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हेमंता, ज्योतिरादित्य और सचिन के बाहर जान सेे कांग्रेस गर्त में जाएगी या फिर जनता में जाएगा सकारात्मक संदेश
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संजय रोकड़े
भारतीय लोकतंत्र में जिस तरह से सियासती दौर बदल रहा है उसी तरह से अब राजनीति में नेताओं की महत्वकांक्षाएं भी तेजी से बदल रही है। आलम ये हो गया है कि अब सबको वक्त से पहले ही सब कुछ चाहिए। हाल ही में कांग्रेस में जिस तरह से युवाओं की बदमिजाजाी के चलते राजनीतिक घटनाएं सामने आ रही है उसे देख कर तो कम से कम ऐसा ही कहा जा सकता है।
इसमें कोई दो राय नही है कि मौजूदा वक्त में राजनीतिक संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए अनुभव और युवा सोच ने मिलकर जीत की कई कहानियां लिखी लेकिन अब हालात ऐसे बनते जा रहे है कि युवा चेहरे ही पार्टी के साथ-साथ दिग्गज नेताओं को आंखें दिखाने लगे है।
ये बात तब और पुख्ता होती है जब राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार अपने ही युवा नेता सचिन पायलेट के असंतोष के कारण संकट में आ जाती है। राजस्थान की इस घटना से पहले मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया विद्रोह करके भाजपा में शामिल हो चुके है।
मुझे ठीक-ठीक याद पड़ रहा हो तो सिंधिया से पहले हेमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस से नाराज होकर इस्तीफा दे दिया था। वे इतने नाराज हो गए थे कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर उस वक्त गंभीर आरोप लगा कर बीजेपी में जाने का फैसला कर लिया था। अब कुछ-कुछ इसी तरह का वाक्या राजस्थान में सचिन पायलेट की नाराजगी के चलते सामने आ रहा है। अब हेमंता बिस्वा सरमा व सिंधिया की राह पर सचिन पायलट चल पड़े है।
कांग्रेस में इन तीन युवा नेताओं के इस तरह के विद्रोह से दो बातें उभर कर सामने आती है। पहली ये कि क्या कांग्रेस युवा नेताओं से हाड़तौड़ काम करवा के सत्ता हासिल करने के बाद उन्हें तवज्जों नही देती है या फिर कांग्रेस में जो युवा नेता मेहनत कर रहे है उन्हें अब वक्त के पहले ही सब कुछ चाहिए। बहरहाल जिस तरह से कांग्रेस के युवा नेता बिहेव कर रहे है उसे देखते हुए तो यही लगता है इस दल में सब छुट्टे सांड की तरह हो गए है और सबको सब कुछ वक्त से पहले ही चाहिए। अब देर का कुछ सवाल ही नही रह जाता है।
हालाकि राजनीति के अतीत में ओल्ड गार्ड के साथ युवा जोश के सामंजस्य को कामयाबी की सबसे मजबूत कड़ी माना जाता रहा है। इस फॉर्मूले को हमने कई मौकों पर कारगर साबित होते हुए भी देखा है। मौजूदा वक्त में राजनीतिक संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए भी अनुभव और युवा सोच ने मिलकर जीत की कई कहानियां लिखी हैं, लेकिन अब हालात ऐसे हो गए हैं कि युवा चेहरे ही पार्टी के साथ-साथ अपने बड़े व दिग्गज नेताओं को आंखें दिखाने लगे है।
ताजा उदाहरण सचिन पायलट का है। स्वर्गीय राजेश पायलट जैसे दिग्गज कांग्रेसी के बेटे सचिन पायलट ने सब कुछ वक्त से पहले ही हासिल करने की मन में ठान ली। वे 26 साल की उम्र में कांग्रेस से सांसद बने तो 35 साल की उम्र में केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री बना दिए गए। इसके बाद 2014 में जब उनकी उम्र 37 साल थी तो पार्टी ने राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कमान उनके हाथों में सौंप दी।
दरअसल उस समय सचिन ने भी ईमानदारी से जी-तोड़ मेहनत की। पूरे प्रदेश में घूमकर तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार को एक्सपोज किया और अपने संगठन को मजबूती से आगे बढ़ाया। ये वो वक्त था जब अशोक गहलोत दिल्ली में राहुल गांधी के साथ देश की राजनीतिक बागडोर संभाले हुए थे। सचिन पायलट की मेहनत रंग लाई और 2018 में राजस्थान की जनता ने वसुंधरा सरकार उखाड़ फेंकी और कांग्रेस को सत्ता सौंप दी।
हालांकि, जब जीत का सेहरा बंधने का नंबर आया तो अशोक गहलोत का तजुर्बा और प्रदेश व पार्टी में उनकी पकड़ सचिन की पांच साल की मेहनत पर भारी पड़ गई। तमाम खींचतान के बाद सचिन पायलट उपमुख्यमंत्री पद पर राजी हुए लेकिन दोनों में तालमेल नहीं बैठ पाया। अब बात यहां तक पहुंच गई है कि सचिन पायलट बगावत पर उतर आए हैं और गहलोत सरकार संकट में आ गई है। हालाकि कांग्रेस ने सचिन को उम्र के लिहाज से बहु कुछ दिया बावजुद उन्हें ऐसे लग रहा था कि उनके साथ न्याय नही किया गया।
ठीक इसी तरह से मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इसी साल मार्च महीने में कांग्रेस से यह करते हुए विद्रोह कर दिया कि पार्टी ने उनका अपमान किया है। काबिलेगौर हो कि मार्च में देश में कोरोना वायरस का संक्रमण अपने पैर पसार रहा था। उस समय देश की जनता होली के जश्न में भी डूबी हुई थी। ज्योतिरादित्य ने उस समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस को ऐसा झटका दिया कि कमलनाथ की सरकार गिर गई। आखिर ज्योति की ऐसी क्या नाराजगी रही कि उनने पार्टी छोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया और चलती सरकार गिरा कर प्रदेश की राजनीति में बवाल खड़ा कर दिया।
बहराहल कांग्रेस ने सिंधिया की इज्जत गमाई या उनकी इज्जत में इजाफा किया या वे जब तक कांग्रेस में रहे तब तक कांग्रेस उन्हें उनकी हैसियत से पद और मान-सम्मान नही दे पाई या वे जो डिजर्व करते थे उससे कम या अधिक दिया। या वे जिस पद के हकदार थे वह कांग्रेस ने जानबुझ कर उन्हें नही दिया इसके लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा।
पिता माधवराव सिंधिया की मौत के बाद सिंधिया ने 2001 में कांग्रेस ज्वाइन की और चुनाव-दर चुनाव गुना लोकसभा से जीतते चले गए। 2007 में केंद्र की मनमोहन सरकार में सिंधिया को मंत्री बनाकर बड़ा तोहफा दिया गया लेकिन 2018 में जब मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत मिलने के बाद पार्टी नेतृत्व ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया तो सिंधिया के अरमान टूट गए। इसका नतीजा ये हुआ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी का साथ देकर कमलनाथ की सरकार 15 महीने के अंदर ही गिरा दी।
हालाकि मध्यप्रदेश में सिंधिया को सीएम क्यूं नही बनाया गया इसके पीछे की कहानी जनता की भावनाओं का मान रखना बताया जाता है। बताते है कि उस समय कांग्रेस ने एक अंदरूनी सर्वे करवाया था जिसमें प्रदेश की जनता ने कथित तौर पर सिंधिया की जगह कमलनाथ को सीएम बनाने को तरजिह दी थी। मगर ये बात सच है कि सिंधिया उस समय प्रचार-प्रसार का प्रमुख चेहरा थे और शायद इसी के चलते उन्हें ऐसा लगा कि चुनाव में उनके नाम पर जनता ने वोट दिया और कांग्रेस के आला नेताओं ने छल कर सीएम नही बनाया। दरअसल सच यही है कि सिंधिया को जनता ने उनके घमंड़ी नेचर के कारण नकार दिया था और कमलनाथ में एक उदार नेता का रूप देख था।
बहरहाल सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के लिए उन राज्यों में चुनौती बनकर उभरे जहां मुख्य विरोधी बीजेपी हमेशा से मजबूत रही है। लेकिन पार्टी के एक और युवा चेहरे रहे हेमंता बिस्वा सरमा ने कांग्रेस को जो नुकसान पहुंचाया वो ऐतिहासिक रहा है। हेमंता बिस्वा सरमा कभी दिल्ली में बैठे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक पहुंच रखते थे, लेकिन 2015 में कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया। 1996 से 2015 तक हेमंता बिस्वा कांग्रेस में रहे और असम की कांग्रेस सरकार में मंत्रीपद भी संभाला।
फिर हेमंता के दिल में कांग्रेस के प्रति ऐसी क्या नाराजगी पनपी की उनने बीजेपी में जाने का फैसला कर लिया। जब वे कांग्रेस रूठ कर गए तो उस समय उनने राहुल गांधी पर उस वक्त गंभीर आरोप लगाते हुए खुब भला बुरा कहा। इसके साथ ही भाजपा ने हेमंता हाथों हाथ उठा लिया। इतना ही नहीं बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने हेमंता को नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईड़ीए) का संयोजक भी बना दिया।
एनईड़ीए, नॉर्थ ईस्ट भारत के कई क्षेत्रीय दलों का एक गठबंधन है। नेडा के संयोजक रहते हुए हेमंता बीजेपी के लिए सबसे बड़े संकट मोचक के तौर पर उभरकर सामने आए। नॉर्थ ईस्ट की राजनीति में शून्य कही जाने वाली बीजेपी ने असम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर जैसे राज्यों में सरकार बनाकर कांग्रेस का सफाया कर दिया। इसके अलावा नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्यों की सत्ता में भी बीजेपी का दखल बढ़ गया। हेमंता बिस्वा सरमा ने नॉर्थ ईस्ट की राजनीति में बीजेपी की बढ़त बनाने में अहम भूमिका अदा की।
सवाल तो ये भी है कि क्या कांग्रेस ने इन तीन युवा नेताओं की दल में राजनीतिक बढ़त बढ़ाई थी या उनकी हैसियत से उन्हें कम आका गया था। या फिर इन तीन युवा नेताओं की राजनीतिक महत्वकांक्षा ही वक्त से पहले कुछ अधिक पाने की हो गई थी। इन सबको मद्देनजर हुए यही अंदाजा लगाना है कि क्या इनने जो किया सही किया या कांग्रेस ने इनके साथ धोका करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।
जिस इस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एमपी में कमलनाथ जैसे दिग्गज को कुर्सी से हटाने का काम किया, वहीं सचिन अब कांग्रेस के जमीनी नेताओं में शुमार अशोक गहलोत के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं। वहीं हेमंता बिस्वा सरमा लगातार कांग्रेस को बड़ा आघात पहुंचा रहे है।
यानी कांग्रेस के ये तीन युवा चेहरे रहे आज देश की इस सबसे पुरानी पार्टी के बड़े दिग्गजों के लिए सिर दर्द बन गए है या फिर इनने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। यहां एक सवाल और भी लाजिमी है कि क्या इनके जाने से कांग्रेस गर्त में जाएगी या पार्टी की आंतरिक राजनीतिक उठापटक को लेकर जनता में सकारात्मक संदेश जाएगा।