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अखिलेश ने चाचा शिवपाल को मना लिया, क्या वोटर भी मानेंगे?
प्रचलित गीत है सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया। अखिलेश यादव की स्थिति यही है। 2017 के विधानसभा चुनाव के समय सत्ता के मद में मस्त अखिलेश यादव को अपने चाचा शिवपाल यादव की फिक्र नहीं दिखी थी। सरे आम उन्होंने न सिर्फ अपने चाचा से रार ठान ली थी बल्कि अपने पिता का भी अपमान कर डाला था और पूरी समाजवादी पार्टी पर कब्जा कर लिया था। उत्तर प्रदेश के वोटरों ने अखिलेश के इस व्यवहार को पसंद नहीं किया था और उन्हें सबक सिखाया। अब जबकि 2022 का विधानसभा चुनाव करीब है तो अखिलेश ने अपनी गलती का 'भूल-सुधार' किया है। सवाल यह है कि क्या जनता इस भूल-सुधार पर अपनी सहमति की मुहर लगाएगी?
शिवपाल के कारण सपा हारी थी पांच लोकसभा सीट
शिवपाल यादव ने 2018 में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया बनायी थी। 2019 में शिवपाल यादव के समाजवादी पार्टी को कम से कम पांच लोकसभा सीटों पर फिरोजाबाद, उन्नाव, बांदा, सुल्तानपुर और मोहनलाल गंज में नुकसान उठाना पड़ा था। फिरोजाबाद में रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव अपनी सीट नहीं बचा पाए थे क्योंकि यहां शिवपाल यादव ने 90 हजार वोट बटोरकर उनकी हार सुनिश्चित कर दी थी। इस सीट से बीजेपी उम्मीदवार 28 हजार वोटों से जीते थे।
कहने की जरूरत नहीं कि 2017 में समाजवादी पार्टी की लुटिया डुबोने में भी शिवपाल यादव का बड़ा हाथ रहा था। लेकिन सवाल यह है कि क्या शिवपाल यादव और अखिलेश यादव में सुलह हो जाने से सबकुछ ठीक हो जाएगा? जनता यह जानना चाहेगी कि आखिर चाचा-भतीजे में ऐसी कौन सी बात हुई थी कि दोनों अलग हुए थे और ऐसी क्या नयी बात हुई कि दोनों पुरानी बातों को भूलने को तैयार हो गये? क्या इन दोनों घटनाओं में जनहित का कोई मसला था? जनता को इसका कोई फायदा होने वाला है? अगर इन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं तो अखिलेश-शिवपाल में दूरी-नजदीकी की परवाह आम वोटर क्यों करे?
दागी नेता और भ्रष्टाचार पर चाचा से भिड़े थे अखिलेश
इसमें संदेह नहीं कि चुनाव नजदीक आने पर ये चाचा-भतीजा अपने-अपने चुनावी फायदों को देखते हुए करीब आए हैं। चुनाव के बाद फिर इन दोनों के बीच संबंध कैसे रहने वाले हैं यह कोई नहीं जानता। 2017 से पहले जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने संदेश देने की कोशिश की थी कि वे भ्रष्टाचार को लेकर सख्त हैं। किसी भी बाहुबली या दागी नेता को प्रश्रय देने के खिलाफ हैं। संदेश यह भी देने की कोशिश की गयी कि समाजवादी पार्टी की 'गुंडों की पार्टी' वाली जो छवि बनी उसके पीछे भी शिवपाल यादव ही जिम्मेदार हैं। ऐसे में आम वोटरों की रुचि यह जानने में जरूर रहेगी कि क्या शिवपाल यादव के प्रति अखिलेश की धारणा बदल गयी है? अगर हां, तो इसके कारणों का खुलासा भी अखिलेश यादव को करना होगा।
सियासी तौर पर अभी शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया का विलय समाजवादी पार्टी में नहीं हुआ है। यह विलय हो या नहीं हो- सीटों में हिस्सेदारी को लेकर शिवपाल यादव कोई समझौता करेंगे, इसकी संभावना बहुत कम है। हालांकि बताया जा रहा है कि एक सहमति बन चुकी है। फिर भी जमीनी स्तर पर इस सहमति को लेकर खुद इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओँ की क्या प्रतिक्रिया होने वाली है यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा। टिकट की संख्या और विधानसभा क्षेत्र से लेकर उम्मीदवार तक को लेकर घमासान मचना तय है।
सियासी रणनीति के छेद भर पाएंगे अखिलेश?
मूल बात यह है कि अब जबकि विधानसभा चुनाव का औपचारिक एलान होने ही वाला है, अखिलेश यादव को यह सब क्यों करना पड़ रहा है? निश्चित रूप से सत्ता का सियासी समीकरण अनुकूल होने का विश्वास अब तक अखिलेश में नहीं है। इससे पहले ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाले छोटे दलों के गठबंधन भागीदारी मोर्चा से भी समाजवादी पार्टी समझौता कर चुके हैं। मगर, यहां भी समझौते की कलई खुलनी अभी बाकी है। दर्जन भर छोटे-छोटे दलों से बना यह मोर्चा इस कारण भी अखिलेश के लिए कांटों का हार है कि इसमें असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम भी शामिल रही है। अब तक न तो ओवैसी भागीदारी मोर्चा से हटे हैं और न ही उन्हें हटाया गया है।
अगर भागीदारी मोर्चा के साथ असदुद्दीन ओवैसी रहते हैं तो यूपी विधानसभा चुनाव हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का गवाह बनेगा। इसी डर से अब तक समाजवादी पार्टी की ओर से इस विषय पर चुप्पी है। अंदरखाने की कोशिश की जा रही है कि ओवैसी के बगैर भागीदारी मोर्चा समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करे। मगर, खुलकर ओवैसी को भागीदारी मोर्चा से बाहर करने की हिम्मत न ओम प्रकाश राजभर को है और न ही समाजवादी पार्टी खुलकर ऐसी कोई शर्त रखने का जोखिम लेना चाहती है। क्योंकि, ऐसा करने पर मुस्लिम वोटों की नाराज़गी का भी खतरा समाजवादी पार्टी को सता रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में शिवपाल यादव के साथ गठबंधन की ख़बर तो अच्छी है लेकिन इस ख़बर पर अमल के जो परिणाम आने वाले हैं कहीं ज्यादा रोचक ख़बर होगी।
(लेखक मनीष कुमार गुप्ता कानून और आर्थिक मामलों के जानकार होने के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषक हैं जो विभिन्न टीवी चैनलों पर होने वाले डिबेट का हिस्सा रहते हैं)