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चौधरी अजित सिंह : विरासत का धनी - ज्ञानेन्द्र रावत

Arun Mishra
7 May 2021 3:30 PM IST
चौधरी अजित सिंह : विरासत का धनी - ज्ञानेन्द्र रावत
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किसान नेता के रूप में विख्यात और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह का देहान्त हो गया।

गत दिवस देश की राजनीति में किसान नेता के रूप में विख्यात और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह का 82 वर्ष की आयु में बीमारी के दौरान गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में देहान्त हो गया। उनके निधन से देश में किसान राजनीति में यकायक एक ठहराव सा आ गया है और यह भी निश्चित है कि शीघ्र ही उस रिक्त स्थान की भरपायी असंभव होगी। इसमें दो राय नहीं कि भले मौजूदा दौर में वह सांसद या मंत्री नही थे, लेकिन यदि कोरोना काल न होता तो आज देश की राजधानी किसानों और उनके समर्थकों से पटी होती। यह उनके व्यक्तित्व और किसान व उनके समर्थकों में उनके प्रति स्नेह, श्रृद्धा का ही सबूत होता।

इसके पीछे सबसे बडा़ कारण देश की राजनीति में 1936 से 1987 यानी लगातार पांच दशकों तक किसान राजनीति के पुरोधा रहे या यूं कहें कि किसानों के देवतुल्य माने जाने वाले मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री उनके पिता चौधरी चरण सिंह रहे। यह भी सच है कि यदि देश की किसान राजनीति में जब जब किसानों के मसीहा की बात आती है तो रहबरे आजम चौधरी छोटूराम के बाद चौधरी चरण सिंह ही अकेले ऐसे नेता रहे जिन्हें कश्मीर से कन्या कुमारी तक और सौराष्ट्र से देश के पूर्वी सीमांत प्रदेश अरुणाचल तक के किसान ने अपना भाग्य विधाता माना। वोट क्लब, दिल्ली में उनके 77वें जन्म दिवस पर आयोजित रैली इसकी जीती जागती मिसाल है जो हिन्दुस्तान के इतिहास में किसानों की सबसे बडी़ रैली मानी जाती है।ऐसे पिता की विरासत को उनकी बीमारी के दौरान 1986 में संभाला खड़गपुर आईआईटी से बीटैक और इलिनियास इंस्टीट्यूट आफ टैक्नालाजी, अमेरिका से एम एस कर चुके अजित सिंह ने।

जाहिर है कि इतने महान पिता का पुत्र होना कम गौरव की बात नहीं होती। फिर विरासत के रूप में मिली राजनीति में किसान समर्थन की विराट संपदा जिसने उन्हें 1986 में राजनीति में पदार्पण के साथ ही देश के सर्वोच्च सदन राज्य सभा में पहुंचा दिया। उसके बाद अजित सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। नतीजतन 1989 में वह लोकसभा पहुंचे, केन्द्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में उद्योग मंत्री, 1991 में दसवीं लोकसभा में चुनकर पहुंचे और केन्द्रीय खाद्य मंत्री बने। 96 में 11वीं लोकसभा, 1999 में 13 वीं लोकसभा में विजयी होकर कृषि मंत्री बने। 2004 और 2009 में फिर लोकसभा पहुंचे और 2009 में नागरिक उड्डयन मंत्री का दायित्व संभाला। इस कालखंड की यात्रा के दौरान उन्होंने कभी लोकदल (अ) पार्टी बनायी, उसके अध्यक्ष बने तो 1988 में जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। 1989 में जनता दल के महासचिव बने तो 1996 में भारतीय किसान कामगार पार्टी के अध्यक्ष बने। उसके बाद राष्ट्रीय लोकदल का गठन किया

जिसके वह आजीवन अध्यक्ष रहे।

उनके बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है और लिखा भी गया है लेकिन यह बात बिलकुल सही है कि किसानों का प्रेम उनके प्रति अंतिम समय तक बना रहा। और यह भी कटु सत्य है कि किसानों की समस्याओं के प्रति वह हमेशा चिंतित रहते थे। वह कहते थे कि कृषि और ग्रामीण भारत की समस्या आजतक सही ढंग से नहीं समझी जा सकी। या यूं कहें कि नीति संबंधी उपाय अपर्याप्त और अनुपयुक्त रहे हैं। इसे यूं समझें कि दूसरे क्षेत्रों का देश के संसाधनों में हिस्सा उनके अनुपात से ज्यादा रहा है। इसके परिणाम कृषि और ग्रामीण जनता के लिए घातक रहे हैं। हमारे गांव अनेकानेक समस्याओं से ग्रस्त हैं जिनमें आज भी बडे़ पैमाने पर निरक्षरता, कुपोषण, इन सबसे अधिक गरीबी का कुचक्र जिसके चलते न जाने कितने ही जीवन इसकी भेंट चढ़ते रहे हैं। उनका मानना था कि हमारे ग्रामीण भाइयों की समस्याओं के कारणों को लेकर हमारे बीच मतभेद हो सकता है लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि हम कृषि और ग्राम विकास को एक नयी सामाजिक व्यवस्था का आधार बनाने में बुरी तरह असफल रहे हैं। हमारे यहां जमीन एक स्थिर कारक बन चुका है। कुछ क्षेत्रों में बढ़ते जनसंख्या के दबाव के चलते नाकारा व खराब जमीन के कारण घाटे का कारक बन गया है। बहुत बडे़ हिस्से में तो अभी भी हम मौसम देवता की मेहरबानी पर निर्भर हैं। मेरे विचार में अपनी वरीयताओं को तय करने में कुछ भ्रम के साथ विचारों की भी कमी रही है। सच तो यह है कि असल में हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी कमजोरियों को पहचानने में पूरी तरह असफल रहे हैं जिसके बारे में सोच और दृष्टिकोण में कहां कमी रही है, उसके बारे में सोचे और सही नीति के क्रियान्वयन के बिना सुखद परिणाम की आशा नहीं की जा सकती।

जहां तक अपने मंत्रित्व काल में कृषि और किसान हितकारी कार्यों का सवाल है, उन्होंने सबसे पहले दो हैक्टेयर भूमि की सीमा तक सूखा राहत की सुविधा दिलवायी। चीनी मिलों की स्थापना में बढ़ चढ़ कर भूमिका निबाही और चीनी मिलों की स्थापना मे उनके बीच की दूरी पच्चीस किलोमीटर से घटाकर पन्द्रह किलोमीटर करवायी जिससे गन्ना किसानों को बडी़ राहत मिली। कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य में बढो़तरी व नियंत्रित व्यापार पर लगी रोक को खत्म करवायी। डेयरी एवं दुग्ध उत्पाद आदेश में संशोधन करवाकर उसमें क्षेत्रीय आरक्षण की नीति का खात्मा कराया। राष्ट्रीय गौ पशुधन आयोग और पशुधन शोध व पशु स्वास्थ्य संस्थान की स्थापना करवाई। साथ ही कीटनाशक अधिनियम में संशोधन के जरिये यह व्यवस्था करवायी कि कीटनाशक विक्रेता अपने यहां एक कृषि स्नातक को रोजगार देगा।

दरअसल वह पश्चिमोत्तर प्रदेश को हरित प्रदेश बनाये जाने के प्रबल पक्षधर थे। इस हेतु लम्बे समय तक उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकदल ने संघर्ष किया। धरने,प्रदर्शन और घेराव का सिलसिला बरसों तक चला।और तो और मेरठ में उच्च न्यायालय की खण्डपीठ स्थापना हेतु भी उनके दल ने लम्बा संघर्ष चलाया और वकीलों की इस मांग का पुरजोर समर्थन भी किया। लेकिन जब जब उत्तर प्रदेश विधान सभा में इस प्रस्ताव पर समर्थन की बात आयी मायावती नीतित बसपा ने निहित स्वार्थों की वजह से किनारा कर लिया और न हरित प्रदेश और न ही हाईकोर्ट की खण्डपीठ का मसला लटका ही रह गया। इसका सबसे बडा़ कारण यह था कि भाजपा के लिए झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के गठन के बाद नये राज्यों का गठन उस समय आसान नहीं था।

बहरहाल यह सच है कि मैंने अपने जीवन में बहुतेरे राजनीतिक नेताओं को देखा है, उनके निकट संपर्क में भी रहा हूं लेकिन जनप्रियता के मामले में अजित सिंह जी का कोई मुकाबला नहीं है। मुझे उनके साथ लोकदल (अजित) के दौर में अधिकांश कार्य करने का अवसर मिला जब मैं लोकदल पत्रिका के संपादन का कार्य देखता था। ऐसा कभी भी कोई अवसर नहीं आया जब उन्होंने मेरे लिखे पर आपत्ति की हो। कहने को उसके बाद किसान ट्रस्ट में असली भारत और चौधरी साहब की पुस्तकों के संपादन के दौरान भी उन्होंने सदैव मेरा उत्साह वर्धन ही किया। असल में वह जितने बडे़ नेता थे, उतने बडे़ दिलवाले भी थे। किसान वह भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश का तो उनपर जान छिड़कता था। एक आवाज पर लाखों किसानों का रेला उनके आवास 12-तुगलक रोड आ जाना आम बात थी। ऐसे नेता विरले ही पैदा होते हैं और यह भी सच है कि इसमें चौधरी चरण सिंह जी की लोकप्रियता की अहम भूमिका थी। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह बहुत याद आयेंगे, इसमें दो राय नहीं।

अब इतना तय है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में आयी रिक्तता चौधरी अजित सिंह के पुत्र जयंत सिंह कहां तक भर पायेंगे और चौधरी चरण सिंह की विरासत को किस तरह संजोकर रख पायेंगे, यह भविष्य के गर्भ में है। वैसे जयंत सिंह को लोकसभा के एक कार्यकाल का अनुभव भी है और उन्होंने बचपन से ही राजनीति का ककहरा भलीभांति सीखा भी है और पढा़ भी है। लोकदल की राजनीति वह लगभग एक दशक से भी अधिक से कर रहे हैं और किसानों में उनकी खासी पकड़ भी है।

हां इतना सच है कि जयंत सिंह को भले इलाके का किसान छोटे चौधरी के नाम से बुलाता है,कहता है लेकिन उसके प्यार-दुलार को वह कहां और किस सीमा तक बरकरार रख पायेंगे, यह आने वाला समय बतायेगा। निष्कर्ष यह कि अभी अजित सिंह के जाने से जो राजनीति में खालीपन आया है, फिलहाल वह पूरा होना असंभव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)

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