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अवधेश कुमार
श्रद्धेय दलाई लामा के बयान के बाद भारत विभाजन के अपने अध्ययन को फिर से याद करने की कोशिश में लगा था। भारत विभाजन पर मेरे कुछ भाषण हुए थे, उससे संबंधित जो कुछ नोट मैंने बनाए थे उसमें से कुछ विन्दू निकाल रहा था। इतने बड़े विषय को अखबार के संपादकीय पृष्ठ के लिए लिखना जरा कठिन था। किंतु पूरा किया।
उस समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दो ऐसे संगठन थे जिनसे अंग्रेज बातचीत कर रहे थे। जितना अध्ययन मैंने किया है और जितने तथ्य मेरे सामने आए हैं उनसे मेरा निष्कर्ष यह है कि कांग्रेस में यद्यपि भारत बंटवारे के विरोधियों की बड़ी संख्या थी, लेकिन वे महत्वहीन थे। अंग्रेजों की नजर में दो ही नेता प्रमुख थे, प. जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल। माउंटबेटन कांग्रेस के नाम पर मुख्यतः इन्हीं दोनों नेता से बात करते थे। गांधी जी के कद को देखते हुए बात करना उनकी मजबूरी थी, अन्यथा वे गांधी जी को नजरअंदाज ही करते।
वास्तव में गांधी जी बंटवारे के विरुद्ध खड़े थे, जितना संभव था प्रयास कर रहे थे। दूसरी ओर नेहरु और पटेल इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि बंटवारे के बगैर कोई चारा नहीं है। सरदार पटेल ने माउंटबेटन को कह दिया था कि गांधी जी के अखंड भारत के प्रस्ताव पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। माउंटबेटन ने उस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली को लिखा कि बंटवारे की योजना के विरोध में एक ही व्यक्ति खड़ा है, गांधी। किंतु नेहरु और पटेल के द्वारा वे इसको अंजाम दे देंगे। गांधी जी ने भारत बंटवारे को रोकने के लिए जितने प्रयास किए उन्हीं में से एक था, जिन्ना को प्रधानमंत्री बना देने का प्रस्ताव। वे जानते थे कि जो वातावरण है उसमें जिन्ना का भारी विरोध होगा, उनके खिलाफ भी लोग उतरेंगे, हिंसा भी होगी, किंतु भारत बंटने से बच जाएगा। दलाई लामा जी का वक्तव्य बिल्कुल सही है। हालांकि उन्होंने विवाद उभरने पर बौद्ध धर्मगुरु की गरिमा का पालन करते हुए क्षमा मांग लिया है। पर जो उन्होंने कहा वह सच है।