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ओमप्रकाश राजभर का गाली और अपशब्द बोलकर बीजेपी में जाना या अखिलेश का 'डर'
- 2014 में मोदी के पक्ष में माहौल था, ओमप्रकाश राजभर अकेले लड़े. 13 उम्मीदवार उतारे, वोट मिले 118,947, किसी भी सीट पर जीत नहीं मिली.
- 2017 में राजभर बीजेपी के साथ गए. विधानसभा की 8 सीटों पर चुनाव लड़े. पांच जीते. मंत्री बने. योगी ने बेइज्जत किया. सरकार से धकिया कर निकाले गए.
- 2019 में बीजेपी के खिलाफ राजभर ने प्रत्याशी खड़े किए. कोई प्रत्याशी नहीं जीता.
- 2022 में राजभर ने अखिलेश के साथ गठबंधन किया. 17 सीटों पर चुनाव लड़े. 6 सीटों पर जीते. अखिलेश की हार के बाद तुरंत अलग हो गए.
2014 के चुनाव में मोदी लहर में लोगों ने बीजेपी को वोट दिया. और यही गाजीपुर लोकसभा सीट पर भी हुआ. लेकिन अफजाल अंसारी ने अखिलेश यादव के साथ मनमुटाव के चलते डीपी यादव को यहां से लड़ाया था और सपा ने शिवकन्या कुशवाहा को टिकट दिया था. मनोज सिन्हा को 306929 वोट (17.04 प्रतिशत) मिले थे. दूसरे नंबर पर शिवकन्या कुशवाहा को 274477 (15.24 प्रतिशत) वोट मिले और तीसरे नंबर बसपा के कैलाश नाथ सिंह यादव थे 241645 वोटों (13.41 प्रतिशत) के साथ. चौथे नंबर पर डीपी यादव थे, इन्हें अफजाल अंसारी का समर्थन था. और डीपी यादव को 59510 वोट (3.3 प्रतिशत) मिले. ओमप्रकाश राजभर इस गेम में कहीं नहीं थे. इस सीट पर अति पिछड़ी जातियां और मुसलमान वोट निर्णायक हैं.
2019 के चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के प्रत्याशी के तौर पर अफजाल ने अंसारी ने मनोज सिन्हा को कह के हराया. और तमाम पुलवामा-बालाकोट के बावजूद मनोज सिन्हा हारे. 2019 में अफजाल को 566082 वोट (51.11 प्रतिशत) मिले. मनोज सिन्हा को 446690 वोट (40.33 प्रतिशत) मिले. ओम प्रकाश राजभर के उम्मीदवार रामजी को 33,877 वोट (3.06 प्रतिशत) मिले. इस चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन था, लेकिन असफल रहा. रिजल्ट के बाद मायावती ने कहा कि सपा का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ. गठबंधन टूट गया. दोनों तरफ से आरोप-प्रत्यारोप हुए. लेकिन गाजीपुर सीट पर सपा-बसपा का वोट एकमुश्त अफजाल को ट्रांसफर हुआ. 2014 के आंकड़ों को आप देखेंगे तो साफ दिखेगा.
साफ है कि अगर 2014 में अफजाल अंसारी ने डीपी यादव को नहीं खड़ा किया होता तो 2014 में मोदी लहर में भी मनोज सिन्हा हारे होते. 2024 में भी ओमप्रकाश राजभर के अपने जिले या अपनी सीट गाजीपुर पर बीजेपी की हालत खराब है. कहा जा रहा है कि मनोज सिन्हा के बेटे चुनावी लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं. तो योगी सरकार के बदले की भावना, राजनीतिक तिकड़मों और बुलडोजर पॉलिसी के बावजूद अफजाल अंसारी की बेटी के चुनावी मैदान में उतरने की चर्चाएं हैं.
गाजीपुर एक पिछड़ा इलाका है. लेकिन लोग स्वाभिमानी हैं. 2014 में जीतने के बाद मनोज सिन्हा ने सवर्णों को खुश करने की कोशिश. अति पिछड़ों ने 2019 में जमीन पर पटक दिया. अफजाल अंसारी सांसद रहते हुए इलाके के लिए कोई बड़ा काम नहीं कर पाए हैं. योगी सरकार से ही लड़ने में उनका कार्यकाल निकल गया. लेकिन ग्राउंड पर मोदी और योगी के खिलाफ जनता का रुझान बना हुआ है. लोग कह रहे हैं कि जब तक ये दिल्ली नहीं हारेंगे. सुधरेंगे नहीं.
वक्त की मांग ये है कि अखिलेश यादव को शुद्धतावादी रवैया छोड़ना होगा. किताब में लिखी गई आदर्शवादी बातों से राजनीति नहीं होती. ये उन्हें अपने पिता की विरासत में मिल जाएगा. 2017 के विधानसभा चुनाव में शिवपाल यादव, अंसारी बंधुओं को पार्टी में लाना चाह रहे थे, लेकिन अखिलेश ने विरोध किया. नतीजा बीजेपी ने सुभासपा के साथ गठबंधन करके ओमप्रकाश राजभर की राजनीतिक हैसियत बना दी. गाजीपुर में राजभर एक बड़ी संख्या में हैं, और उन्हीं के बल पर ओमप्रकाश राजभर आज डील कर रहे हैं! संविधान विरोधी बीजेपी को सत्ता में लाने की भूमिका निभाने को तैयार हैं!
2022 में अखिलेश यादव ने इसकी भरपाई करनी चाहिए. मन्नू अंसारी (अफजाल के बड़े भाई के बेटे) को सपा के टिकट पर लड़ाया तो अब्बास अंसारी (मुख्तार के बेटे) राजभर के टिकट पर लडे. लेकिन इस तरह से कब तक राजनीति करेंगे छोटे नेताजी? उन्हें अंसारी बंधुओं के साथ खड़ा होना चाहिए. मुस्लिम समाज के सुख-दुख में हिस्सा लेना होगा. सिर्फ दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देने से कुछ नहीं होगा.
अतीक को जिस तरह जयश्रीराम का नारा लगाकर मारा गया. क्या अखिलेश यादव ने कानून व्यवस्था के नाम पर कोई बड़ा प्रोटेस्ट किया? तुरंत नहीं दो महीने बाद कर लेते. वो भी नहीं हुआ. अखिलेश यादव को अपनी लकीर खींचनी होगी.
नेताजी ने कानून का राज स्थापित करने के लिए एक बार गोली चलवाई और सियासी लकीर खींच दी कि सांप्रदायिकता के खिलाफ नहीं झुकेंगे. लालू जी ने आडवाणी को गिरफ्तार किया और तय कर दिया कि वे सांप्रदायिकता के खिलाफ नहीं झुकेंगे. समय आ गया है कि अखिलेश यादव कुछ करें. डरने से काम नहीं चलेगा.
सारस की जान कीमती है! लेकिन उससे ज्यादा यूपी के नागरिकों की जान कीमती है. दलित की, यादव की, मुसलमान की. बलिया में
सपा नेता हेमंत यादव को पीट-पीटकर मार डाला गया. डेढ़ महीने बाद अखिलेश उसके घर गए. क्या अखिलेश यादव को तुरंत उसी दिन नहीं जाना चाहिए था. कंधा देने के लिए. अगर वो तुरंत जाते तो एक बड़ा मैसेज जाता, लेकिन... छोटे नेताजी ये सब नहीं कर रहे हैं. पूर्वांचल में एक कहावत है, सुख में भले ना पहुंचो. दुख में तुरंत पहुंचो.-
एक बात और, मोदी लहर तेजी से विलुप्त हो रही है, लेकिन बसपा मजबूत नहीं हो रही. ये चिंता की बात है, बसपा का पूरा वोट सपा को कभी नहीं मिला! लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ जा सकता है. 2014 और 2019 में पूरे यूपी में ये देखने को मिला है कि हर वर्ग का वोट टूटकर बीजेपी को मिला. और इस बात की आशंका सत्यपाल मलिक भी जता चुके हैं, तभी जयंत चौधरी भी चंद्रशेखर आजाद को साथ लेकर चल रहे हैं. अखिलेश भी उनके साथ महू घूम आए हैं, लेकिन राजभर वाले इलाकों में चंद्रशेखर अभी उतने मजबूत नहीं हैं कि बसपा का विकल्प बन सकें!
2024 में एक नेता है, जिसके पक्ष में लहर पैदा हो रही है और वो हैं राहुल गांधी. अखिलेश यादव भी विपक्ष के साथ गठबंधन की बात कर रहे हैं, कांग्रेस भी गठबंधन की बात कर रही है, लेकिन क्या गठबंधन हो पाएगा? अगर गठबंधन हुआ और जैसा माहौल राहुल गांधी के लिए बन रहा है, तो फिर यूपी में बीजेपी को वॉकओवर नहीं मिलेगा. चाहे भले ही कांग्रेस का संगठन कितना भी कमजोर क्यों ना हो!
लेखक नंद लाल शर्मा