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हादसा नहीं, काण्ड है और मानवीय चूक नहीं, नीतियों की अमानवीयता की मिसाल है बालासोर की मौतें
बादल सरोज
2 जून की शाम 7 बजे ओड़िसा के बालासोर रेलवे स्टेशन के करीब तीन रेलगाड़ियों के आपस में भिड़ जाने के हादसे में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 290 मौतें गिनी जा चुकी हैं। करीब 1000 घायल मिल चुके हैं, इनमे से कोई 100 अभी भी गंभीर अवस्था में हैं और अस्पताल में जेरे इलाज हैं। मृतकों की संख्या और बढ़ने की अनिष्टकारी आशंकाएं बनी हुयी है। रेल दुर्घटनाओं का देश माने जाने वाले भारत में मौतों के हिसाब से भी यह इस सदी की सबसे भयानक दुर्घटना है -- कोई 42 साल पहले बिहार में बागमती नदी का पुल टूट जाने की वजह से तकरीबन पूरी रेलगाड़ी के नदी में समा जाने से हुई 750 मौतों वाले हादसे के बाद यह दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी है। ऐसे हादसों और उनमें हुयी इतनी विराट जनहानि के बाद कुछ भी न सीखने वाली देश की सत्ता-बिरादरी ऐसे मौकों पर किये जाने वाले अभिनय के मैनरिज्म, खोखले शब्दों वाली संवेदना के बयान झाड़ने और चेहरे पर नकली उदासी ओढ़ कर बाईट्स देने में पारंगत हो चुकी है। मौजूदा सत्तासीन कुनबा ध्यान बंटाने और असली कारण से ध्यान हटाने के मामले में कुछ ज्यादा ही उस्ताद है। खुद इसके सरगना ऐन मौके पर पहुँच कर "जो भी जिम्मेदार होगा, उसे बख्शा नहीं जाएगा" जैसा सनसनीखेज बयान देकर इसे मानवीय चूक से हुआ हादसा जताने का संकेत दे चुके हैं। तकनीकी और रेल परिवहन विशेषज्ञों से जांच कराने की बजाय हादसे की जांच सीबीआई को सौंपकर रही-सही कसर रेलवे बोर्ड ने पूरी कर दी है। कुछ महीने या कुछ एक वर्ष तक जांच की यह नौटंकी चलेगी। इस बीच कोई और हादसा होगा और हुक्मरानों को पक्का विश्वास है कि तब तक मृतकों के परिजनों के अलावा बाकी लोग इसे भूल जायेंगे।
दरअसल बालासोर रेल दुर्घटना हादसा नहीं है, काण्ड है -- एक ऐसा काण्ड, जो अनेक वर्षों से देश के इस सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन तंत्र में लगातार घट रहा है और जिसकी वजह से हर महीने 34 छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएं हो रही हैं। सिर्फ हो नहीं रही हैं, बल्कि हर वर्ष इनकी संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। इनका कारण मानवीय चूकें नहीं हैं ; इनके कारण संस्थागत हैं, इनके कारण विभागीय हैं, इनकी वजहें लापरवाहियों में नहीं, जानबूझकर लागू की जा रही उन नीतियों में हैं, जिन्हें लगातार जारी रखा गया, जिन्हें 2014 के बाद बदतर से बदतरीन बनाया गया।
इनकी पहली और सबसे बड़ी वजह है रेलवे ट्रैक -- यानि वे पटरियां, जिन पर चलना रेलगाड़ियों की मजबूरी है। पटरियों - रेलवे ट्रैक - की खराब हालत के बारे में रेल कर्मचारी और उनके संगठन बीसियों साल से ध्यान दिलाते रहे हैं, सरकार के साथ होने वाली अपनी हर त्रैमासिक बैठक में इसे उठाते रहे हैं। मगर पैसा बचाने और निजीकरण करने की जिद वाली सरकारों ने कभी इसे प्राथमिकता पर नहीं लिया। खुद महालेखाकार - सीएजी - की 2022 की रिपोर्ट ने इसे दर्ज किया है और 2017 से 2021 के बीच हुई कुल 2017 रेल दुर्घटनाओं की समीक्षा कर बताया कि इनमें से 70 प्रतिशत दुर्घटनाओं का कारण गाड़ी का पटरी से उतरना रहा। इनमें यदि इसके परिणाम स्वरुप हुयी बालासोर जैसी भिडंतों को भी जोड़ लिए जाये, तो यह प्रतिशत 80 तक जा पहुंचता है। मतलब दुर्घटनाओं की सबसे प्रमुख वजह है रेलवे ट्रैक का खराब होना। रेलवे ट्रैक का रखरखाव न किये जाने, उन्हें समय पर न बदले जाने का साफ़ मतलब है दुर्घटनाओं को न्यौता देना।
हाल के दिनों में तो जैसे रेल मंत्रालय और केंद्र सरकार ने रेल की पटरियों की बदहाली बढाने का बीड़ा ही उठा लिया है। दूबरे के दो आषाढ़ की तरह उसने पहला काम तो बड़े पैमाने पर रेल पटरियों की देखरेख करने वाले कर्मचारियों की भर्ती न करने का किया, इसका नतीजा यह निकला कि पाँव-पाँव जाकर ट्रैक की एक-एक इंच की जांच करने वाले गैंगमेन्स की पोस्ट्स खाली पड़ी हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार के विभागों में कुल स्वीकृत कोई 41 लाख पोस्ट्स में से 10 लाख खाली पडी हैं -- इनमे से अकेले रेलवे के महकमे में खाली पडी पोस्ट्स साढ़े तीन लाख हैं। इनका विराट बहुमत ग्रुप सी और डी के कर्मचारियों का है ; ये वे ग्रुप्स हैं, जिनके कर्मचारी सीधे जमीन से - यानि पटरी से - जुड़े कर्मचारी होते हैं। ध्यान रहे केन्द्र सरकार के विभागों में खाली पदों की यह तादाद उन पदों के अलावा है, जिन्हें सरकार पहले ही समाप्त घोषित कर चुकी है। नवउदारीकरण के अभिशप्त काल की शुरुआत के पहले केन्द्रीय कर्मचारियों की कुल संख्या 52 लाख हुआ करती थी। इस अनुपात में देखें, तो रेलवे के खाली पदों की संख्या साढ़े तीन लाख नहीं, सवा पांच लाख से भी ज्यादा होगी। इस लिहाज से रेल दुर्घटनाएं होती नहीं हैं, होने दी जाती हैं। इस तरह दूसरा बड़ा कारण सरकार के स्थापना व्यय - मतलब कर्मचारियों पर होने वाले खर्च - में कटौती के नाम पर स्टाफ को घटाना है।
कटौती की बात यहीं तक नहीं रुकती, और आगे तक जाती है। पिछले चार वर्षों में रेल पटरियों के बदलने और सुधारने के अत्यंत जरूरी काम के लिए सरकारी बजट आबंटन में लगातार कमी आयी है। अकेले 2018-19 और 2019-20 के एक वर्ष में इसे 9607 करोड़ रुपयों से घटाकर 7417 करोड़ कर दिया गया। बाद के दो वर्षों में इसे और घटा दिया गया। इतने पर भी सब्र नहीं हुआ - जितना मिला था, उसे भी खर्च नहीं किया गया। खुद रेल मंत्रालय की रिपोर्ट मानती है कि हर वर्ष 4500 किलोमीटर पटरी बदले जाने की जरूरत होती है, मगर लागत घटाने के जरिये पैसा बचाने के जूनून में रेलवे के सभी ज़ोन ने पिछली 5 वर्षों में ट्रैक के रखरखाव और बदलाव के लिए मिले बजट का एक बड़ा हिस्सा वापस लौटा दिया। यह सिर्फ इच्छाशक्ति की कमी नहीं है -- यह आपराधिक करतूत है और इसके लिए किसी सीबीआई जांच की जरूरत नहीं है - सिर्फ बजट अनुमानों और किये गए व्यय की बैलेंस शीट उठाकर अभियोगियों को नामजद किया जा सकता है। जब पटरियां बदले जाने के इस प्राथमिक काम के लिए 3.1 प्रतिशत वाले मामूली से आबंटन में बचत और किफायत दिखाने की होड़ लगी थी, तब गैर प्राथमिकता के क्षेत्रों में खर्चा 25% से ज्यादा की रफ़्तार से बढ़ रहा था। जिन्होंने यह गैरजरूरी खर्चा किये जाने के आदेश दिए, उन्हें मंजूर किया, जिन्होंने इसे करवाया, वे बालासोर सहित सारी दुर्घटनाओं के अपराधी हैं ; इनकी शिनाख्त के लिए भी सीबीआई जांच की नहीं, सही तरीके से ऑडिट की जरूरत है। शरीके-जुर्म तो वह फोटोजीवी भी हैं, जिन्होंने गाड़ियों के आमने-सामने आते ही तुरंत उनके रुक जाने वाली कवच सुरक्षा प्रणाली लाने की लफ्फाजी की थी और नतीजा बालासोर में एक नहीं, तीन-तीन गाड़ियों के टकराने के रूप में सामने आया।
मतलब यह कि अमरीका, रूस और चीन के बाद दुनिया के सबसे बड़े रेलवे भारत में रनिंग ट्रैक 78607 किलोमीटर से बढाकर 102381 किलोमीटर किया जा रहा था। हर रोज 7172 रेलवे स्टेशनो से उठकर, 12671 रेलगाड़ियों में बैठकर ऑस्ट्रेलिया की पूरी आबादी के बराबर यानि करीब ढाई करोड़ लोग यात्रा कर रहे थे और करोड़ों टन माल इधर से उधर हो रहा था -- मगर पटरियां नहीं बदली जा रही थीं और कर्मचारी बढाने की बजाय तेजी से घटाए जा रहे थे। इन बूढ़ी, जर्जर और अनुपयोगी हो चुकी पटरियों पर धढ़ाधढ़ नयी रेलगाड़ियाँ दौडाई जा रही थीं -- पाताल की ओर जाती अपनी विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए तेज से तेज रफ़्तार की ट्रेन्स और घटी यात्री सुविधाओं वाले दूकान की तरह चमकते-दमकते रेलवे स्टेशनों की चौंधियाहट दिखाई जा रही थी। पिछले 5 वर्षों में ही 871 नई ट्रेन्स चलाई गई, अभी भी यही सिलसिला जारी है। निस्संदेह ट्रेन्स की संख्या बढाना चाहिये, रेल सुविधा देश के हर हिस्से तक पहुंचनी चाहिए। मगर इसके लिए हरी झंडी दिखाने का स्टेशन मास्टर और गार्ड वाला काम करते हुए खुद प्रधानमंत्री द्वारा फोटो खिंचवाने का मोह त्याग कर ढांचागत विकास पहले करवाया जाना चाहिए था। मगर हुआ उलटा ; पहले तेजस चली, फिर गतिमान आयी और अब एक ही वर्ष में एक साथ 75 वन्दे भारत एक्सप्रेस चलाई जाएगी। इस तरह तीसरा बड़ा कारण कम कर्मचारियों के साथ पुरानी पटरियों पर ज्यादा गाड़ियों का बोझ बढ़ाना है।
ठीक इसीलिए बालासोर हादसा नहीं है, स्कैम है, काण्ड है, जानलेवा घोटाला है। यह नवउदारवादी नीतियों के साथ नत्थी अमानवीय विनाश-श्रृंखला में निहित मौतों का एक आंकड़ा है। चिंता की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री के बयानों और रेल मंत्री के उदगारों से ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है। उन्हें यकीन है कि वे धर्मोन्माद की अफीम और साम्प्रदायिकता की भांग की नियमित खुराक से इस काण्ड को भी भुला देंगे। उनके इस नापाक मंसूबों को नाकामयाब करने और इस तरह की दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि इनके वास्तविक कारणों से देश की जनता को अवगत कराया जाए ।
(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)