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भाजपा के कमंडल में फंसी जातियों के भूत के फेर में फंसी कांग्रेस डूब जाएगी!
भारत में मंडल कमंडल की राजनीति की शुरुआत 1988 के बाद जिस तेजी से शुरू हुई वो रफ्तार पकड़ती चली गई। मंडल का जिम्मा जहां वीपी सिंह , लालू यादव , मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार , रामविलास पासवान, शरद यादव समेत और कई समांतर नेताओं का था। जबकि कमंडल की राजनीत का जिम्मा अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी, महत अवैधनाथ, कल्याण सिंह , सिंघल समेत और कई हिंदुवादी नेता थे।
अब इस जातीय जनगणना के फेर में फंसी कांग्रेस
कांग्रेस का वोट बेंक हमेशा, ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित रहा. इसक बाद पिछड़ो ने कभी भी कांग्रेस पर विश्वास नहीं जताया जबकि कांग्रेस इस बार पिछड़ो के फेर में फंसी हुई है। क्योंकि पिछड़े समाज के इतने नेता बने कि पूरा पिछड़ा समाज अपने अपने नेता के पीछे हो लिया। ये दंभ बीजेपी ने 2014 के चुनाव में तोड़ दिया। जब पिछड़ों में फुट डालकर सभी पिछड़े नेताओं को हासिये पर चले गए। जिनमें खासतौर पर लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीशकुमार समेत कई नेता थे। साथ ही कई नेता जो बीजेपी के साथ चले गए व सब मंत्री बनाए गए थे। जिनमें यूपी से अनुप्रिया पटेल, ओमप्रकाश राजभर बिहार से उपेन्द्र कुशवाहा, रामविलास पासवान समेत कई नेता इस वैतरणी पर बैठकर नेता बने।
अब इस का तोड़ कांग्रेस खोज रही है जो नामुमकिन है इसको खत्म करने के लिए पिछले चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा, अखिलेश यादव खूब ताकत लगाकर भी सत्ता के नजदीक नहीं पहुंचे। लेकिन बीजेपी के लिए सीटें जरूर कम हुई लेकिन सत्ता नहीं रोक पाए। अब आने वाले समय में बीजेपी को रोकने के लिए जातीय जनगणना के खेल से रोकना बेहद मुश्किल भरा काम होगा। कांग्रेस अब सिर्फ अपनी सेकुलर राजनीत से ही बीजेपी को पछाड़ सकती है क्योंकि आज भी 30 प्रतिशत हिंदू सेकुलर पोजीशन में रहता है लेकिन अगर उसे धार्मिक मामलों में उलझाया जाएगा टो सिर्फ बीजेपी के साथ रहेगा कांग्रेस के नहीं।
कांग्रेस ने जातीय जनगणना की बात करके नहीं किया खुद पर लागू
अभी बीते दिनों पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी जहां जातीय जनगणना की हिमायत करते रहे लेकिन जब टिकिट बांटे तो उस हिसाब से नहीं दिए इसका परिणाम ये जरूर हुआ जो पिछड़े कांग्रेस को वोट देने का मन बना रहे थे वो अब कांग्रेस के लिए वोट देने को राजी नहीं थे, कांग्रेस अब कुछ एसे लोगों के चुंगल में फंसी है जिनको खुद भी कभी किसी चुनाव में 5 हजार वोट नहीं मिले या जिन्हे पार्टी के संगठन से कोई मतलब नहीं है, एसे में कांग्रेस विश्व की सबसे बड़ी पार्टी और सबसे बड़े संगठन के साथ मिलकर खेल में हमेशा हारेगी नहीं तो क्या जीतेगी।
जिस नेहरू को बदनाम करके बीजेपी वोट पा रही है उसी कांग्रेस के हिमायती बने लोग आरएसएस के खिलाफ दुष्प्रचार करके बीजेपी को ऑक्सीजन देने का काम करते है। इस तरह प्रोपेगण्डा प्रचार में बीजेपी से कांग्रेस का जितना बेहद मुश्किल काम है। लिहाजा कांग्रेस की महंगाई , गरीबी असमानता , शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार पर बात करनी पड़ेगी। तब जनता का विश्वास हासिल करके बीजेपी से लड़ पाओगे अभी तो लड़ाई में भी आना मुश्किल प्रतीत होता है।
मंडल की राजनीत के साथ कमंडल की गलबहियाँ
मंडल की राजनीति के उभार और उसके ठीक समानांतर राम मंदिर आंदोलन ने पहली बार जाति-बिरादरी के मुद्दों को हिंदुत्व की बहस में जगह दिलवाने का काम किया. ऐसा नहीं है कि जाति को लेकर हिंदुत्ववादी हलके में कोई सचेत अथवा निरंतर प्रयास किया गया. यह उस दौर की करवट लेती राजनीति का परिणाम था, जिसमें सवर्ण जातियां और पिछड़ी जातियां दोनों ही मंडल और कमंडल आंदोलन का हिस्सा बराबर थीं. मंडल आयोग की सिफारिशों के पक्ष में पिछड़े थे तो विरोध में सवर्ण थे. दोनों आंदोलनरत थे. राम मंदिर आंदोलन में सवर्ण से लेकर पिछड़ा और दलित सभी शामिल थे. इन्हीं दोनों समानांतर आंदोलनों ने उमा भारती, विनय कटियार, कल्याण सिंह जैसे पिछड़ा नेताओं को उभारा. बड़ी संख्या में राम मंदिर आंदोलन में ऐसे साधु शामिल थे जो सवर्ण नहीं थे.
कैसे जातियाँ हिंदुत्व के सोशल इंजीनियरिंग फेर में आई
आंदोलन और प्रति-आंदोलन से बनता यह नया हिंदुत्व संघ के ब्राह्मणवाद और सावरकर के संहिताबद्ध हिंदुत्व से एक विक्षेप निर्मित कर रहा था. इसका चरित्र संक्रमणकालीन था, लेकिन भविष्य के बीज इसमें छुपे हुए थे. यह संयोग नहीं है कि परंपरागत रूप से मराठी ब्राह्मणों की बपौती माना जाने वाला पद बाबरी विध्वंस के दो साल बाद ही सन 1994 में उत्तर प्रदेश के एक राजपूत के पास चला गया- रज्जू भइया का सरसंघचालक बनना संघ के इतिहास में एक करवट थी. यह बेहोशी की करवट नहीं थी, सचेत थी. यानी राम मंदिर आंदोलन वह मोड़ था जब से संघ और उसके अनुषंगी (कुछ और साल तक विद्यार्थी परिषद को छोड़कर) भाजपा के पश्चगामी हो गए. वैचारिकी अपनी जगह ठस रह गई, राजनीति आगे चलने लगी. यह राजनीति ‘हिंदू होने की भावना’ पर आधारित थी और अपनी प्रकृति में तरल थी. इस तरलता ने भागीदारी की मांग करने वाले तबकों को सबसे पहले खींचा- पहले पिछड़ी जातियां भाजपा के फोल्ड में आईं, उसके बाद दलित. हिंदुत्व की यह नई-नई तरलता दिखने में समावेशी थी क्योंकि अपनी परिभाषा में अस्पष्ट थी.
मंडल वाले दल दलदल में फंस गए
इसके उलट, मंडल की राजनीति से उभरे क्षेत्रीय दल अपनी प्रांतीय चुनावी सफलताओं के बूते यह मानते रहे कि हिंदुत्व की काट जाति की राजनीति है (जिसे वे सामाजिक न्याय की राजनीति कहते हैं). हकीकत यह थी कि सामाजिक घटनाक्रम के दबावों में उभरी जाति की राजनीति ही परदे के पीछे से हिंदुत्व को परिष्कृत और परिमार्जित करने का काम कर रही थी और संघ खुद इस नए हिंदुत्व की चुनावी सफलताओं से बंधा हुआ था. सामाजिक न्यायवादी ताकतों की इस गफलत का नतीजा यह हुआ कि संघ में पहला और अंतिम गैर-मराठी, गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक बनने के महज बीस साल के भीतर यानी 2014 में 34 प्रतिशत ओबीसी और करीब 45 प्रतिशत गैर-जाटव दलित भाजपा के पाले में आ गए. नरेंद्र मोदी को सत्ताशीर्ष पर बैठाने वाले इसी आम चुनाव के बाद कई जानकारों ने मंडल की राजनीति के अंत की घोषणा कर दी थी.
इसके बाद एक-एक कर के क्षेत्रीय दलों को भाजपा निगलती गई. बावजूद इसके सामाजिक न्याय वाले दलों की गफलत नहीं मिटी क्योंकि सूबों में एकाध सफलताएं मिलती रहीं, विशेष रूप से बिहार से लगातार यह हवा चलाई जाती रही कि जाति ही हिंदुत्व की काट है. इस साल भी जब अगस्त में बिहार के जातिगणना के परिणाम आए, तो मंडल में नए सिरे से हवा भर दी गई.
राजनीतिक नैरेटिव और दृष्टि के अभाव तथा सांगठनिक संकट से जूझ रही कांग्रेस ने उस गुब्बारे को लपक लिया. ओबीसी गणना का नारा देकर राहुल गांधी ने सोचा कि मैदान मार लेंगे, लेकिन 5 दिसंबर को आए चुनाव परिणामों में कांग्रेस तीन मैदानों में खेत रही. अकेले तेलंगाना में जो कांग्रेस जीती है, वहां भी किसी ओबीसी या दलित को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया है जबकि चुनाव से पहले ही अमित शाह ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर के एक सुर्रा छोड़ आए थे. यह आकांक्षा वहां आज नहीं तो कल कांग्रेस को ले डूबेगी.
कांग्रेस अपनी वैचारिकी से कट गई
आज स्थिति यह है कि मंडल-2 के फेर में कांग्रेस अपने मूल विचार से (अगर कोई था, तो) पूरी तरह भटक कर वैचारिक जमीन गंवा चुकी है. जो क्षेत्रीय दल उसके साथ होने का दम भर रहे हैं, उनके पास अपने-अपने जातिगत गिरोहों को बचाने के लिए सजातीय वोट के अलावा कोई विचार नहीं है. इसके उलट, सच्चाई यह है कि 41 प्रतिशत ओबीसी, 48 प्रतिशत ईबीसी, 60 प्रतिशत गैर-जाटव दलित और 19 प्रतिशत जाटव वोट भाजपा के हो चुके हैं (2019). पांच साल के भीतर इसमें कोई व्यतिक्रम या घटाव आया हो, इसके कोई संकेत नहीं हैं.
यानी, राम मंदिर आंदोलन से लेकर राम मंदिर के बनने तक कमंडल की मुकम्मल यात्रा पूरी करने के सफर में भाजपा और संघ ने मंडल को भी पूरी तरह साध लिया है. अगले महीने राम मंदिर के हवनकुंड में जब कमंडल की राजनीति की अंतिम समिधा दी जाएगी, तो मंडल की राजनीति भी उसी के साथ हमेशा के लिए स्वाहा हो जाएगी. विडम्बना यह है कि कमंडल के सूत्रधार रहे लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे प्रचारक मंडल की इस ऐतिहासिक परिणति का गवाह नहीं बन पाएंगे क्योंकि संघोत्तर हिंदुत्व में उनकी जगह न पहले थी, न आज है.