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राजेन्द्र शर्मा
राहुल गांधी के नेतृत्व में निकली 'भारत जोड़ो यात्रा' वाकई भारत को जोड़ पाना तो दूर‚ क्या उसे जोड़ने के सवाल को जन–मानस तक किसी उल्लेखनीय पैमाने पर पहुंचा भी पाई है या नहीं‚ यह कहना अभी मुश्किल है। फिर भी एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि साढ़े तीन हजार किमी. की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की इस लगातार महीनों चली यात्रा ने दो महत्वपूर्ण और एक हद तक एक–दूसरे से जुड़े हुए काम जरूर किए हैं। पहला तो यही कि महीनों तक चली इस यात्रा ने जिन जगहों से होकर वह गुजरी है, वहां लोगों के बीच उत्सुकता ही नहीं जगाई है‚ मीडिया में काफी प्रमुखता के साथ वर्तमान सत्ता पक्ष से इतर नैरेटिव को जगह भी दिलाई है। मोदी राज के आठ साल से अधिक में जिस तरह मुख्यधारा के मीडिया पर सत्ता पक्ष के नैरेटिव का पूर्ण व एक्सक्लूसिव ही नहीं‚ बल्कि हमलावर कब्जा हो गया है‚ उसे देखते हुए यह कोई मामूली बात नहीं है। इसने मौजूदा निजाम के मीडियाई रक्षा कवच में सेंध लगने की कुछ–न–कुछ संभावनाओं को तो उजागर किया ही है। भाजपा की उम्मीद के उलट है संदेश।
इस यात्रा ने दूसरा और शायद पहले से भी ज्यादा महत्वपूर्ण काम यह किया है कि इसने राहुल की छवि को महत्वपूर्ण रूप से बदल दिया है और जाहिर है कि संघ–भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद सकारात्मक रूप से बदल दिया है। यह कोई संयोग ही नहीं है कि लोक मानस में राहुल की छवि में इस बदलाव को भांपकर ही संघ–भाजपा समर्थकों ने अचानक न सिर्फ राहुल को 'पप्पू' कहना बंद कर दिया है‚ बल्कि बार–बार छुट्टी पर विदेश निकल जाने वाला अंशकालिक राजनीतिज्ञ या अगंभीर राजनीतिज्ञ आदि दिखाने की कोशिशें करना भी करीब–करीब बंद कर दिया है। अभूतपूर्व वक्ता मोदी के सामने बिना पढ़े दो–चार वाक्य न बोल पाने वाले कच्चे राजनीतिक खिलाड़ी की राहुल की छवि तो खैर इस बीच न जाने कब की पीछे छूट गई थी। इसके साथ ही साथ‚ आसेतु हिमालय के विस्तार को समेटने वाली इस लंबी पदयात्रा ने और उसमें भी कड़ी गर्मी से लेकर हाड़ कंपा देने वाली सर्दी तक सारे मौसम आधी बाजू की टी शर्ट में गुजारने के आग्रह ने राहुल की यात्रा को 'तप' का जो रंग दे दिया है‚ उसने उनके एक हिंदू आस्तिक की तरह बोलने को प्रमाणिकता दे दी है और संघ–भाजपा की हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की उनकी आलोचनाओं में हिंदू धार्मिक परंपराओं के दायरे से आने वाली आलोचनाओं का एक वजन पैदा कर दिया है।
अब संघ परिवार के लिए इन आलोचनाओं को हिंदू–विरोधी तो दूर‚ गैर–हिंदू कहकर खारिज करना भी आसान नहीं रहा है। यही वह जगह है जो राहुल के 'गांधी' सरनेम को विशेष अर्थ दे देती है। प्रधानमंत्री ने राज्य सभा में राष्ट्रपति अभिभाषण पर बहस के अपने जवाब में राहुल समेत नेहरू–गांधी परिवार को‚ नेहरू सरनेम का उपयोग नहीं करने का जो ताना मारा‚ वह कहीं–न–कहीं उनकी अपनी मुश्किल को भी बयान कर रहा था। प्रधानमंत्री के संघ परिवार की मूल सैद्धांतिकी आज भी आम जनता के स्तर पर एक आस्तिक हिंदू के मुकाम से बोलने वाले गांधी की वैचारिकी का मुकाबला करने का एक अनीश्वरवादी तर्कवादी के मुकाम से बोलने वाले नेहरू की वैचारिकी के मुकाबले‚ ज्यादा मुश्किल पाती है। जाहिर है कि 'तोड़ने के मुकाबले जोड़ने' की और 'नफरत के मुकाबले मोहब्बत' की भाषा‚ इन आलोचनाओं को एक वैचारिक–सैद्धांतिक ताकत देती है।
याद रहे कि इस वैचारिकी–सैद्धांतिकी का प्रकट और उससे भी बढ़कर अप्रकट प्रभाव इसलिए और ज्यादा है, क्योंकि इसके पीछे भारत का वास्तविक इतिहास है‚ उसकी जिंदा परंपराएं हैं‚ संस्कृति है‚ लोककथाएं हैं यानी एक शब्द में कहें तो भारतीय समाज की वास्तविक रहनी यानी जीवनानुभव है। इसके विपरीत संघ परिवार ही है, जो भारतीयों की इस वास्तविक रहनी को नकारकर‚ अंगरेजी राज का गढ़ा हुआ झूठा इतिहास थोपना चाहता है‚ जिसमें अंगरेजी राज की गुलामी की जगह‚ 'हजार साल की गुलामी' है और जो संक्षेप में हिंदुओं और मुसलमानों के टकरावों का ही इतिहास है। वास्तविक परंपरा पर सांप्रदायिकता की रेत भले ही जम गई हो, पर वह अंतःसलिला सतह के नीचे तो अब भी बहती है और ऊपर की रेत को जरा सा उकेरने से उसका जल झिलमिलाने लगता है।
राहुल के नेतृत्व में निकली 'भारत जोड़ो यात्रा' के सिलसिले में यात्रा के ही एक और पुराने प्रयोग को याद किए बिना नहीं रहा जा सकता है। यह प्रयोग महात्मा गांधी की 'डांडी यात्रा' से भी बहुत पहले का है। 1915 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटे थे और स्पष्ट रूप से ब्रिटिश गुलामी की बेडि़यों में जकड़े भारत के जागरण के प्रयासों में प्रत्यक्ष रूप से शामिल होने के फैसले के साथ भारत लौटे थे‚ गोपाल कृष्ण गोखलेे‚ जिन्हें गांधी एक प्रकार से अपने राजनीतिक गुरु जैसा मानते थे‚ ने उन्हें एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी। सलाह यह थी कि 'राजनीति में कूदने से पहले एक–दो साल घूमकर जितना हो सके, भारत को देखो और जानो। उसके बाद जनता के राजनीतिक जागरण में जुटना।' गांधी ने वही किया और कस्तूरबा के साथ भारत से परिचय की अपनी लंबी यात्रा पर निकल पड़े। इसी का नतीजा था कि पिछली सदी के दूसरे दशक के आखिर तक गांधी ऐसे नेता बन चुके थे‚ जिन्होंने तब तक मुख्यतः ब्रिटिश हुकूमत से याचिकाओं का मध्यवर्गीय आंदोलन रहे राष्ट्रीय आंदोलन को जन–आंदोलन में तब्दील कर दिया‚ जिसमें गरीब मेहनतकशों की अपार ऊर्जा का उद्दाम ज्वार था।
राहुल की यात्रा से बदलाव की जगी उम्मीदें बेशक‚ यह सोचना ही बेतुका होगा कि पिछली सदी के दूसरे दशक के आखिर के गांधी को इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक के आरंभ के राहुल गांधी दोहराएंगे या दोहरा सकते हैं। फिर भी आम जनता के बीच जाने की राजनीति का साझा सूत्र‚ यात्रा के इन दोनों प्रयोगों में एक निरंतरता जरूर कायम करता है। और यही वह दिशा है, जिस पर चलकर न सिर्फ राहुल अपनी तथा अपने नेतृत्व में कांग्रेस की छवि को सकारात्मक रूप से बदल सकते हैं‚ बल्कि वर्तमान बहुसंख्यकवादी–गोदी पूंजीपति निजाम के मुकाबले की राजनीति की लोक–वैधता का प्रसार करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा सकते हैं। शायद‚ 2024 के लिए यह भी काफी नहीं होगा, लेकिन 2024 में वर्तमान बहुसंख्यकवादी–गोदी पूंजीपति निजाम के सामने वास्तविक चुनौती खड़ी करने का रास्ता यहीं से निकलेगा। हां! मौजूदा निजाम के अपने विरोध को और ठोस रूप देते हुए विपक्षी ताकतों को कमोबेश एक स्वर से मेहनतकशों तथा युवाओं के कल्याण के एक वैकल्पिक कार्यक्रम का नक्शा भी पेश करना होगा। स्वतंत्र भारत के इस सबसे बड़े जनतांत्रिक जनजागरण अभियान ने न सिर्फ उम्मीद जगाई है‚ बल्कि आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखा दिया है। अगले सवा साल में धर्मनिरपेक्षता तथा जनतंत्र से प्यार करने वाली ताकतें इस रास्ते पर कितना आगे तक जा पाती हैं‚ उसी से भारी उथल–पुथल के इस दशक में भारत का भविष्य तय होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)