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राजेन्द्र शर्मा
हो लें एंटीनेशनल कर्नाटक के नतीजे पर खुश। और अब तो इनके सीएम का भी फैसला हो गया। न कोई टूटा, न कोई फूटा। हो लें, इस पर भी खुश। बल्कि किसी बड़ी-सी जगह पर पब्लिक और सारे एंटीनेशनल नेताओं की खूब भीड़ जुटाकर, मना लें जीत की खुशी। पर हम से लिखाकर ले लो, ये जीत की खुशी बस चार दिन की है। पर बस चार दिन। अंत में आएगा तो मोदी ही!
ठीक है इस बार कर्नाटक की पब्लिक ने एंटीनेशनलों को भर-भर कर सीटें दी हैं। यह भी ठीक है कि कर्नाटक वालों को भी इस बार बाकी दक्षिणवालों वाली हवा लग गयी और लगे रंग बदलने, जैसे खरबूजे को देखकर खरबूजा बदलता है। बेचारे देशभक्तों को सीटें देने में इतनी कंजूसी कर दी कि देशभक्तों की सीटें, एंटीनेशनलों से आधी से भी कम कर दीं। ठीक है कि पब्लिक ने अपनी तरफ से एंटीनेशनलों को इतनी सीटें दे दी हैं कि पांच साल सरकार की गाड़ी आराम चल सकती है। पर चलेगी नहीं। चल तो पिछली बार भी सकती थी; पर चली क्या?
फिर इस बार ही ऐसा क्या हो जाएगा! अब भी ईडी, सीबीआइ हैं कि नहीं। अब भी ऑपरेशन लोटस चलता है या नहीं? अब भी चुनावी बांड के गुप्त धन का पनाला चल रहा है कि नहीं? अब भी गवर्नर आज्ञाकारी हैं कि नहीं? अब भी असम से लेकर मुंबई तक, देशभक्तों वाले भारत में रिसॉर्ट खुले हैं कि नहीं? मीडिया गोदीसवार है कि नहीं? फिर पब्लिक के ज्यादा सीटें देने से ही कैसे चल जाएगी? ज्यादा सीटें भी ऐसी क्या ज्यादा हैं कि देशभक्तों की सीटों से कम हो ही नहीं सकती हैं? जहां चाणक्य की चाह है, वहां राह जरूर है। आखिर में, आएगा तो मोदी ही।
और प्लीज, विरोधियों की इस अफवाह पर कोई यकीन न करे कि कर्नाटक की पब्लिक ने एंटीनेशनलों को इतनी सीटें इसीलिए दी हैं कि अंत में, मोदी न आ जाए। यह एकदम गलत है। इसमें लॉजिक ही नहीं है। पब्लिक ने एंटीनेशनलों को ज्यादा सीटें इसलिए दी हैं, जिससे देशभक्तों को ज्यादा सीटें खरीदनी पड़ें। ज्यादा सीटें, यानी ज्यादा रेट। ज्यादा सीटें यानी ज्यादा लोगों की खुशहाली। बड़े चंट निकले कन्नडिगा। पर अंत में डबल इंजन आएगा, तभी न इतनी खुशहाली लाएगा।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं।)