिकारियों ने सरोज का काल डिटेल निकाल कर उसकी दीदी के साथ ही संबंध बताने लगा. बाप कहता रहा कि मेरी बेटी है। पुलिस वाले उसे गलियाते रहे कि झूठ बोल रहे हैं। आपका बेटा रांची लड़की से मिलने आया था। सरोज लिखता है कि देखते देखते पूरी केस बदलने लगता है। बाप बेटे को अलग-अलग कमरे में बिठा कर गालियां दी जाती हैं। सरोज अपने पिता की ऐसी हालत बर्दाश्त नहीं कर पाया। पुलिस सिस्टम का जो क्रूर रूप देखा, उसका विश्वास हिल गया। उसे नहीं लगा कि अब न्याय मिलेगा। एक झूठे केस से लड़ने के लिए और न्याय में फर्ज़ी भरोसा जताने का साहस नहीं जुटा पाया। कितना अजीब है, इस विश्वास के लिए भी उसी को सारा धन और हौसला लगाना पड़ता है जो बेकसूर है।
बस यहीं से उसने आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। सरोज ने लिखा है कि चुटिया थाना के प्रभारी की वजह से मेरे मां बाप अपना बेटा खोने जा रहे हैं। मेरी चार बहनें राखी से पहले अपना इकलौता भाई खोने जा रही हैं। पुलिस को गाली देकर बात करने की अनुमति कौन देता है? सरोज ने यह मेल प्रधानमंत्री को भी किया है। झारखंड के मुख्यमंत्री को भी लिखा है।
हम एक मरे हुए और डरे हुए समाज में जी रहे हैं। सरोज नहीं जाता तो परिवार इस सिस्टम की क्रूरता को जीना सीख जाता। भारत में जीने के लिए यह सीख अनिवार्य है। शायद यही नियति भी है। सरोज ने नियति से ही रिश्ता तोड़ लिया। किसी की मौत से किसी को भी फर्क नहीं पड़ता है। इस समाज में मौत की ही मौत हो गई है। मरना ही मर गया है। यह बात सिस्टम के भीतर के लोग जानते हैं। इसलिए वे ताकतवर लोगों के साथ मिलकर रहते हैं। मीडिया की मृत्यु के बाद अखबारों और चैनलों से उम्मीद करने वाले भी मरे हुए लोग हैं। जब सब मर ही गए हैं तो ज़िंदा कौन है। वो जो सत्ता और सिस्टम को चलाते हैं।
रवीश कुमार की कलम से

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