राजनीति

राहुल की बनाई राह पर रपटते नरेंद्र भाई

Shiv Kumar Mishra
6 Nov 2023 8:30 AM GMT
राहुल की बनाई राह पर रपटते नरेंद्र भाई
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140 करोड़ 'परिवारजन' अब अपनी आंखें मसलने लगे हैं। यह देश की सियासत में हुए राहुल-प्रियंका के सकारात्मक हस्तक्षेप और निर्भीक उपस्थिति का नतीजा है। यह राहुल की निडर तालठोकू मुद्रा का परिणाम है कि पिछले कुछ महीनों में भारत के नक्शे का राजनीतिक व्याकरण दिन दूना- रात चौगुना बदला है।.

पंकज शर्मा

140 करोड़ 'परिवारजन' अब अपनी आंखें मसलने लगे हैं। यह देश की सियासत में हुए राहुल-प्रियंका के सकारात्मक हस्तक्षेप और निर्भीक उपस्थिति का नतीजा है। यह राहुल की निडर तालठोकू मुद्रा का परिणाम है कि पिछले कुछ महीनों में भारत के नक्शे का राजनीतिक व्याकरण दिन दूना- रात चौगुना बदला है।... कांग्रेस के पैदल सैनिक तो सौ टंच खरे हैं, लेकिन राहुल-प्रियंका को घेरे खड़े हर सो सिपहसालारों में से नब्बे फ़र्जी हैं। मुझे तो बहुत बार ताज्जुब होता है कि ऐसे वरुधाधिपतियों के होते हुए कैसे ये दोनों सही-सलामत यहां तक पहुंच गए?

ए क बात तो साफ होती जा रही है कि नरेंद्र भाई रायसीना की पहाड़ी से नीचे की तरफ लुढ़कने लगे हैं। इसका अहसास उन्हें भी हो गया है, उनके अंतःपुर को भी हो गया है, उनकी पार्टी को भी हो गया है, उनके पितृ संगठन को भी हो गया है और दृष्टि- दिशा - विवेक शून्य उनकी आरती मंडली को भी हो गया है। भीतर की कुलबुलाहट अब छटपटाहट में तेजी से तब्दील होती जा रही है। इन सर्दियों की शुरुआत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के जिस गुनगुनेपन के साथ होती दिख रही है, वह अगले बरस की गर्मियों में होने वाले आम चुनाव की तपिश नरेंद्र भाई के लिए इतनी चढ़ा देगी कि मत- कुरुक्षेत्र में उनके तलवे ताताचट हो जाएंगे।

सियासी क्षितिज पर उभर रहे इस दृश्य का श्रेय में चाह कर भी सकल विपक्ष को नहीं दे सकता। यह कहना सच्चाई से आंखें फेरना होगा कि नरेंद्र भाई इसलिए रपटीली राह पर हैं कि विपक्ष एकजुट हो गया है। सब जानते हैं कि विपक्ष 'तुम चंदन, हम पानी' न तो हुआ है, न उसके ऐसा होने की कोई ठोस संभावना है। पांचों प्रदेशों में 'इंडिया समूह' के राजनीतिक दल खुल कर एक- दूसरे के खलाफ़ चुनाव मैदान में हैं। इनमें समाजवादी पार्टी सरीखे लालसा-लिम विपक्षी दल भी हैं, तीलीलीली शैली में राजनीति करने वाली आम आदमी पार्टी भी है और अपने को बेहद संजीदा जमीनी के राजनीति के कर्म का पुजारी समझने वाले वाम दल भी।

नरेंद्र भाई मोदी रायसीना पहाड़ी से नीचे नरेंद्र भाई के उतार का श्रेय समूची कांग्रेस के पल्लू में बांधने को भी मेरा मन नहीं मान रहा। इसलिए कि आप तो जानते ही हैं, थोड़ा-बहुत में भी जानता हूं कि राहुल गांधी की दृढ़ नेकनीयत से उपजी ललकार, प्रियंका गांधी के तुर्श गर्जन, मल्लिकार्जुन खड़गे की ध्यानस्थ मुद्रा से प्रक्षेपित आग्नेयास्त्र और पुराने संस्कारों में रचे-बसे मुट्ठी भर कांग्रेसजन के स्वांत सुखाय कर्तव्यबोध को किनारे रख दें तो बाकी पूरी- की पूरी कांग्रेस पार्टी अरसे से खो-खो के खेल का मजा ले रही है। मेरी तो आज तक समझ में ही नहीं आया कि चप्पे-चप्पे पर विराजमान टपोरी कांग्रेसियों के मन में राहुल प्रियंका की इस कदर पसीना बहाऊ सियासी क्षितिज पर उभर रहे इस दृश्य मेहनत को ले कर थोड़ी सी भी संवेदनाएं कैसे नहीं जागती हैं?

सो, नरेंद्र भाई लुढ़क रहे हैं तो अमरबेलों से आच्छादित गुंबद वाली कांग्रेस पार्टी की वजह से नहीं लुढ़क रहे हैं। बावजूद विपक्ष और कांग्रेस के एक बड़े धड़े की पिकनिक वृत्ति के, नरेंद्र भाई नीचे की तरफ गुलाटियां खा रहे हैं तो इस का कारण यह है कि उनके 140 करोड़ 'परिवारजन' अब अपनी आंखें मसलने लगे हैं। यह देश की सियासत में हुए राहुल-प्रियंका के सकारात्मक हस्तक्षेप और निर्भीक उपस्थिति का नतीजा है। यह राहुल की निडर तालठोकू मुद्रा का परिणाम है कि पिछले कुछ महीनों में भारत के नक्शे का स्वरूप दिन दूना रात चौगुना बदला है। पिछले दस साल में हमने भारत की सियासी सामाजिक काया को भय से बेतरह थरीते देखा, बुरी तरह कंपकंपाते देखा, दयनीयता की हद तक निरीह भाव से भरा देखा और भीतर तक सहमा हुआ देखा। आज अगर आपके गांव-कस्बे शहर के लोग आपको अंगड़ाई लेते दिखाई दे रहे हैं तो मैं तो इसकी पुण्याई का कलावा लुंजपुंज कांग्रेस और विपक्ष की नहीं, राहुल-प्रियंका की कलाई पर ही बांधूंगा।

यहां तक का यह कटीला सफ़र राहुल ने सचमुच तकरीवन अकेले ही तय किया है कांग्रेस के पैदल सैनिक तो सो टंच खरे हैं, लेकिन राहुल-प्रियंका को घेरे खड़े हर सौ सिपहसालारों में से नब्बे फर्जी हैं। मुझे तो बहुत बार ताज्जुब होता है कि ऐसे वरुधाधिपतियों के होते हुए कैसे ये दोनों सही-सलामत यहां तक पहुंच गए? मगर में यह सोच कर भी चकित हूं कि आखरि राहुल प्रियंका के होते हुए कांग्रेसी रावले के केंद्रीय कक्ष में ऐसे-ऐसे बहुरूपिया घुस किन सूराखों से गए? खेत को ही खाने वाली बागड़ लगी कैसे? इस चटक चांदनी से मुक्ति का क्या राहुल प्रियंका के पास भी कोई उपाय नहीं बचा है? जरा सोचिए, जब इतनी कसामुसी के बावजूद राहुल नरेंद्र भाई को ऐसी ताताथैया करा रहे हैं तो कहीं अगर उन्हें उनके अनुरूप अविचल पार्टी संगठन मिल गया होता तो फिर तो वे जल्लि-ए-सुबहानी की डोली चार साल पहले ही उठवा देते में तो राहुल को इसकी दाद देने से रोक नहीं पा रहा हूँ कि नैतिक, वैचारिक और पराक्रमीय खोखलेपन से ग्रस्त मरघिल्ले खच्चरों की अपनी और सकल-विपक्ष की टोलियों के बारे में अच्छी तरह जानते हुए वे 2024 को ले कर हताश नहीं हैं, निराश नहीं हैं और देश में नरेंद्र भाई मुक्त राजनीतिक तो संस्कृति की स्थापना का उनका उछाह है, अनवरत बढ़ता ही जा रहा है।

मुझे मालूम है कि तेजी से सुखरू हो रहे मौजूदा राजनीतिक आसमान का श्रेय नब्बे फ़ीसदी कांग्रेस और नब्बे फीसदी विपक्ष को कोने में फेंक कर सिर्फ राहुल की छाती पर टांक देने का मेरा उपक्रम बहुतों को भाटगीरी लगेगा। लेकिन, गीता-कुरआन आइबल पर नहीं, खुद की छाती पर हाथ रख कर, ईमान से एक बात बताइए कि कांग्रेस और विपक्ष में राहुल के अलावा कितनों की कर्मठता देख कर आप भीतर तक स्पंदित महसूस करते हैं? ज्यादातर की शक्ल-अक्ल और कर्म देख कर तो आप को उबकाई ही आती होगी। नाम नहीं लूंगा, लेकिन कांग्रेस के दस-बीस और बाकी विपक्ष के दो-चार अर्थवान चेहरों के अलावा क्या आप को दूर-दूर तक कहीं रोशनी की कोई ऐसी किरण नजर आती है, जो नरेंद्र भाई के फैलाए तमस से हमें ज्योतिर्गमय होने की आस बंधा दे? करूंगा नहीं, मगर में उन नामों की एक लंबी सूची जारी कर सकता हूं, जो कांग्रेसी और विपक्षी आंगन के केक्टस है। नरेंद्र भाई की दस बरस से राजनीति के कर्म का पुजारी समझने वाले राजनीतिक व्याकरण दिन दूना रात चौगुना तो राहुल को इसके लिए दाद देने से खुद को चश्मेबद्दूर बनी हुई सूरत में जितना योगदान भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के अनुचरों का है उतना है कांग्रेस और विपक्ष के बरामंदों मेंपसरे इन नागफनी के पौधों का भी है।

सच है कि नरेंद्र भाई मोदी का दालान और भी सड़ांध भरा है, और भी गलीज और भी मटमैला है। इसलिए आप पूछ सकते हैं कि में कांग्रेस और विपक्ष के कूड़े- करकट पर केंद्रित क्यों हो रहा हूं? मुझे तो सिर्फ़ नरेंद्र भाई के दामन पर लगे दाग अनावृत्त करने चाहिए। तो में आप को बता दूं कि उनके किए घरे पर तो में रोज ही मूसलाधार लानत भेजता रहता हूँ। दस साल से भेज रहा हूँ। जब तक वे हैं, भेजता रहूंगा, क्योंकि जब तक वे हैं, वे गुलाटियां खाने से बाज़ नहीं आएंगे, सो, मैं भी उन की छी-छी करने से क्यों पीछे हटू? मगर इससे मुझे अपने मुहल्ले में छितरे कूड़े के ढेरों की अनदेखी करने का हक कैसे मिल जाता है? जब नरेंद्र भाई के जिस मुहल्ले में में रहता नहीं, उससे कभी गुज़रता नहीं, तब भी उसकी बदबू मुझे इतना परेशान करती है कि मुखालिफ शोर मचाए बिना में रह नहीं पाता हूं तो जिस मुहल्ले में में रहता हूं, उसके संक्रमित आकाश की बेहतरी की उम्मीद लिए बीच-बीच में एकाध पत्थर क्यों न उछालूं? जिनकी त्यौरियां मेरे इस विनम्र प्रयास से चढ़ती है, उनसे मेरा निवेदन है कि मुझ गरीब के गरिबां पर हाथ डालने से पहले वे जरा खुद के भव्य गरिबां में झांकें। उन्हें अपने भीतर जमा मेल दिखाई देगा।



Shiv Kumar Mishra

Shiv Kumar Mishra

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