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सियासी दगाबाज दोस्तों को आखिर क्यों नहीं भांप पाए शरद यादव!
कमलेश पांडेय/स्वतंत्र पत्रकार
गाजियाबाद। गंवई कहावत है कि क्षण-क्षण खेती, नित्य दिन गाय। जे नै देखे, ओकर जाए। यह बात जीवन के सभी पेशे में लागू होती है। लेकिन, इसे समझता कोई तब है, जब अवसर हाथ से निकल जाता है। हालांकि, राजनीति में अवसर का आकलन करना और उसे अपने अनुरूप ढाल कर सियासी सफलता हासिल करना पहले हर कोई शरद यादव से सीखने की कोशिश करता था। राजनीतिक जनतांत्रिक गठबंधन का राष्ट्रीय संयोजक बनना उनकी सांगठनिक राजनीति का चरमोत्कर्ष रहा। उसके बाद जो ढलान उन्हें देखने पड़े, वह दिन कोई दिग्गज नेता नहीं देखे, यही मैं कहना चाहूंगा।
सियासत में अक्सर कहा जाता है कि ऐसा कोई सगा नहीं, जिसे लालू प्रसाद-नीतीश कुमार ने ठगा नहीं। स्वभाव से सुंदर लेकिन पिछड़ी सियासत की चांडाल चौकड़ी से घिरे शरद यादव भी उपरोक्त अपने दोनों मित्रों के सियासी पैंतरे के शिकार हो गए। फिर, अपनी सियासी वजूद बचाए रखने के लिए उन्होंने लोकसभा चुनाव 2019 से पहले लोकतांत्रिक जनता दल का गठन 18 मई को किया। तब उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, समाजवादी नेेेता डॉ राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मधु लिमए, मधु दंडवते, सुरेन्द्र मोहन और कर्पूरी ठाकुर आदि के आदर्शों पर चलने और उनके सपनों को साकार करने की प्रतिबद्धता जताई थी।
तब से नवगठित लोकतांत्रिक जनता दल के अध्यक्ष समाजवादी नेता पूर्व मंत्री फतेह सिंह और संरक्षक कर्ता-धर्ता शरद यादव रहे। फिर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में राष्ट्रीय स्तर के कार्यकर्ताओं के अलावा अन्य दलों के नेताओं ने शिरकत की और शानदार पल के गवाह बने।
इस बीच वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव होने थे। तब नवगठित लोकतांत्रिक जनता दल का चुनावी गठजोड़ किसी पार्टी से नहीं किया गया। क्योंकि रोम पोप का, सहरसा-मधेपुरा गोप का जैसे सियासी जुमले से वाकिफ शरद यादव ने राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के साथ जाने और मधेपुरा लोकसभा का चुनाव लड़ने का मन बना चुके थे। शरद यादव ने यहां तक ऐलान करते हुए कार्यकर्ताओं को यह सन्देश दिया कि चुनाव पश्चात हमारी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल में अपना विलय करेगी।
लेकिन, जैसा कि कहा जाता है कि सियासत में हमेशा दो जोड़ दो चार कभी नहीं होता। ऐसा ही मधेपुरा में दिखाई पड़ा। भले ही शरद यादव राजनीति के खासे मंजे हुए खिलाड़ी हैं, पर वो मधेपुरा से चुनाव लड़ते हैं और हार जाते हैं। उसके बाद से राजनीति में वो अपने लिए मुकम्मल जगह अभी तक नहीं बना पाए हैं। लिहाजा, ढलती हुई सियासी उम्र में अपने सुनहरे पलों को सोच कर वह चाहे जितना भी खुश हो लें, लेकिन उनके साथ जुड़े रहने वाले स्वामीभक्त कार्यकर्ताओं की टीस अब किसी से छुपी हुई बात नहीं है।
जैसा कि शरद यादव के मीडिया प्रभारी राम बहोर साहू बताते हैं कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो उन दिनों राजद के साथ महागठबंधन सरकार का दायित्व संभाले हुए थे और अब जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं, ने अपनी तब की महागठबंधन की सरकार के ठीक-ठाक नहीं चल पाने के कारण राजद-कांग्रेस समर्थित महागठबंधन सरकार से नाता विच्छेद करने का फैसला शरद यादव को अवगत कराया था और पुनः भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन बनाने और सरकार चलाने का विचार उनसे साझा किया था। लेकिन, नीतीश कुमार का यह फैसला शरद यादव को रास नहीं आया था। फिर भी, नीतीश कुमार राजद का साथ छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर अपनी सरकार बनाने में सफल हो गए। जो शरद यादव को नागवार गुजरा था। क्योंकि तब शरद यादव का मानना था कि वैचारिकता भी कोई चीज है। इसलिए भाजपा के साथ पुनः नहीं जाया जा सकता।
उन्हीं घटनाओं के क्रम में एक दिन जदयू ने शरद यादव से आग्रह किया था कि आप राजद की पटना में होने वाली रैली में शामिल न हों। लेकिन शरद यादव नहीं माने। आखिरकार रैली में शामिल हुए और वहीं से अलग-थलग पड़ एक अजीब से सियासी भंवर में फंस गए। तब शरद यादव को राज्यसभा की सदस्यता से भी हाथ धोना पड़ा। मधेपुरा से लोकसभा का चुनाव हार जाने के पश्चात शरद यादव को एक आशा जरूर थी कि लालू प्रसाद यादव उन्हें शायद राज्य सभा में भेज दें, मगर यह संभव न हो सका। जबकि एक बार लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान के साथ राजद यह उदारता दिखा भी चुकी थी। एक वो भी वक्त था जब बीजेपी की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज शरद यादव को साधकर ही पीएम बनने के सपने संजों रही थीं, लेकिन...!
खैर, शरद यादव ने अपनी खोई हुई सियासी जमीन हासिल करने के लिये दिल्ली, मुम्बई, जयपुर, इंदौर आदि में साझा विरासत और बिहार के अनेक ज़िलों में सड़क संवाद यात्राएं कर एक अथक प्रयास किया था कि छोटी छोटी पार्टियों को एकजुट कर बड़ी पार्टी का विस्तार किया जाए, पर सफलता नहीं मिली।
राम बहोर साहू बताते हैं कि दो-तीन वर्ष पहले राज्य विधानसभा के चुनाव मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ वगैरह मेंं हुए थे। तब कांग्रेस के साथ गठजोड़ में केवल एक या दो सीट पर समझौता हुआ। पर यहां भी सफलता नहीं मिली। इधर, शरद यादव के महत्वपूर्ण साथी भी एक एक कर उनका साथ छोड़ दिए। वहीं, गत बिहार विधान सभा चुनाव में लोकतांत्रिक जनता दल को महागठबंधन में कोई स्थान नहीं मिला। जिसके चलते उनके करीबी लोग भी महसूस करते हैं कि शरद यादव को अपना राजनैतिक घर नहीं छोड़ना चाहिए था! वे कहते हैं कि यह सिर्फ मेरी नहीं बल्कि लोकतांत्रिक जनता दल के सभी कार्यकर्ताओं की भी बेदना है, पीड़ा है।
वो आगे बताते हैं कि करोना काल में हुए लाकडाऊन के तत्काल बाद शरद यादव गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने के कारण लम्बे समय तक अस्पताल में रहे। आप सभी की दुआ से अब घर पर हैं। स्वस्थ हैं। चल फिर रहे हैं।लोकतांत्रिक जनता दल पुनः से पटरी पर लौट सके, इसी आशा के साथ लोकतांत्रिक जनता दल की स्थापना दिवस पर आप सभी को बधाई।