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Rajya Sabha Candidate List 2022 : दो दलों के राज्यसभा टिकट वितरण से निकले दो एंगल -
रंगनाथ सिंह
कांग्रेस के राज्यसभा उम्मीदवारों की लिस्ट से पता चलता है कि पार्टी किस रसातल में जा चुकी है। जदयू की राज्यसभा उम्मीदवारों की लिस्ट से पता चलता है कि नीतीश कुमार अभी राजनीति की 64 कलाएँ भूले नहीं हैं। कांग्रेस एक बीमारी से ग्रस्त है। जिसे मैं सुरजेवाला सिण्ड्रोम कहना चाहूँगा। सुरजेवाला सिण्ड्रोम की तरफ प्रशान्त किशोर ने भी इशारा किया था।
कांग्रेस के बड़े नेता अक्सर कहते हैं कि उनका दल जनता तक अपना सन्देश पहुँचाने में विफल रहता है इस वजह से लोगों को उनकी सोच पता नहीं चलती। राहुल गांधी भी ऐसा कह चुके हैं। कांग्रेस जनसंचार विभाग के मुखिया सुरजेवाला हैं। पार्टी का सन्देश जनता तक पहुँचाने के लिए जिम्मेदार सुरजेवाला हैं। जनसंचार में सुरजेवाला का प्रदर्शन अब तक साफ चुका है। चुनाव में उनका प्रदर्शन भी उतना ही बुरा है। चुनाव और जनसंचार दोनों में विफल होने के बावजूद सुरजेवाला का कदम कांग्रेस में बढ़ता गया है। वो बिग बॉस इन वेटिंग के करीबी माने जाते हैं।
कामकाजी प्रदर्शन में न्यूनतम किन्तु प्रमोशन में सर्वोत्तम फल प्राप्त करने वाले ऐसे लोग आपको हर विभाग, हर कम्पनी, हर महकमे में मिलेंगे। ऐसे विभाग, कम्पनी, महकमों, दलों का क्या हश्र होता है, इसका अनुमान आप खुद लगाएँ लेकिन कहीं भी आपको ऐसा होते दिखे तो आप कह सकते हैं कि वह संस्था सुरजेवाला सिण्ड्रोम से ग्रस्त है। आप सबसे मेरी अपील है कि ऐसी स्थितियों की व्याख्या करते हुए 'सुरजेवाला सिण्ड्रोम' पद का इस्तेमाल जरूर करें। सारे सिण्ड्रोम की खोज विदेशी क्यों करेंंगे? हम हिन्दुस्तानी भी अपने सिण्ड्रोम खोज सकते हैं।
अब आते हैं नीतीश कुमार की 64 कलाओं पर। कई बार लगता है कि शराबबन्दी के नशे में चूर नीतीश कुमार की मति मारी जा चुकी है। राज्यसभा टिकट बँटवारे ने यह साबित किया है कि उनके दिमाग का फ्यूज उड़ने वारी बातें कोरी अफवाह हैं। नीतीश ने अनिल हेगड़े और खीरू महतो को राज्यसभा भेजा है। अनिल हेगड़े तो कर्मठ समर्पित पार्टी कार्यकर्ता की मिसाल हैं। वह कर्नाटक से आते हैं जहाँ जद-यू का गोतिया जद-एस की वही स्थिति है जैसी जदयू की बिहार में है। आप कह सकते हैं कि हेगड़े के राज्यसभा जाने से समर्पित कार्यकर्ता और कर्नाटक को पुरस्कृत किया गया है।
खीरू महतो झारखण्ड जदयू के प्रदेश अध्यक्ष थे। वो भी लम्बे समय से पार्टी कार्यकर्ता हैं। बिहार में प्रभावी दलों के लिए झारखण्ड पहला स्वाभाविक एक्सटेंशन है। महतो को राज्यसभा भेजकर भी समर्पित कार्यकर्ता और झारखण्ड को पुरस्कृत किया गया है। जातीय राजनीति के हिसाब से देखें तो भी हेगड़े और महतो क्रमशः कर्नाटक और झारखण्ड के लिए सही चयन दिखते हैं।
अब आते हैं आरसीपी सिंह पर। बिहारी ठीहों पर आज इसी बात की चर्चा ज्यादा है कि आरसीपी की राज्यसभा से पत्ता कट गया। आरसीपी सिंह की कुल राजनीतिक पूँजी क्या थी? जाति और स्वामी-भक्ति। बेनी प्रसाद वर्मा के सचिव से नीतीश कुमार के सचिव बनने तक उनको आदेश-निर्देश लेने की अच्छी आदत पड़ी हुई थी। नेता बनने के चक्कर में उनकी पुरानी आदत जाती रही।
जब प्रशान्त किशोर को जदयू से अलग हुए तो कई जानकारों ने दावा किया कि आरसीपी से उनका ईगो-क्लैश ही उनकी विदाई का कारण बना था। आरसीपी को नीतीश ने दो बार राज्यसभा भेजा। पार्टी अध्यक्ष बनाया। मोदी-कैबिनेट में मन्त्री-पद दिलाया। नतीजा यह हुआ कि इस तरह की खबरें आने लगीं कि स्वामी को रिप्लेस करके अपनी जाति के नेता खुद बनना चाहते हैं। जाति के नेता वो बनेंगे या नहीं यह तो अगले चुनाव में पता चलेगा लेकिन जब कुर्सी एक हो दावेदार दो तो वही होता है जो आरसीपी का हो रहा है।
आरसीपी फिलहाल मोदी सरकार में स्टील मन्त्री हैं लेकिन खुद उनमें कितना स्टील है यह अगले कुछ दिनों में पता चल जाएगा। कुछ समय पहले नीतीश का बयान आया था कि वो देशहित में कोई भी फैसला ले सकते हैं। हो सकता है कि आरसीपी के लिए भी देशहित हर हित से देशहित सर्वोपरी हो। वो भी देशहित में कोई भी फैसला ले सकते हैं। हर राजनेता के लिए देशहित सर्वोपरी होना चाहिए लेकिन सुरजेवाला सिण्ड्रोम से ग्रस्त राहुल गांधी और कांग्रेस को यह बात कौन समझाए!
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।