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रवीश कुमार ने कही रेल मंत्री से ये बड़ी बात, क्योंकि उनके पास आ रहे है ये काल!
अच्छा भी लगता है कि लोग इस काबिल समझते हैं कि मुसीबत के वक्त फोन करने लगते हैं। बुरा लगता है कि सबके काम नहीं आ पाता हूं। दिल पर पत्थर रखते हुए इस नंबर को अब बंद करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। हर फोन कॉल नए सिरे से उदास कर जाता है। आख़िर एक के बाद एक इस तरह की बातों को सुनकर कैसे खुश रहे। कई बार मना करने में भी वक्त चला जाता है और झुंझला भी जाता है। वैसे तो सामान्य और संयमित रहते हुए सुन लेता हूं लेकिन अफसोस इस बात का है कि हमारे सिस्टम के सितम से कब मुक्ति मिलेगी। लाखों अफसरों की फौज है। विधायक, सांसद से लेकर न जाने अनगिनत लोग हैं जो जनता की सेवा का दावा करते हैं मगर जनता की सेवा कहीं नहीं हो रही है।
दोपहर को एक एक्स-सर्विसमैन का फोन आया। रेलवे के ग्रुप डी में फिजिकल टेस्ट की शर्तों को लेकर शिकायत कर रहे थे। उधर से आती आवाज़ भरभरा रही थी। लग रहा था कि आखिरी दिन है। मेरे न्यूज़ चला देने से शायद शर्तें बदल जाएंगी। ऐसा होता नहीं कभी। वायुसेना से रिटायर हुए इस जवान का कहना था कि 4 मिनट 15 सेकेंड में 1 किलोमीटर की दौड़ पूरी करनी थी। 18 साल के नौजवान और सेना के रिटायर 45 साल के जवान के लिए एक समान पैमाना बनाया गया। जबकि खुद सेना में जब फिजिकल टेस्ट होता है तो उम्र के हिसाब से समय में छूट होती है। 18 साल और 45 साल वाला कैसे 4 मिनट 15 सेकेंड की दौड़ में बराबरी कर सकता है। बात तो इस एक्स सर्विसमैन की ठीक लग रही थी। मगर मैंने वादा किया कि फेसबुक पर लिख देता हूं। इसे ही मेरे मुख्य न्यूज़-कर्म समझे। जवान ने सैनिक प्रशिक्षण की शालीनता दिखाई और कहा कि वो भी चलेगा। कम से कम उन्हें इस बात का मलाल नहीं रहेगा कि उनकी तकलीफ़ किसी ने नहीं जानी।
इसी तरह कुछ फोन आए जिन्हें समझने में काफी वक्त लग गया। विशिष्ट शारीरिक चुनौतियों का सामना करने वाले उम्मीदवार रेल मंत्री तक अपनी बात पहुंचाना चाहते थे। ये भी रेलवे के ग्रुप डी के परीक्षार्थी हैं। इनका कहना है कि जब वेकेंसी आई तो कुछ ही बोर्ड में विकलांगों के लिए सीट आरक्षित रखी गई। सबसे अधिक सीट अहमदाबाद में थी। किसी किसी बोर्ड में कोई सीट नहीं थी। सारे विकलांग उम्मीदवारों ने उन्हीं बोर्ड का चयन किया जहां सीट थी। करीब 70 फीसदी छात्रों ने अहमदाबाद बोर्ड को चुना। अब हुआ ये है कि बोर्ड ने अहमदाबाद की सीटें कम कर दी है। इससे कम सीट के अनुपात में ज़्यादा उम्मीदवार हो गए हैं। विकलांग उम्मीदवारों को लगता है कि अब उनकी नौकरी चली जाएगी। रेलवे ने शर्तों में यह बदलाव इसलिए किया ताकि नौकरी ही न देनी पड़ी। ये उम्मीदवार चाहते हैं कि इन्हें बोर्ड सलेक्ट करने का मौका दोबारा से दिया जाए ताकि जहां सीटें बाद में दी गई हैं वहां उन्हें फार्म भरने का मौका मिले।
एक झमेला है नार्मलाइज़ेशन का। रेलवे ने प्रेस रीलीज़ में नार्मलाइज़ेशन की प्रक्रिया को विश्वसनीय बताया है। रेलवे को चाहिए कि और भी विस्तार से उम्मीदवारों को समझाए। नार्मलाइज़ेशन की समझ बनानी बहुत ज़रूरी है। इससे रेलवे को ही फायदा होगा। उम्मीदवारों का उसकी परीक्षा प्रणाली में भरोसा बढ़ेगा।
मैं अब भी कहता हूं। हमारे युवा अपने स्वार्थ से ऊपर उठें। हर परीक्षा देकर उन्होंने देख ली है। हर सिस्टम को आज़मा लिया है। सभी परीक्षाओं के सताए हुए छात्र अब आपस में संपर्क करें। अपने मां-बाप को भी संघर्ष में शामिल करें। सबसे पहले अपने माता-पिता को कहें कि खाली वक्त में टीवी न देखकर किताब पढ़ें। उनका पढ़ना-लिखना साढ़े बाईस हो चुका है। नौकरी के बाद एक किताब तक नहीं पढ़ते और न अखबारों को ध्यान से पढ़ते हैं। गप्प ऐसे हांकते हैं जैसे देश चला रहे हों। नौजवान ख़ुद भी खूब पढ़ें। ऐसे जागरूक लोगों का एक नेटवर्क बनाएं।
गांधी, अंबेडकर को पढ़ें और नैतिक बल के दम पर, आत्मत्याग के दम पर सिस्टम में व्यापक बदलाव का प्रयास करें। वर्ना उनकी हर लड़ाई अख़बार के किसी कोने में छपने और एक न्यूज़ चैनल के एक प्रोग्राम में दिखने तक सीमित रह जाएगी। दो साल से इन युवाओं की समस्या में उलझा हुआ हूं। इनकी राजनीतिक समझ की गुणवत्ता से काफी निराशा हुई है। अब अपनी समस्या के लिए वही ज़िम्मेदार हैं। बहुत दुख होता है। वे किस तरह परेशान हैं। उनका वोट सबको चाहिए। कोई उनकी नहीं सुन रहा है। जय हिन्द।