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दिग्विजय सिंह बन जाना आसान नहीं, देनी पड़ती है कई परीक्षा!
मनीष सिंह
पिछले साल की बात है। कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव था। राहुल के इस्तीफे के बाद सोनिया पद पर थी, और उनका नेतृत्व इस बार निष्प्रभावी था। सुनने में आया कि राज्यो के क्षत्रपों को अध्यक्ष पद ऑफर किया गया था। पर सभी अपनी मनसबदारी में खुश थे। गिरती हुई पार्टी के मयार को उठाने के लिए, एक क्रूर, बदमाश सत्ता के मुकाबिल, खड़ा होने का दम, किसी मे नही था। सबसे विचित्र, और निकृष्ट रवैया गहलोत का था। जिन्होंने खुलेआम केंद्र की गद्दी को लात मारकर, जयपुर के पीढ़े पर जीमना, बेहतर समझा।
जब फेवरिट्स पीठ दिखाकर भाग रहे थे, दिग्विजय सिंह पर्चा खरीदने पहुचें। शशि थरूर ने भी दावेदारी की, सलाम उन्हें भी। लेकिन उत्तर भारत, जो पार्टी के लिए सूखा रेगिस्तान बना हुआ है, वहाँ से दिग्विजय ने बीड़ा उठाने का इरादा दिखाया। हालांकि, गांधी परिवार का झुकाव खड़गे की तरफ देख, दिग्विजय ने अंततः पर्चा भरा नही..
पर वो मंजर था, जिसके बाद से यह पोस्ट लिखने का दिल था। दिग्विजय नब्बे के दशक में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पहला कार्यकाल, मध्यप्रदेश में पंचायती राज को सशक्त करने और कई लोकलुभावन योजनाओं से लबरेज था। मैं तब तक सर्विस में आ चुका था। मैनें देखा है कि तब, गांव गांव में दिग्विजय बड़े लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। हेल्थ सेंटर्स, स्कूल, मंडी, सड़कें, विस्तार हुए। जो RTI बाद में आया, कुछ उस तरह का सिटीजन चार्टर वे पहले ही लागू कर चुके थे। बढ़िया काम रहा, तो पुनः चुनकर आये। और दूसरा कार्यकाल, खराब रहा।
खास तौर पर घटिया सड़कें, उनके विफल शासन का आइकन बन गयी। छत्तीसगढ़ अलग हुआ, तो पॉवर हाउस, कोरबा हाथ से निकल गया। अजीत जोगी ने दो स्टेट के बीच हुए अनुबंध का पालन नही किया। नतीजा, छतीसगढ़ में हम मजे में आ गए, सरप्लस बिजली थी। और उधर एमपी.. का भगवान मालिक। तो त्रस्त जनता ने, अगले चुनाव में उनकी बिजली काट दी।
बड़बोलापन उनका दुश्मन रहा। दूसरे चुनाव में उनका जुमला- "चुनाव विकास से नही, मैनेजमेंट से जीते जाते है" कैदी के बिल्ले की तरह उनके गले में हमेशा के लिए लटक गया। अरे भाई, मोदी जी की भाजपा भी तो यही करती है न, पर ऐसा बोलती नही.. दिग्विजय को भी बोलना नही चाहिए था।आगे चलकर बाटला हाउस और ओसामा जी जैसे बयान भी उनके दामन पर दाग बने। मगर घातक था वो जुमला- "चुनाव हारा, तो दस साल कोई पद नही लूंगा"
अफसोस, कि भारतीय इतिहास में इस तरह के बड़बोलेपन को, पूरी गम्भीरता से निभाने वाले अकेले राजनेता बने। दिग्विजय ने सचमुच दस साल, पार्टी में और कॉन्स्टिट्यूशनल कोई पद नही लिया। आम कार्यकर्ता बनकर रहे।
पिद्दी नेता सब लीडर बन बैठे, कांग्रेस एमपी में खण्ड खण्ड होती चली गयी। अगर शिवराज का दौर निष्कंटक गुजरा, तो इसमे दिग्विजय के राजनीतिक आत्मनिर्वासन के फैसले का बड़ा योगदान था। इसे इस बात से समझिये की 10 साला निर्वासन समाप्त होते ही, वे नर्मदा यात्रा पर निकले। एमपी कांग्रेस को जीवित किया, और शिवराज को 2 साल में सत्ता से निकाल बाहर फेंका।
पर सत्ता कमलनाथ की हुई। चुटकी बजाकर क्विक-क्विक करने वाले कमलनाथ ने वो सत्ता उतनी ही क्विकली गंवा दी। फिर दोबारा, जीती हुई बाजी भी हार गए। लक्षण तभी दिख गए थे, जब टिकट बंटवारे में दिग्विजय से सलाह मशवरे नही किये। दरअसल, थोपी गयी तमाम बदनामी, और उनके प्रति पूर्वाग्रहों के बावजूद, मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जोड़ सकने वाला, अकेला नेता कोई है, तो वह दिग्विजय हैं। यह बात छत्तीसगढ़, और एमपी की सारी सीटों पर लागू है। नए पुराने कांग्रेसी के बीच वाइडली रिस्पेक्टेड, हरदिल अजीज, चलती फिरती फोनबुक, और डेटा बैंक.. और खांटी पोलिटीशियन। ही नोज, हाउ टू विन..
उनकी मेहनत की मलाई सिंधिया, कमलनाथ चाभकर, भाजपा के झाड़फानूस बन गए। पर दिग्विजय की वफादारी पर कोई संशय नही। अकेले नेता है, जिसे राज्य में मुख्यमंत्री बनने का शौक नही। कोई प्रकट महत्वाकांक्षा नही। तो समझ नही आता, कि वे राजनीतिक जीवन मे सक्रिय क्यो है?? क्यो हर जगह दिखाई देते है? 75 साल की उम्र कभी भारत जोड़ो यात्रा में चलते हैं, कभी अध्यक्षी का पर्चा खरीदते दिखते है, फिर इशारा मिलते ही उसे छिपाते भी है। जब मुंह खोलते है, तो आरएसएस को गरियाते दिखते है-
मुस्कान के साथ..
कोई और होता, तो लटका दिया गया होता। लेकिन CBI, ED कुछ खोज न सकी। लम्बे राजनीतिक करियर में कोई घोटाला नही, स्कैम नही.. एक कांग्रेसी के लिए क्या ये छोटी उपलब्धि है भला?? उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं। संगठन की समझ वाले बेहद कम नेता कांग्रेस में बचे हैं। कोई प्रभुत्वशाली अगर इसे पढ़े, तो सन्देश यही, कि जितनी भी ऊर्जा दिग्विजय में बची हो.. उसकी पाई पाई इस्तेमाल कर डाले।