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लालकृष्ण आडवाणी को अपने हिस्से का अपराधबोध हो चुका है! ...और हो भी क्यों न?

Shiv Kumar Mishra
13 Aug 2020 9:57 PM IST
लालकृष्ण आडवाणी को अपने हिस्से का अपराधबोध हो चुका है! ...और हो भी क्यों न?
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उनके करीबी मित्र अटलजी अपनी आखिरी सांस एक अस्पताल में लिए थे, मंदिर में नहीं!

रामभरत उपाध्याय

जब वह बोलता था तो प्रशासन के हाथ पांव फूल जाते थे! व्यक्तित्व ऐसा कि उसके माइक का चोंगा थाम लेने भर से आदमी प्रधानमंत्री बन जाए!! चार दशकों तक विपक्ष में बैठी और तीन बार अपना नामकरण कर चुकी पार्टी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने की काबिलियत थी उसमे!

फिर अचानक वो खामोश हो गया!!!

बीजेपी को सड़क से संसद तक पहुंचाने वाले लालकृष्ण आडवाणी पिछले 9 सालों से खामोश हैं! देश ने आखिरी बार उन्हें स्व. अटल जी की शोकसभा में बोलते देखा था! थकी हुई आवाज जो एक शून्य का परिचय दे रही थी!

सन 1980!!

देश कांग्रेस के सफल नेतृत्व में विकास की नयी इबारत लिख रहा है। देश की मूलभूत जरूरतों-रोटी कपड़ा मकान-के साथ साथ अन्य कई सोपानों जैसे-विदेश नीति, विद्युतीकरण, राजमार्ग,परमाणु विस्तार, स्पेस रिसर्च, IIT, AIIMS, IIM जैसे तकनीकी संस्थान,उच्च स्तर की स्वास्थ्य शिक्षा तथा कृषि जैसे विषयों पर बहुत कुछ किया जा रहा है। पडोसी देशों के साथ युद्ध भी लड़े जा रहे हैं। 9 साल पहले ही पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़कर देश की सेना ने अपनी सामरिक शक्ति का परचम बुलंद किया है।

लेकिन आपातकाल का दंश झेल चुके देश को कांग्रेस के नेतृत्व पर पूरा भरोसा है।

इसी दौरान जनसंघ से जनता पार्टी और जनता पार्टी से "भारतीय जनता पार्टी" का जन्म होता है।

सन 1984!!

एकाध मौकों को छोड़ दें तो भारतीय जनसंघ को जनता ने विपक्ष में ही जगह दी है। गठन के बाद भारतीय जनता पार्टी अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ती है और पूरे देश में उसे मात्र 2 सीटें मिलतीं हैं।

जबकि AAP (आम आदमी पार्टी) को अपने पहले लोकसभा चुनाव में इसी देश में 5 सीटें मिली थीं!

कांग्रेस को टक्कर देना इतना आसान नहीं है। पार्टी हार के कारणों पर मंथन करती है। लेकिन उसे कांग्रेस की कोई काट नहीं दिखाई पड़ रही। पार्टी ने ठान लिया है कि उसे किसी भी तरह देश की सत्ता पर काबिज होना ही है चाहे उसके लिए देश के भाईचारे तथा सौहार्द्र को दांव पर क्यों न लगाना पड़े!!

सन 1986!!

कट्टर हिंदुत्व छवि वाले लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी के अध्यक्ष चुन लिए गए हैं! जो देश अब तक इसरो, एम्स, IIT को लेकर गौरवान्वित हो रहा था, पड़ोसियों से युद्ध कर के सुस्ता रहा था, देश में सूचना क्रांति लाने के बारे में सोच रहा था.....लालकृष्ण अडवाणी ने उस देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया। पिछले चुनाव में दो सीटें पाने वाली पार्टी के अध्यक्ष ने चुनाव जीतने के लिए प्रभु श्री राम का सहारा लिया ! रामरथ यात्रा की घोषणा हो चुकी थी!! मंडल की काट कमंडल में खोजी जाने लगी!

....... और इस तरह विकास की ऊंचाइयों को छू रहा देश, एक गैरजरूरी मुद्दे में उलझ गया!

देश में एक अलग तरह की राजनीति की शुरुआत हो चुकी थी! साम्प्रदायिकता तथा ध्रुवीकरण की राजनीति! जो बच्चे एक साथ बड़े हुए अब वे कट्टर दुश्मन बन चुके थे। कुछ धर्म के नाम पर लड़ रहे थे तो कुछ जाति के!

तमाम तरह के मुद्दों से जूझ रहा देश अब अपने घर में लगी आग बुझा रहा था।

....और 1996 आते आते दो सीटों वाली बीजेपी 161 सीटें पर काबिज हो गयी!

साल 2001!!

शेर(बीजेपी) के मुंह अब मानवरक्त लग चुका था!! इसी क्रम में कई कट्टर नेता जो किसी जमाने में आडवाणी जी के माइक का चोंगा पकड़ते थे, वे अब अपने जहरीले बयानों और हरकतों से सत्ता की दहलीजों तक पहुँचने लगे। नरेंद्र मोदी का उदय हो चुका है! ये बताने की जरुरत नहीं है कि साल 2002 में देश के हालात क्या थे!

सन 2004!!

बीजेपी लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में चुनावी समर में उतरती है! वही लालकृष्ण जिसने मृतप्राय बीजेपी में जान फूंकने का काम किया पन्ना प्रमुखों को सत्ता का स्वाद चखाया देश के माहौल को बिगाड़ने का काम किया था!

1980 में पार्टी के अध्यक्ष बने आडवाणी जानते थे कि आने वाले भविष्य में उनका सामना एक ऐसी पीढ़ी से होगा जिसे मंदिर-मस्जिद से कोई लेना देना नहीं होगा! उसे रोजगार चाहिए होगा! उसे छत चाहिए होगा! बढ़िया अस्पताल और उम्दा कॉलेज चाहिए होंगे!

...और 2004 के आम चुनाव में यही हुआ! देश ने लालकृष्ण आडवाणी को नकार दिया। अटल जी की भी रही रही साख पर बट्टा लग गया! पोखरण न्यूक्लियर टेस्ट, कारगिल युद्ध और शाइनिंग इण्डिया जैसे मुद्द्दे हवा में ही रह गए!

...और जैसा कि अपेक्षित था, देश के नकारते ही आडवाणी जी खुद अपनी ही पार्टी के लिए अभिशाप बन गए। उन्हें पोस्टरों से हटाकर मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिया गया।

प्रभु श्रीराम को सत्ता की सीढ़ी बनाने वाला शख्स खुद एक सीढ़ी बन कर रह गया!

राजनीति में दूरदर्शिता बहुत मायने रखती है! वर्तमान हालात में जो संस्थान काम आ रहे हैं वे नेहरू- इंदिरा- राजीव- लालबहादुर शास्त्री और थोड़ा बहुत अटल जी जैसे कर्मठ नेताओ की दूरदर्शिता की देन है!

लालकृष्ण आडवाणी की दूरदर्शिता वाले संस्थानों पर ताला लग चुका है!

एक ऐसे वक्त में जब पीड़ित सबसे ज्यादा अपने भगवान को याद करता है, उस भगवान के ही घर में ताला लग चुका है!

मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरूद्वारे सब सूने पड़े हैं! किसी को कुछ नहीं सूझ रहा है!

जबकि सबसे ज्यादा कत्लेआम इसी मंदिर-मस्जिद बनाने को लेकर हुआ है!

स्कूल व हॉस्पिटल बनाने को लेकर कभी कत्लेआम नहीं होते!

लालकृष्ण आडवाणी को अपने हिस्से का अपराधबोध हो चुका है! ...और हो भी क्यों न? उनके करीबी मित्र अटलजी अपनी आखिरी सांस एक अस्पताल में लिए थे, मंदिर में नहीं!

यह अपराधबोध आडवाणीजी के इतना भीतर तक घर कर गया है कि उनके मुंह से बोल नहीं फूट रहे!

एक प्रखर वक्ता जिसने प्रभु श्रीराम के लिए पूरे देशभर में रथयात्राएं की....और जिस राम जी की बदौलत आज पार्टी का इकबाल बुलंद है....वह प्रखर वक्ता एक अदद निमंत्रण तक को तरस गया है! वह इसका विरोध भी नहीं कर पा रहा!

क्योंकि वह जानता है कि एक ऐसे समय में जब देश AIIMS जैसे बेहतर संस्थानों पर विचार कर रहा था, उस वक्त उसने रथयात्रा निकाली थी! वह ये भी जानता है कि उसका रथ जहाँ भी गया वहां सिर्फ और सिर्फ खून ही बहा!

उसे साफ़ दिख रहा है कि आज देश के लोग धर्मस्थलों की तरफ भागने की बजाय अस्पतालों की तरफ भाग रहे हैं!

वह घर के अंदर जाता है!

एक घण्टी उठाता है!

...और डॉक्टरों नर्सों और तमाम कोरोना वारियर्स के सम्मान में बजाने लगता है!

हे आडवाणी! 1980 की दुधमुंही पीढ़ी को आपके तीस साल के सक्रिय राजनीतिक जीवन से जो मिला....नियति ने वह आज आपके हाथ में पकड़ा दिया है!

राम को अपना मंदिर चाहिए था! वह बन रहा है!

...और बिना किसी खून खराबे के बन रहा है!

आप दोनों तरफ से ठगे गये हो!

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