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मीडिया में खुलेआम चल रहा राजनीतिक ब्रेनवाश करने का यह डर्टी गेम, जनता को अलग- अलग चश्मे से दिखाई जाती है घटनाएं
मीडिया कैसे लोगों का माइंड सेट चेंज करके अपना राजनीतिक एजेंडा देश में फैलाता है, यह पालघर की घटना से समझा जा सकता है। महाराष्ट्र में गृह मंत्री समेत खुद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने बाकायदा टीवी पर आकर बताया है कि संतों को हिन्दू भीड़ ने मारा है और जहां यह घटना हुई, वह मुस्लिम इलाका ही नहीं है। यह भी बता दिया है कि इसमें घटना वाले दिन ही 110 लोग गिरफ्तार कर लिए गए थे और अभी और लोगों की तलाश में छापेमारी चल रही है। जाहिर है, इसके आगे का काम अब अदालत और कानून को करना है क्योंकि एक मुख्यमंत्री इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता। अब भीड़ की तरह मुख्यमंत्री भी आरोपियों को पीट-पीट कर मार डालने या बिना अदालत गए गोली मारने अथवा फांसी चढ़ाने का आदेश तो नहीं दे सकता न?
अब चूंकि गैर भाजपा शासित राज्य ही इस समय मीडिया के निशाने पर रहते हैं तो मीडिया ने इसे कहीं भी उस अंदाज में नहीं पेश किया जैसे कि वह उत्तर प्रदेश की घटनाओं पर करता है। उसकी हेडलाइन या बहस उस अंदाज में नहीं की जा रही, जैसे वह भाजपा शासित राज्यों में होने वाली इसी तरह की घटनाओं पर होती है।
मिसाल के लिए , यूपी में हिन्दू कट्टरपंथी नेता कमलेश तिवारी की हत्या और उसके कुछ समय बाद ही हुए एक और हिन्दू कट्टरपंथी नेता रणजीत बच्चन हत्याकांड में मीडिया का कवरेज याद कीजिए। उन दोनों में से एक घटना में मुस्लिम कट्टरपंथी तो दूसरी में निजी रंजिश की बात सामने आई। लेकिन जैसे ही उसमें गिरफ्तारी हो गई तो मीडिया यह दिखाने लगा कि योगी किस कदर आक्रामक तरीके से कार्यवाही करते हैं, उनसे कोई बच नहीं सकता, एक्शन में योगी सरकार, योगीराज में ताबड़तोड़ कार्यवाही वगैरह वगैरह....
जबकि योगी ने भी उन दोनों घटनाओं में एक मुख्यमंत्री के तौर पर कानून की हद में रहते हुए वही किया, जो इस घटना में उद्वव ठाकरे ने किया है। मगर मीडिया की नजर में योगी हिन्दुओं के रक्षक सुपर मुख्यमंत्री और बेहद कड़क हैं जबकि उद्धव को ऐसे पेश किया जा रहा है मानों उनसे महाराष्ट्र संभल ही नहीं रहा... या उद्घव के राज में हिन्दू सुरक्षित नहीं रहे।
लोगों के इस राजनीतिक ब्रेनवाश का बाकी बचा खुचा काम सोशल मीडिया पर राजनीतिक दलों की आईटी सेल कर देती है। समझ नहीं आता कि अगर देश में मीडिया और आईटी सेल मिलकर इतनी आसानी से पूरे देश को राजनीतिक रोबोट या गुलाम बनाने में कामयाब हो जा रही हैं तो फिर क्या सरकार के कामकाज और उसके आधार पर होने वाली वोटिंग का अब कोई मतलब ही नहीं रह गया है?
अगर यह सच्चाई है तो जरा सोच कर देखिए कि क्या कभी भारत की दुश्मन विदेशी ताकतें इसी तरह से मीडिया और सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपना एजेंडा सेट करने या मुद्दा उछालने में नहीं कर सकतीं? जाहिर है, इस खतरे को देखते हुए हमें मीडिया और सोशल मीडिया की आचार संहिता भी बनवानी होगी और उसको पालन करवाने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान के जरिए निगरानी व्यवस्था भी बनानी होगी।