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फुरफुरा शरीफ़ के धार्मिक नेता अब्बास सिद्दीक़ी के नेतृत्व वाले मुस्लिम कठमुल्लावादी राजनीतिक दल 'इंडियन सेक्युलर फ्रंट' के साथ प० बंगाल में चुनावी गठबंधन पर कांग्रेस नेताओं के एक धड़े द्वारा शोर शराबा करना और इसे 'नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता' के मूल्यों से परे हटना बताना बड़ी अनहोनी सी घटना लगती है। वस्तुतः समय-समय पर कांग्रेस सांप्रदायिक तत्वों के साथ गंठजोड़ करती रही है। ऐसे दौर में जबकि 4 राज्यों और 1 केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं तब कांग्रेस में बहने वाली उलटी बयार के क्या मायने? क्या यह सिर्फ़ प० बंगाल विधानसभा चुनाव में किये गए चुनावी गठबंधन का विरोध मात्र है या इसके पीछे के निहितार्थ कहीं और छिपे हैं। इसे महज़ 'ग्रुप-23' के विद्रोह के रूप में देखा जाना ठीक नहीं, इसकी कड़ियाँ कहीं दूर तक जाती हैं। उधर अधीर रंजन चौधरी द्वारा जी-23 पर किये हमले को सिर्फ एक प्रदेश अध्यक्ष द्वारा किया गया प्रत्याक्रमण मात्र माना जाना भी समुचित नहीं, इसमें नेतृत्व की सहमति शामिल है।
अगस्त 2020 में जब कांग्रेस का संकट सतह पर आया था तब माना जा रहा था कि कांग्रेस का मूल संकट गाँधी परिवार के भीतर है जिसके एक छोर पर राहुल गाँधी हैं तो दूसरे छोर पर सोनिया गाँधी। तब बीच में अवलम्ब के रूप में अहमद पटेल हुआ करते थे। यह वस्तुतः 2 पीढ़ियों का द्वन्द था जो परिवार के अंदर भी मौजूद था और पार्टी के भीतर भी। प्रियंका गाँधी तब भी भाई के साथ थीं, आज भी हैं हालाँकि वह मां से दूर नहीं। अभी तक वह यूपी पर केंद्रित थीं लेकिन अब असम के चाय बागानों के श्रमिकों के बीच जाकर पत्तियां तोड़ने का उनका उपक्रम बताता है कि उनके सरोकार अब यूपी से ऊपर जा चुके हैं और इसमें मां की सहमति शामिल है।
कांग्रेस का यह संकट तभी शुरू हो गया था जब राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था। अब यह जग ज़ाहिर है कि राजस्थान और मप्र० के विधानसभा चुनावों के बाद राहुल वहाँ की कमान सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को सौंपना चाहते थे लेकिन उनकी एक न चली। पार्टी के बुज़ुर्गों ने इसका जमकर विरोध किया और सोनिया गाँधी उनके पक्ष में हो गई। आगे चलकर दोनों राज्यों में पार्टी के भीतर जैसी थुक्का फजीयत हुई वह किसी से छुपी नहीं है लेकिन महत्वपूर्ण बात राहुल का अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर पार्टी के बुज़ुर्गों का ताल ठोंक कर कहना (कि 'किसी गैर गाँधी को अध्यक्ष पद के लिए आगे आना चाहिए') दर्शाता है कि उनके भीतर यह गुबार भरा था कि 'ज़रा पार्टी चलाकर दिखाओ!' सोनिया का तत्काल पद को संभाल लेना यह साबित करता है कि वह अभी तक नरसिंहाराव और सीताराम केसरी युग को भूली नहीं हैं। कांग्रेस मूलतः सत्ता में अस्तित्व सुनिश्चित रखने वाली पार्टी है। हाल के दशकों का उसके सांगठनिक ढांचे का निर्माण कुछ इस तरह विकसित हुआ है कि जब भी वह सत्ता में होती है, उसमें असंतोष के स्वर नहीं उपजते लेकिन सत्ता से पदच्युत होते ही बग़ावतों के अंबार लग जाते हैं। बीते 6 साल से पार्टी न सिर्फ़ सत्ता से बाहर है बल्कि नेतृत्व की ओर से संचालित ऐसी कोई रणनीतिक उठापटक भी दिखाई नहीं पड़ रही है जो जल्द ही सत्ता वापसी का संकेत 'रैंक एंड फ़ाइल' को देती हो। ऐसे में भीतरी बवंडर का उठना स्वाभाविक है।
जहाँ तक सांप्रदायिक दलों के साथ कांग्रेस के गठबंधन का सवाल है, इतिहास गवाह है कि आज़ादी के बाद की राष्ट्रीय राजनीति में उसने ऐसा पहली बार नहीं किया है। वस्तुतः 1970 के दशक में कम्युनिस्टों की लाल बाउटे (झंडे) वाली ट्रेड यूनियनों से परेशान और उन्हें ठिकाने लगाने की नियत से महाराष्ट्र के तत्कालीन कोंग्रेसी मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक ने बंबई और महाराष्ट्र के दूसरे स्थानों पर बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना के साथ खुलेआम राजनीतिक गंठजोड़ बनाया था। वह युग था जब शिवसेना को 'वसंतसेना' कहा जाता था। इसी प्रकार पंजाब में अकालियों के असर को ख़त्म करने के इरादे से कांग्रेस नेता संजय गाँधी ने संत भिंडरावाले को उभारा। यह दूसरी बात है कि आगे चलकर यही भिंडरावाले कांग्रेस के लिए विनाशकरी साबित हुआ और 'ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार में उसे और उसके साथियों को मार गिराने के लिए सेना को अमृतसर के स्वर्णमंदिर में भेजना पड़ा जिसकी अगली परिणति श्रीमती गाँधी की हत्या थी। इस सारे लब्बोलुवाब में कांग्रेस ने हिन्दू साम्प्रदायिकता का जम कर प्रसार-प्रचार किया और पहले पंजाब फिर कश्मीर में इस साम्प्रदायिकता के बहाव में आरएसएस उसका बगलगीर था। आज भी भाजपा विरोध के नाम पर महाराष्ट्र में कांग्रेस ने शिवसेना के साथ गठबंधन की सरकार बना रखी है।
सवाल यह है कि इन मौक़ों पर कॉंग्रस्स नेतृत्व के किसी तत्व ने साम्प्रदायिकता विरोध की आवाज़ क्यों नहीं उठाई? जिस तरह गुलामनावी आज़ाद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शान में क़सीदे पढ़े है, वह भी सवाल खड़े करता है कि विरोध के इन नेताओं के तार कहीं और से संचालित तो नहीं हो रहे ?
भाजपा की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध जिस तरह का राजनितिक माहौल बन रहा है किसान आंदोलन ने उसे और भी पुख्तगी प्रदान की है। ऐसे में राजनीतिक ज़रुरत एक सुदृढ़ विपक्षी पार्टी की है जो इस समूचे सत्ता विरोधी बयार को नियंत्रित करके अपने पक्ष में लाये। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी बचती है जो मौजूदा राजनीतिक संकट के समय जनता के समक्ष स्वयं को एक मज़बूत विकल्प के रूप में पेश कर सकती है। वहां लेकिन जिस तरह का कोहराम मचा है और वह अगर लंबा खिंचता है तो उसका लाभ ज़ाहिर है भाजपा को ही मिलेगा।