- होम
- राष्ट्रीय+
- वीडियो
- राज्य+
- उत्तर प्रदेश
- अम्बेडकर नगर
- अमेठी
- अमरोहा
- औरैया
- बागपत
- बलरामपुर
- बस्ती
- चन्दौली
- गोंडा
- जालौन
- कन्नौज
- ललितपुर
- महराजगंज
- मऊ
- मिर्जापुर
- सन्त कबीर नगर
- शामली
- सिद्धार्थनगर
- सोनभद्र
- उन्नाव
- आगरा
- अलीगढ़
- आजमगढ़
- बांदा
- बहराइच
- बलिया
- बाराबंकी
- बरेली
- भदोही
- बिजनौर
- बदायूं
- बुलंदशहर
- चित्रकूट
- देवरिया
- एटा
- इटावा
- अयोध्या
- फर्रुखाबाद
- फतेहपुर
- फिरोजाबाद
- गाजियाबाद
- गाजीपुर
- गोरखपुर
- हमीरपुर
- हापुड़
- हरदोई
- हाथरस
- जौनपुर
- झांसी
- कानपुर
- कासगंज
- कौशाम्बी
- कुशीनगर
- लखीमपुर खीरी
- लखनऊ
- महोबा
- मैनपुरी
- मथुरा
- मेरठ
- मिर्जापुर
- मुरादाबाद
- मुज्जफरनगर
- नोएडा
- पीलीभीत
- प्रतापगढ़
- प्रयागराज
- रायबरेली
- रामपुर
- सहारनपुर
- संभल
- शाहजहांपुर
- श्रावस्ती
- सीतापुर
- सुल्तानपुर
- वाराणसी
- दिल्ली
- बिहार
- उत्तराखण्ड
- पंजाब
- राजस्थान
- हरियाणा
- मध्यप्रदेश
- झारखंड
- गुजरात
- जम्मू कश्मीर
- मणिपुर
- हिमाचल प्रदेश
- तमिलनाडु
- आंध्र प्रदेश
- तेलंगाना
- उडीसा
- अरुणाचल प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- चेन्नई
- गोवा
- कर्नाटक
- महाराष्ट्र
- पश्चिम बंगाल
- उत्तर प्रदेश
- Shopping
- शिक्षा
- स्वास्थ्य
- आजीविका
- विविध+
राजेन्द्र शर्मा
मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने के शोर शराबे के बीच, इसकी ओर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा कि जिस सरकार की सालगिरह इतनी धूम-धाम से मनाई जा रही थी, उसके नाम के आगे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या एनडीए का अगल्ला जुड़ा हुआ है। यह इसलिए कि मोदी राज के नौ साल में न सिर्फ एनडीए के अस्तित्व को करीब-करीब पूरी तरह से भुला दिया गया है, बल्कि शीर्ष पर सत्ता के लगभग निरंकुश केंद्रीयकरण के जरिए, नाम के वास्ते सत्ताधारी पार्टी के गिर्द किसी गठबंधन की मौजूदगी तक को, लगभग असंभव ही बना दिया गया है। हैरानी की बात नहीं है कि मोदी राज के नौ साल, इस गठबंधन के बिखरने के ही नौ साल रहे हैं। इस गठबंधन की मौजूदा रूप में शुरूआत, 1998 में 15 मई को हुई थी। मकसद था अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार को, जिसमें भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं था, सहयोगियों के संख्या बल के सहारे ही नहीं, एक गठबंधन की राजनीतिक वैधता के जरिए भी, स्थिरता देना।
हैरानी की बात नहीं है कि एनडीए के सहारे वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए ही नहीं, उससे आगे प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल की शुरूआत तक भी, भाजपा न सिर्फ अपने पुराने सहयोगियों जैसे शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल तथा फर्नांडीस की समता पार्टी आदि को अपने साथ बनाए रही थी, बल्कि उसके सहयोगियों का दायरा कुछ न कुछ बढ़ता ही रहा था। यह स्थिति, 1996 के चुनाव के बाद की स्थिति से ठीक उलट थी, जब लोकसभा में अकेले सबसे ज्यादा सीटें आने के बावजूद और मरहूम प्रमोद महाजन की इसकी शेखी के बावजूद कि, समर्थन देने के लिए पार्टियों की लाइन लग जाएगी, वाजपेयी की पहली सरकार को तेरह दिन में ही जाना पड़ा था। उसके बाद संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी थी, हालांकि उसका जीवन काल भी बहुत लंबा नहीं रहा।
बहरहाल, मोदी राज में भाजपा के सहयोगियों का दायरा बढ़ने का सिलसिला, सत्ता में गोंद का काम कर रहे होने और साम, दाम, दंड, भेद, सारे हथकंडे पूरी दीदादिलेरी से आजमाए जाने के बावजूद, उल्लेखनीय ढंग से पलटा ही है। वास्तव में एक हद तक इस सिलसिले का इशारा तो 2014 के चुनाव के लिए आरएसएस के अनुमोदन से और देश के सबसे बड़े थैलीशाहों द्वारा सक्रिय रूप से प्रमोट किए जाने के बल पर, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को, भाजपा का और इसलिए खुद-ब-खुद एनडीए का, प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराये जाने के साथ ही मिल गया था। यह संकेत मिला था, जदयू नेता नीतीश कुमार के पहली बार एनडीए से नाता तोड़कर, भाजपा-विरोधी कतारों में जा खड़ा होने से। इसके पीछे असली मुद्दा था, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में होने सेे सिर्फ भाजपा की ही नहीं, एनडीए तथा उसके संभावित राज की बनने वाली, उग्र अल्पसंख्यकविरोधी छवि का। शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि सबसे बढ़कर इसी के चलते, ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी के लिए भी, जो एनडीए के बनने के बाद से एनडीए तथा यूपीए के बीच काफी आवाजाही करती रही थी, मोदी के नेतृत्व में एनडीए के साथ खड़े होना संभव नहीं हुआ। ओडिशा के बीजू जनता दल का किस्सा भी इससे बहुत अलग नहीं है, हालांकि ममता बैनर्जी की पार्टी के विपरीत, बीजू जनता दल ने एक बार भाजपा के साथ संक्षिप्त गठबंधन के बाद, दोबारा पिछले पंद्रह साल में उसके साथ औपचारिक गठबंधन करने की गलती नहीं दोहराई है। हां! मोदी के दूसरे कार्यकाल में सुरक्षित दूरी से भाजपा के साथ उसकी बढ़ती हमराहगी दूसरी ही बात है।
नरेंद्र मोदी का पहला कार्यकाल पूरा होने तक, बाकायदा एनडीए के बिखरने का सिलसिला शुरू हो चुका था। पहली बार भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल होने से, सहयोगी पार्टियों पर अब उसकी कोई निर्भरता नहीं थी। गठबंधन के सहयोगियों से संघ-भाजपा राज की इस 'आजादी' को औपचारिक रूप देते हुए, भाजपा से अलग एनडीए तथा उसकी सरकार के किसी साझा कार्यक्रम की जरूरत को, मोदी राज ने शुरूआत से ही गहराई में दफ़्न कर दिया। इसका नतीजा यह था कि 'अन्य' पार्टियों की मौजूदगी, भाजपा की एकछत्र सत्ता पर जो एक प्रकार का अंकुश लगाती थी और संघ-भाजपा के बहुसंख्यकवादी एजेंडों पर और इसके साथ ही उसके इजारेदारपरस्त झुकावों पर जो बहुत मामूली सी ही सही, रोक-टोक रखती थी, उसके लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रही। उल्टे, शासन में ही नहीं भाजपा में भी सारी सत्ता मोदी-शाह की जोड़ी के हाथों में ही केंद्रित होती गई और बदले में आरएसएस ने आक्रामक तरीके से हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए शासन का इस्तेमाल करने की लगभग खुली छूट हासिल कर ली। और चूंकि भाजपा और सहयोगी पार्टियों के बीच एजेंडे की कोई साझेदारी नहीं थी, सत्ता के लाभों में हिस्सेदारी के अलावा, एनडीए के बने रहने का कोई वस्तुगत आधार ही नहीं रहा।
नतीजा यह हुआ कि 2019 के चुनाव से पहले तेलुगू देशम ने एनडीए से नाता तोड़ लिया, तो उत्तर प्रदेश में अपना दल ने और आम चुनाव के चंद महीनों बाद हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के बाद शिव सेना ने। और आगे चलकर, तीन कृषि कानूनों के मुद्दे के बहाने से, पंजाब के विधानसभा चुनाव से पहले अकाली दल ने नाता तोड़ लिया और बिहार के चुनाव से पहले रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने। यह दूसरी बात है कि अब मजबूती से सत्ता में बैठी भाजपा से अलग होने की कीमत, इनमें से हरेक पार्टी को किसी-न-किसी हद तक टूट-फूट या बाकायदा विभाजन से चुकानी पड़ी। तेलुगू देशम के सभी राज्यसभा सदस्य, विभाजन तथा विलय के नाम पर भाजपा में पहुंचा दिए गए और इसके साथ, मोदी के दूसरे कार्यकाल की शुरूआत से राज्यसभा में भी बहुमत के जोड़-जुगाड़ के लिए, दूसरी पार्टियों के सांसदों पर डाके डालने का सिलसिला शुरू हो गया। इस तरह, जैसे-जैसे संघ-भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी का सत्ता पर एकछत्र तथा निरंकुश राज कायम होता गया, वैसे-वैसे एनडीए पृष्ठभूमि तक से गायब होता गया।
हैरानी की बात नहीं है कि किसी को अब यह याद भी नहीं है कि मोदी सरकार की हरेक सालगिरह को बड़ी धूमधाम से तथा दस दिन से लेकर एक महीने तक लंबे 'उपलब्धि प्रचार' अभियानों से मनाने वाले मौजूदा सत्ताधारियों ने, पिछली बार कब कम-से-कम स्थापना दिवस मनाने के जरिए ही, एनडीए को याद किया था। इसी साल 26 मई को प्रधानमंत्री मोदी के अचानक याद दिलाने के बाद ही, सत्ताधारी भाजपा तथा उसके सहयोगियों को याद आया कि 2023 में, एनडीए के 25 साल पूरे हो गए हैं। बेशक, हरेक चीज में सत्ताधारियों की ''श्रेष्ठता'' का दावा करने में सिद्घहस्त प्रधानमंत्री ने, इस मौके पर जोर-शोर से इसका भी दावा ठोक दिया कि देश में और कोई राजनीतिक गठबंधन इतने समय नहीं चला है, हालांकि इसमें वह एक अर्द्घ-सत्य और एक असत्य का सहारा ले रहे थे।
अर्द्घ-सत्य यह कि 1998 की मई में एनडीए के गठन से पहले, 1983 के अगस्त में भी भाजपा को लेकर ही एक एनडीए का गठन हुआ था, लेकिन वह एक साल में ही खत्म हो गया। यानी अब जिस एनडीए के पच्चीस साल हुए हैं, एनडीए का दूसरा अवतार है। और पूर्ण असत्य यह कि पच्चीस साल पुराना एनडीए ही देश में सबसे पुराना राजनीतिक गठबंधन है। सभी जानते हैं कि बंगाल और त्रिपुरा में वाम मोर्चे, इमर्जेंसी के बाद 1977 में बने थे और आज भी, सत्ता में चाहे न हों, पर विपक्ष के रूप में बाकायदा सक्रिय हैं। बंगाल का वाम मोर्चा लगातार 35 साल तो सत्ता में ही रहा था और वह भी हमेशा ही, सीपीआई (एम) के अकेले ही भारी बहुमत में होते हुए।
वाम मोर्चा अगर न सिर्फ सत्ता से बाहर होने, बल्कि सत्ताधारियों के भीषण हमलों के बावजूद, कमोबेश सुरक्षित है तथा आज भी सक्रिय बना हुआ है और एनडीए, अपने सबसे बड़े घटक के एकछत्र राज में व्यावहारिक मानों गायब ही हो गया है, तो इन विरोधी नियतियों का संबंध इन मोर्चों के बुनियादी चरित्र के अंतर से है। वाम मोर्चा, एक साझा कार्यक्रम पर आधारित गठबंधन है, जबकि एनडीए सिर्फ सत्ता के हिस्सा-बांट के लिए किया गया जुगाड़। जब तक इस जुगाड़ के लिए भी, कम-से-कम नाम के वास्ते एक साझा कार्यक्रम था, तब तक यह जुगाड़ फिर भी बना हुआ था। लेकिन, जब सत्ताधारी भाजपा के लिए इस जुगाड़ की जरूरत खत्म हो गई, तो पहले एनडीए का साझा कार्यक्रम गया और अंतत: एनडीए ही गायब हो गया।
अपने 25वें साल तक तो एनडीए इस कदर गायब हो चुका था कि, ईवेंट-प्रेमी प्रधानमंत्री को भी उसके 25 साल पूरे होने की याद तब आई, जबकि उसके स्थापना दिवस के बाद पूरे 11 दिन बीत चुके थे। और यह याद भी एक तात्कालिक और एक अपेक्षाकृत दूरगामी कारण से आई। तात्कालिक कारण था, प्रधानमंत्री के हाथों नये संसद भवन के उद्५घाटन के विपक्ष के बहिष्कार के ऐलान के खिलाफ यह दिखाने की जरूरत का कि इस मुद्दे पर नरेंद्र मोदी को, दूसरी कई पार्टियों का भी समर्थन हासिल है। और अपेक्षाकृत दूरगामी कारण का संबंध, कर्नाटक की करारी हार से निकले भूकम्प के झटकों से है। वास्तव में कर्नाटक के चुनाव नतीजों के बाद से इसकी खबरें आती रही हैं कि मोदी-शाह की भाजपा पंजाब में अकाली दल, बिहार में चिराग पासवान ग्रुप के लोक जनशक्ति पार्टी, तआंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम जैसे अपने पुराने सहयोगियों को फिर से जुटाने की कोशिश कर रही है। महाराष्ट्र में शिव सेना के तुड़वाए जाने के बाद, अभी हाल में एनसीपी में भी विभाजन कराए जाने को भी, इस तरह की चाणक्यगिरी की भी जरूरत के हिसाब से स्वीकार किए जाने के रूप में भी देखा जा सकता है।
इसीलिए, हैरानी की बात नहीं होगी कि एनडीए का नाम कम-से-कम 2024 के आम चुनाव तक जब-तब, प्रधानमंत्री मोदी की जुबान से सुनने को मिलता रहे। पर फौरी जोड़-जुगाड़ की बात दूसरी है, किसी वास्तविक गठबंधन में निहित सत्ता में साझेदारी, नरेंद्र मोदी को खुद भाजपा के अन्य नेताओं के साथ करना तो मंजूर नहीं है, दूसरी पार्टियां तो आती ही किस गिनती में हैं। हां! 2024 में भाजपा को जनता अगर विपक्ष में बैठा दे, तब जरूर एनडीए दोबारा जिंदा हो सकता है।