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बीजेपी ने राम मंदिर से ही नहीं, राम मंदिर के इन दस आंदोलनकारियों से भी किया किनारा!
लोकसभा चुनाव 2019 की घोषणा से पहले राम मंदिर मुद्दा सुर्खियों में था, लेकिन पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले से चुनावी एजेंडा पूरी तरह बदल गया है. राम मंदिर के सहारे राजनीति में जगह बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी अब इस इस मुद्दे के बजाय राष्ट्रवाद के सहारे सियासी जंग जीतने की कवायद में है. दिलचस्प बात ये है कि इस बार के चुनावी मैदान में बीजेपी के वो दिग्गज चेहरे भी नहीं उतर रहे हैं, जो कभी राम मंदिर आंदोलन के नायक हुआ करते थे.
राम मंदिर आंदोलन के सहारे ही बीजेपी देश और प्रदेश की सियासत में जगह बनाने में कामयाब रही थी. 1984 में सिर्फ 2 लोकसभा सीटें जीतने वाली बीजेपी मंदिर मुद्दे के जरिए हिंदू वोटबैंक को अपने पाले में लाने में सफल रही. इसी का नतजी था कि 1989 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी दो से सीधे 85 सीटों पर पहुंच गई. इसके बाद बीजेपी लगातार आगे बढ़ती गई और 2014 के चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई.
अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, कल्याण सिंह, कलराज मिश्र, साध्वी ऋतम्भरा, स्वामी चिन्मयानंद और राम विलास वेदांती ऐसे नेता हैं, जो बीजेपी के ही नहीं बल्कि राम मंदिर आंदोलन के चेहरा भी हुआ करते थे. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी का जहां निधन हो चुका हैं. वहीं, बाकी बचे नेताओं को बीजेपी चुनावी मैदान में नहीं उतार रही है. हालांकि इसमें कुछ नेता ऐसे हैं, जिन्हें पिछले चुनाव में भी प्रत्याशी नहीं बनाया गया था.
लालकृष्ण आडवाणी
बीजेपी ने इस बार पार्टी के संस्थापक सदस्य और राम मंदिर आंदोलन के नायक रहे लालकृष्ण आडवाणी को टिकट नहीं दिया है. आडवाणी गांधीनगर से लगातार जीतते रहे हैं. इस बार पार्टी ने उनकी जगह अमित शाह को मैदान में उतारा है. आडवाणी ही ऐसे नेता थे, जिन्होंने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा निकाली थी, इससे बीजेपी को काफी सियासी फायदा मिला था.
मुरली मनोहर जोशी
राम मंदिर आंदोलन से जुड़े बीजेपी के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी का भी पार्टी ने टिकट काट दिया है. इस बार उनकी जगह पार्टी ने सत्यदेव पचौरी को मैदान में उतारा है. अयोध्या में बाबरी मस्जिद को कारसेवकों ने जब विध्वंस किया था, उस समय बीजेपी की कमान मुरली मनोहर जोशी के हाथों में थी. इसी का नतीजा था कि बाबरी विध्वंस के बाद जोशी ने उमा भारती को अपने कंधों पर उठा लिया था.
उमा भारती
राम मंदिर आंदोलन में अहम किरदार निभाने वाली उमा भारती ने खुद ही इस बार के लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. 2014 के लोकसभा चुनाव में उमा भारती उत्तर प्रदेश के झांसी सीट से सांसद चुनी गई थी. इससे पहले वो मध्य प्रदेश के खजुराहो लोकसभा सीट से चुना मैदान में उतरती रही हैं. उमा भारती राम मंदिर की दिग्गज नेता रही हैं.
विनय कटियार
राम मंदिर आंदोलन के दौरान बीजेपी के प्रमुख चेहरों में विनय कटियार का नाम भी आता है. इस बार पार्टी ने उन्हें चुनावी मैदान में नहीं उतारा है. हालांकि इससे पहले वो राज्यसभा सदस्य थे. दिलचस्प बात ये है कि विनय कटियार फैजाबाद लोकसभा सीट से ही चुनकर संसद पहुंचते रहे हैं. कटियार तीन बार फैजाबाद से सांसद चुने गए, लेकिन इस बार भी उन्हें टिकट नहीं दिया गया है.
कलराज मिश्रा
कलराज मिश्रा भी राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख चेहरों में रहे हैं. इस बार पार्टी उन्होंने चुनावी मैदान में उतरने से मना कर दिया है. जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में वो देवरिया संसदीय सीट से चुनकर संसद पहुंचे थे और मोदी सरकार में मंत्री बने थे. हालांकि इससे पहले तक कलराज मिश्रा केंद्र के बजाय यूपी की राजनीति में किस्मत आजमाया करते थे.
कल्याण सिंह
अयोध्या आंदोलन के प्रमुख चेहरे और अपनी सत्ता गंवाने वाले कल्याण सिंह मौजूदा समय में राजस्थान के राज्यपाल हैं. संवैधानिक पद पर होने के नाते वो चुनावी मैदान में नहीं उतर सकते हैं. हालांकि बीजेपी की सक्रिय राजनीति में रहते हुए कल्याण सिंह राम मंदिर आंदोलन के प्रमुख नेता थे. उनके कार्यकाल में ही बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ था. इसके लिए उन्हें एक दिन की सजा भी सुनाई गई है.
राम मंदिर आंदोलन के ये चेहरे नदारद
राम मंदिर आंदोलन के इन चेहरों के अलावा भी कई प्रमुख नेताओं के नाम हैं. इनमें साध्वी ऋतम्भरा, स्वामी चिन्मयानंद और राम विलास वेदांती के नाम हैं, जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन के जरिए राजनीति में अपनी पहचान बनाई थी. इसके बाद बीजेपी से सांसद भी चुने गई थे. लेकिन पार्टी ने इससे पहले के चुनाव में ही टिकट नहीं दिया है. स्वामी चिन्मयांनद तो 2014 में टिकट मांग रहे थे, लेकिन बीजेपी ने उन्हें नहीं दिया है. इसी तरह राम विलास वेदांती भी बीजेपी में साइड लाइन हो गए है और इन दिनों राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन चला रहे हैं.
बता दें कि भारतीय जनता पार्टी का उदय राम मंदिर आंदोलन से हुआ था. आंदोलन से निकली पार्टी कभी न कभी पुरे जोश में आती जरुर है. अब जिस मकसद के लिए पार्टी बनाई जाती है और वो पूरा हो जाता है तो आंदोलन की रुपरेखा बदल जाती है. हां इतना जरुर है जब जब पार्टी अपने आंदोलन वाले चेहरे से दूर होती है तो उसका अस्तित्त्व खतरे में जरुर आ जाता है. यहाँ तो पार्टी ने आंदोलन कारियों से भी दूरी बना ली है.