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प्रणव का प्रधानमंत्री न बनना: कांग्रेस में आरएसएस
शकील अख्तर
समय हो या इतिहास कभी कभी इतनी जल्दी न्याय कर देता है कि लोगों को और भ्रम फैलाने का मौका ही नहीं मिल पाता! इस बार समय ने जवाब दिया संघ प्रमुख मोहन भागवत जी के जरिए। प्रणव मुखर्जी की मृत्यु के तत्काल बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए भागवत ने कहा कि वे आरएसएस के गाइड थे, हमसे लगाव और प्रेम रखते थे, उनकी मृत्यु संघ के लिए बहुत बड़ा नुकसान है! संघ
प्रमुख द्वारा इतनी स्पष्टता से यह सब कह देने के बाद लंबे समय से उठाए जा रहे वे सारे सवाल अब निरर्थक हो गए जिनमें पूछा जाता था कि कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी को प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया?
वक्त ने जवाब मोहन भागवत जी के जरिए दिला दिया। कांग्रेस में यह बात हमेशा से कही जाती थी मगर पार्टी में ही एक बड़ा तबका ऐसे नेताओं का रहा जो इन सवालों को सदैव हवा देता था कि प्रणव मुखर्जी क्यों नहीं? खुद प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बन जाने के बाद भी कांग्रेस में अपने हमख्याल लोगों के अलावा पत्रकारों से भी अपना यह दुःख व्यक्त करते रहते थे।
प्रधानमंत्री बन जाना हर बड़े नेता की महत्वाकांक्षा होता है आडवानी जी की भी थी और प्रणव मुखर्जी की भी। मगर आडवानी जी कुछ भी नहीं बन पाए लेकिन कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बना दिया। और कम लोगों को यह बात मालूम होगी कि कांग्रेस द्वारा प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद इसे अपनी जीत के तौर पर किसने लिया था! उस समय 2012 में भाजपा के चाणक्य कहलाने वाले अरुण जेटली ने।
जब राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी उस समय संसद के सेन्ट्रल हाल में जो जेटली के पत्रकारों के साथ बैठने की सबसे पसंदीदा जगह होती थी वहां जब उनसे पूछा कि आपकी पार्टी क्या कर रही है तो उन्होंने कहा कि हम ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। नंबर उनके पास हैं। यह कहकर फिर वे अपनी आदत के मुताबिक कुछ देर रुक गए। फिर मुस्कराहट के साथ कहा कि मगर हम यह जरूर इन्श्योर करेंगे कि राष्ट्रपति कोई नान सोनियाइट हो! यह बहुत स्पष्ट इशाऱा था। और यही हुआ। घोषणा के बाद जेटली खुश थे। बोले कहा था हमने!
उस समय शिवसेना घोर कांग्रेस विरोधी थी। मगर प्रणव मुखर्जी का समर्थन किया था। सोनिया ने कभी इस विषय में कुछ नहीं कहा। वे पार्टी अध्यक्ष थीं। पार्टी के पास पूरा बहुमत था। विपक्ष 2007 की तरह राष्ट्रपति चुनाव को लेकर गंभीर नहीं था। 2007 में तो भाजपा के प्रत्याशी भैरोसिंह शेखावत ने बड़ा चुनाव प्रचार करके माहौल बनाने की कोशिश की थी मगर इस बार तो कोई
मुकाबला ही नहीं था। ऐसे में शिवसेना द्वारा मुखर्जी को समर्थन देने के पीछे अंबानी परिवार का हाथ बताया जा रहा था। मगर सोनिया गांधी ने हमेशा की तरह मामले को तूल नहीं दिया। वे तब भी खामोश रहीं जब राष्ट्रपति पद की अपनी मियाद पूरी करते ही प्रणव नागपुर रवाना हो गए। संघ मुख्यालय में जाकर उन्होंने आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार को भारत माता का महान सपूत बताया।
उस समय भी सोनिया और राहुल गांधी तो खामोश थे मगर कांग्रेस के एक नेता यह बताने की पूरी कोशिश कर रहे थे कि प्रणव को कांग्रेस ने ही नागपुर भेजा है। हमें भी उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की। यूपीए सरकार में मंत्री रहे ये नेता 23 पत्र लेखकों में शामिल हैं। उस समय ये दावा कर रहे थे कि उन्हें अंदर की खबर मालूम है आज पत्र लिखकर वे कह रहे हैं कि बड़े नेताओं को विश्वास में नहीं लिया जाता है। ये सारे नेता दस साल तक सरकार और संगठन में रहे। प्रणव मुखर्जी की तरह इन्हें हर बड़ी कुर्सी दी गई। मगर ये फिर भी असंतुष्ट हैं। कमजोर कांग्रेस में असंतोष को नई हवा फैला रहे हैं। कांग्रेस का कमजोर होना या गुटों में बंट जाना इस समय विपक्ष के लिए कोई अच्छी स्थिति नहीं होगी।
विपक्ष वैसे ही बहुत कमजोर है। उसमें सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ही है। लेकिन बगावत की नई हवा चलने के बाद कहा जा रहा है कि ये कांग्रेस को और कमजोर करेगी। हो सकता है बांट भी दे। 2014 का चुनाव हारने के बाद से ही कांग्रेस में कई लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा करना शुरू कर दी थी। लेकिन सोनिया और राहुल की समझ में कभी नहीं आया। वे शायद यहीं मानकर बैठे हैं कि भाजपा इन लोगों को लेगी नहीं। मगर वे यह भूल जाते हैं कि ऐसे लोगों को कांग्रेस में छोड़कर वे कांग्रेस का ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। भाजपा में वाकई दो चार लोगों को छोड़कर और किसी बगावती की कोई उपयोगिता नहीं है। मगर कांग्रेस में बैठकर जब ये शल्य का काम करते हैं तो निश्चित ही रूप से कांग्रेस का आत्मविश्वास कमजोर होता है। शल्य महाभारत का वह चरित्र था जो कर्ण का सारथी था। और रोज कर्ण की कमजोरियां गिनाता रहता था। राहुल गांधी ने इन्हीं परिस्थितियों में कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ा था।
हालांकि कांग्रेस के लिए यह कोई नई बात नहीं है। न यह प्रणव मुखर्जी से शुरू हुआ है और न ही 23 बागी नेताओं पर खत्म हो रहा है। ऐसा असंतोष, दोहरी वफादारियां कांग्रेस में शुरू से रही हैं। आजादी के ठीक बाद ७ अक्तूबर 1949 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की एक बैठक में यह प्रस्ताव पारित कर दिया गया कि आरएसएस के सदस्य अगर चाहें तो कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। प्रस्ताव पास होते ही कांग्रेस में हंगामा हो गया। इस मीटिंग में पं. जवाहरलाल नेहरू नहीं थे। वे विदेश यात्रा पर थे। दिल्ली और प. बंगाल की प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन कई कांग्रेस के नेता इसके समर्थन में थे। जिनमें मध्य प्रदेश के उस समय के गृह मंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा, पट्टाभि सीतारमैया शामिल थे।
एक नेता ने कहा कि आरएसएस का कार्यकर्ता या कोई भी अन्य व्यक्ति कांग्रेस में शामिल होने के लिए स्वतंत्र है लेकिन किसी भी कांग्रेसी को आरएसएस के कार्यक्रम में शामिल नहीं होना चाहिए। न ही अपने बच्चों को आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने भेजना चाहिए। उस समय के प्रमुख अखबारों स्टेट्समेन और हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा कि इस विवादास्पद प्रस्ताव पर हर कांग्रेसी अपने अपने हिसाब से बोल रहा था। किसी में भी स्पष्ट रूख अपनाने का माद्दा नहीं था। मामला तभी सुलझ पाया जब पं. नेहरू विदेश से लौटे। 17 नवंबर 1949 को फिर वर्किंग कमेटी की बैठक हुई। इसमें कांग्रेस के संविधान का हवाला देते हुए यह प्रस्ताव पास किया गया कि "चूंकि कोई भी कांग्रेसजन कांग्रेस द्वारा संचालित स्वयंसेवक संगठन सेवादल के अलावा और किसी स्वयंसेवक संगठन में शामिल नहीं हो सकता इसलिए यह नियम आरएसएस के सदस्यों के मामले में भी लागू होगा। चूंकि आरएसएस एक स्वयंसेवी संगठन है इसलिए उसका सदस्य कांग्रेस में शामिल नहीं हो सकता।"
कांग्रेस के नेताओं के आरएसएस प्रेम पर इतिहासकारों ने बहुत लिखा है। अरुण माहेश्वरी ने अपनी चर्चित किताब आरएसएस और उसकी विचारधारा में एक अलग अध्याय ही " कांग्रेस और आरएसएस " पर लिखा है। यह सिलसिला आज भी जारी है। प्रणव मुखर्जी अपनी पारी खेलकर चले गए अब सबकी निगाहें कांग्रेस के नए 23 बागियों पर लगी हैं। वे क्या करते हैं? और उससे ज्यादा राहुल गांधी पर लगी हैं कि क्या वे इस बगावत से निपटने का साहस जुटा पाएंगे? कोई फैसला करेंगे? या सब समय पर छोड़ देंगे?