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माजिद अली खान
उत्तर प्रदेश में दलितों के भविष्य को सुधारने के लिए वजूद में आई बहुजन समाज पार्टी आज ब्राह्मणों को लुभाने के लिए प्रबुद्ध वर्ग के सम्मेलन पूरे राज्य में आयोजित कर रही है. इसके लिए पार्टी ने अपने राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा को जिम्मेदारी सौंपी है कि हर जिले में प्रबुद्ध वर्ग के नाम पर सम्मेलन कर ब्राह्मणों को संदेश दिया जाए कि बहुजन समाज पार्टी उनकी सच्ची हितैषी है और ब्राह्मणों को बहुजन समाज पार्टी का साथ देना चाहिए.
इस बार बहुजन समाज पार्टी को लेकर लोगों में बड़े अजीबोगरीब सवाल हैं. लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि बहुजन समाज पार्टी विधानसभा चुनाव में मजबूत चुनाव लड़ पाएगी या नहीं. इसके कई कारण हैं. सबसे बड़ी वजह तो यही मानी जा रही है कि बसपा सुप्रीमो मायावती में अब वह धार नजर नहीं आ रही है जिसके लिए वह जानी जाती थी. यह धार क्यों खत्म हो गई? अब लोग खुलकर यह बात कहने लगे हैं कि बसपा सुप्रीमो सीबीआई से डरकर भाजपा के दबाव में काम कर रही हैं. इसीलिए वह न तो दलितों में अपनी बात मजबूती से रख पा रही हैं और न दूसरे वर्गों में यह संदेश दे पा रही हैं कि आने वाले विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले एक मजबूत विकल्प पेश कर पाएगी. "तिलक, तराजू और तलवार, जूते मारो इनके चार" के नारे के आधार पर उत्तर प्रदेश में दलितों की पहली पसंद बनी बहुजन समाज पार्टी आखिर अब सर्व समाज की पार्टी क्यों बनना चाहती है, क्या दलित उत्थान का मुद्दा उसके लिए बेमानी हो चुका है या वह अब दलितों के विकास की बातों से ऊब गई है. दलितों के लिए काडर आधारित काम करने वाले संगठन बामसेफ के लोग भी खुलकर मायावती की आलोचना कर रहे हैं. बामसेफ से जुड़े दलित चिंतकों का कहना है कि मायावती के नेतृत्व में चल रही बहुजन समाज पार्टी ने अब दलित उत्थान के बारे में सोचना बंद कर दिया है इसलिए बामसेफ वामन मेश्राम की बहुजन मुक्ति मोर्चा पार्टी के लिए काम कर रही है.
दूसरी ओर भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण ने आजाद समाज पार्टी बनाकर दलितों के लिए एक और विकल्प पेश कर दिया है. इस स्थिति में दलितों के लिए उत्तर प्रदेश में एकमात्र विकल्प बसपा नहीं रह गई है बल्कि बहुजन मुक्ति मोर्चा व आज़ाद समाज पार्टी दलितों के लिए अन्य विकल्प बन चुके हैं. इस स्थिति को भांप कर बसपा दूसरे वर्गों को भी साथ लेने की कोशिश कर रही है. बसपा के इन प्रयासों से कितने सार्थक परिणाम आएंगे यह तो समय ही बता सकता है लेकिन फिलहाल ब्राह्मण समाज में बसपा के लिए कोई ज्यादा उत्सुकता नजर नहीं आ रही है. ब्राह्मण समाज में बसपा की कोई चर्चा नहीं है और ब्राह्मण समाज या तो भाजपा या कांग्रेस को ही तवज्जो देने के मूड में है.
ब्राह्मण समाज का मानना है की बसपा का साथ देकर पहले भी उसे कोई खास फायदा नहीं हुआ बल्कि ब्राह्मण समाज ने अपना राजनीतिक वकार ही खोया है. तब इस स्थिति में यह अनुमान लगाना आसान हो जाता है कि बसपा को प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलनों से कितना फायदा हासिल होगा. दूसरी और बसपा को सवर्णों के सामने नतमस्तक होता देखकर दलित चिंतक बसपा की खुलकर आलोचना करेंगे जिसका नुकसान भी बसपा को अपने दलित वोटों के रूप में उठाना होगा. अब तक दलित मायावती के रूप में अपना एक मसीहा देखते थे लेकिन मायावती के इस झुकाव से उन्हें भी ठेस पहुंचेगी जिसका परिणाम दलितों का मोहभंग बसपा से होने की आशंका बनी रहेगी. उदाहरण के तौर पर आगरा को ले सकते हैं. आगरा को देश की दलित राजधानी भी कहते हैं क्योंकि यहाँ उत्तर प्रदेश में दलितों की जनसंख्या में जाटव यानी चमड़ा व्यवसाय से जुड़े लोगों की बहुलता है. सात महीने पहले ही आगरा के जाटव बहुल जगदीशपुर इलाके में बसपा से इस्तीफ़ा दे चुके रामवीर सिंह कर्दम ने विरोध प्रदर्शन करते हुए मायावती का पुतला फूंका. बहुजन समाज पार्टी से इस्तीफ़ा देकर कर्दम ने जाटव महापंचायत (आगरा) का गठन किया.
वे आरोप लगाते हैं, "बसपा में रहना है तो सबसे पहले पार्टी का टारगेट है पैसा इकट्ठा करना. अगर आप पैसा इकठ्ठा नहीं करवा पाते हैं और पार्टी में पैसा नहीं दिला पाते हैं, तो आप पद पर नहीं रह सकते हैं. आज जिन लोगों ने, जिस समाज के लोगों ने पार्टी को खड़ा किया, जाटव समाज का आदमी, वो भी टिकट मांगता है तो उससे पैसा लिया जाता है."
पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा था और उसे सिर्फ 19 विधायक ही मिल पाए थे. उसमें भी 12 विधायक अब उसके पास नहीं हैं. इस दिशा में इस विधानसभा में बसपा के पास सिर्फ सात विधायक ही बचे हैं, अपनी इस कमजोरी को ही मद्देनजर रखते हुए बसपा ने उत्तर प्रदेश में 12% वोट रखने वाले ब्राह्मण समाज को साधने की कोशिश की है. इस बार बसपा मुसलमानों की चर्चा करती नजर नहीं आ रही है. मुसलमान समुदाय का बसपा से भरोसा कम हुआ है. हालांकि मुसलमानों में ढेरों लोग हैं जो यह मानते हैं कि मायावती और उनके भाई पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का डर है जिसके चलते वे राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय बने हुए हैं. इस आशंका की अपनी वजहें भी हैं. मुसलमान बहन जी से जो उम्मीद रखता था, वो चीज़ बहनजी से मुसलमानों को नहीं मिली. बहनजी के कुछ वक्तव्य ऐसे रहे हैं जो बीजेपी को मज़बूत करने वाले रहे हैं. इससे मुस्लिम समाज में शंका पैदा हुई कि वे भाजपा के साथ हैं और भाजपा की हिमायती हैं. जब कोई बात ऐसी आई जैसे अनुच्छेद-370 हो या सीएए की तो बसपा ने खुलकर बात नहीं की, दबी ज़ुबान से बात की.
इस स्थिति में मायावती को भी मालूम है कि मुसलमान उसे समर्थन नहीं देगा और यही सोचकर बसपा भी मुसलमानों से ज्यादा उम्मीद नहीं कर रही है अब आने वाले समय में देखा जाएगा कहीं पर बुद्ध वर्ग सम्मेलनों से बसपा क्या कुछ हासिल कर पाती है?