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राहुल को छोड़िए, सोनिया को भी नहीं बख्श रहे कांग्रेसी
शकील अख्तर
1977 की याद आ रही है! कांग्रेस की हार के बाद या कहना चाहिए इंदिरा गांधी की हार के बाद ज्यादातर कांग्रेसी घर बैठ गए थे। हवा भांप रहे थे। जब इन्दिरा जी गिरफ्तार हुईं तब भी अपने चबुबरे से नहीं हिले। भनक लेते रहे कि क्या प्रतिक्रिया है। जब 1980 में पूरा इत्मिनान हो गया। बेलछी हो आईं, तब हिले। आज भी वही हो रहा है। या तो प्रधानमंत्री मोदी की तरफ दोस्ती के पैगाम पहुंचाए जा रहे हैं या घर बैठा जा रहा है।
कांग्रेसी होंगे कभी वीर, बहादुर! अंग्रेजों से लड़ते हुए। आज तो सबसे डरे हुए दिखाई दे रहे हैं। फेंस पर बैठे हैं। दोनों तरफ ताक झांक करते रहते हैं। किधर कूदना है! कहां फायदा है? बड़े बड़े कांग्रेसी नेता पूछ रहे हैं, क्या टूट जाएगी? क्या असंतुष्टों का कांग्रेस मुख्यालय, 24 अकबर रोड पर कब्जा करवा दिया जाएगा? क्या राहुल गांधी को पार्टी से निष्कासित भी कर सकते हैं ? इन्दिरा गांधी को किया ही था। 1969 में। तब प्रेस (जो आज मीडिया कहलाता है) और दूसरी संस्थाएं जिन्दा थीं। आज तो कहानी ही बदल जाएगी। और बदल क्या जाएगी जो कहेंगे वह बना दी जाएगी!
इन्दिरा गांधी ने हिम्मत दिखाई थी। दोनों मोर्चों पर, अंदरूनी और बाहरी दोनों लड़ाईयां लड़ीं। राहुल बाहर तो लड़ रहे हैं मगर अंदर साहस नहीं दिखा पा रहे। न ही पार्टी में उनके आदमी कहलाने वाले लोग। जिन लोगों के लिए राहुल पर आरोप लगे कि इन्हें बढ़ाया जा रहा है, वे भी असंतुष्टों के मोदी प्रेम और राहुल विरोध पर चुप हैं। यह अलग तरह की राजनीति हो रही है, जहां ज्यादातर नेता एक ही तरफ भागे चले जा रहे हैं। और विपक्ष में राजनीतिक शून्य पैदा होता जा रहा है।
पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हैं। मगर ग्रुप 23 से चलकर फिलहाल 7 पर आ गए असंतुष्ट नेता किसी चुनाव वाले राज्य में नहीं गए। दिल्ली से बैठकर ही बंगाल के चुनावी गठबंधनों पर सवाल उठा रहे हैं। किसानों का समर्थन, चुनाव वाले राज्यों में जाने पर कह रहे हैं कि हमें किसी ने कहा नहीं। अच्छा! तो जम्मू जाने के लिए किसने कहा था? वहां सम्मेलन किस से पूछकर हुआ था? वहां गुलामनबी आजाद ने किसी बात के लिए चाहे खुद उन्हें राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाने, मुख्यमंत्री बनाने, यूपीए में मंत्री बनाने, उसके बाद कांग्रेस महासचिव बनाकर यूपी जैसे सबसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य का प्रभारी बनाने के लिए अपने किसी नेता का नाम नहीं लिया। सोनिया गांधी जैसी नेता का भी नहीं जिनकी उदारता ने आजाद को उंची से उंची पोस्ट दी।
राहुल से नाराजगी चलो मान लेते हैं कि उन्होंने खरा सच बोल दिया था कि जब मैं (अध्यक्ष के तौर पर) संघ और भाजपा से लड़ रहा था तो मेरे साथ कोई नहीं था। मगर सोनिया जिन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की उनके साथ भी क्रूर व्यवहार समझ से परे हैं। माना जाता था कि सत्ता की वापसी के बाद आजाद को और भी ज्यादा महत्व मिलेगा। अहमद पटेल के असामायिक निधन के बाद आजाद कांग्रेस के एकमात्र बड़े मुस्लिम फेस रह गए थे। उन्हें राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति तो बनाया ही जाता। मगर दीवार पर लिखी भूत और भविष्य की इस इबारत को पूरी तरह अनदेखा करके उन्होंने सोनिया के लिए भी अपनत्व का एक शब्द नहीं बोला। बोला सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के लिए! उनकी स्तुति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के नेताओं के प्रशस्ति गान को सुनकर कई बार भाजपा के नेताओं को भी टेंशन हो जाता है कि बिना प्रसंग के इतना तो हम भी नहीं बोल पाते।
प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ में कोई बुराई नहीं हैं। देश के प्रधानमंत्री हैं। मगर किसी उम्मीद में करना और कैरम की तरह रिबाऊंड शाट मारना कि उनकी प्रशंसा के साथ अपने नेताओं की आलोचना भी हो जाए कोई बड़प्पन की निशानी नहीं है। भाजपा में ऐसे कितने ही नेता हैं जो अपने नेता मोदी की प्रसंसा करते हैं मगर यह भी मानते हैं कि सोनिया गांधी में उदारता, बड़प्पन,
क्षमा भाव जैसे कई बड़े गुण हैं। सोनिया की भलाइयों को इन दिनों अगर कोई भूला है तो वे कांग्रेस के नेता। वे यह भी भूल गए कि उनके कहने से ही वे दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष का कांटों का ताज पहनने को तैयार हुईं थी। और अब फिर उन्होंने इन्हीं असंतुष्टों के साथ बैठक में और सीडब्ल्यूसी में कह दिया है कि पांच राज्यों के चुनाव खत्म होते ही कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव हो जाएंगे। जिसे लड़ना है लड़ सकता है। कांग्रेस में हमेशा ही
अध्यक्ष के चुनाव होते रहे हैं। बड़े बड़े नेता जीतते और हारते रहे हैं। खुद सोनिया गांधी को राजीव गांधी के सबसे विश्वासपात्र लोगों से अध्यक्ष पद के चुनाव में चुनौती मिली है। राजीव के राजनीतिक सचिव जितेन्द्र प्रसाद सोनिया के खिलाफ चुनाव लड़े। और इसके बाद भी सोनिया के मन में कभी कटुता नहीं आई। जितेन्द्र प्रसाद के न रहने के बाद उनके बेटे और पत्नी को राजनीति में लगातार मौके दिए। पत्नी कांता प्रसाद को लोकसभा का टिकट दिया। जितिन प्रसाद को यूपीए में मंत्री बनाया। जी 23 में शामिल होकर सोनिया के अस्पताल में भर्ती रहने के समय उन्हें पत्र लिखकर पार्टी पर सवाल उठाने के बावजूद सोनिया ने जितिन को महासचिव बनाकर चुनाव वाले राज्य प. बंगाल का प्रभारी बनाया। मगर उनकी यह सब कोशिशें कांग्रेसियों के असंतोष को दूर नहीं कर पा रहीं। कोई बड़ा बैट्समेन जब अपनी आखिरी पारी खेल रहा होता है तो विपक्षी बालर भी उसका सम्मान करते हैं। मगर यहां सोनिया की लास्ट इनिंग में तो खुद उनकी टीम के लोग उन्हें रन आउट करवाने के चक्कर में लगे हुए हैं।
अगर इन लोगों को राहुल से दिक्कत है तो फिर सोनिया के प्रति यह निर्मम व्यवहार क्यों? क्या सोनिया ऐसी अपमानजनक विदाई की हकदार हैं? राजीव गांधी की हत्या के बाद यही कांग्रेसी हजार मिन्नतें करके सोनिया को राजनीति में लाए थे। यही 2004 के बाद से राहुल कोई पद संभाले की रट लगाए थे। तब भी राहुल ने क्रम से चला। पहले महासचिव बने। फिऱ अध्यक्ष। जैसे सोनिया ने प्रधानमंत्री की कुर्सी स्वीकार नहीं की ऐसे ही राहुल ने यूपीए सरकार में कुछ नहीं लिया। अध्यक्ष बने तो दो साल में वह भी छोड़ दिया। कहा कि कोई गैर नेहरू गांधी अध्यक्ष चुन लीजिए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने कोशिश भी बहुत की। कई फार्मूले बनाए। मगर एकमत नहीं हो पाए। हारकर सोनिया के पास गए कि आप ही बन जाइए। सोनिया दूसरी बार अपने मन के खिलाफ इन कांग्रेसियों के लिए राजनीति के इस दलदल में कूदीं। और अब जब उनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा है तो कांग्रेस के नेता उन्हें मानसिक प्रताड़ना भी देने लगे। सोनिया अब सिर्फ दो तीन महीने के लिए अध्यक्ष हैं। जून में नए चुनाव होने तक मगर अफसोस कि कांग्रेसी इतना भी इंतजार नहीं कर पा रहे।
जून से पहले ही वह फैसला करना चाह रहे हैं। और फैसला भी पार्टी के अंदर नहीं पार्टी को खत्म करने का बीड़ा उठाए प्रतिद्वंद्वी पार्टी के नेता के साथ मिलकर। मोदी जी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। उसका असली मतलब कांग्रेस को नेहरू गांधी परिवार से मुक्त करना है। कांग्रेस के असंतुष्ट नेता इसी में सहयोग कर रहे हैं। वे कितना कामयाब होंगे, मोदी जी उनकी उपयोगिता के आधार उनकी कितनी मदद करेंगे निकट भविष्य में यह सब देखना बहुत दिलचस्प रहेगा!