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बनारस से प्रियंका गांधी की रद्द उम्‍मीदवारी पर पहली और आखिरी पोस्‍ट!

बनारस से प्रियंका गांधी की रद्द उम्‍मीदवारी पर पहली और आखिरी पोस्‍ट!
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कल से उम्‍मीद करिए कि मोदी-शाह और उनके लोग हर एक सभा व रैली में ''नामदारों'' के पीछे हटने का संदर्भ देंगे और जनमत तैयार करेंगे। तब आप क्‍या करेंगे? यह मामला बनारस का या पूर्वांचल का नहीं, बचे हुए चार चरणों में मतदान करने जा रहे करोड़ों लोगों के इधर से उधर जाने का है। बेशक चुनाव बेमज़ा हुआ है, लेकिन 23 मई का जनादेश अब बिलकुल सामने दिख रहा है। आज सुबह तक चुनाव फंसा हुआ था, अब धुंध छंट गई है।

बनारस से साझा (या कांग्रेसी) उम्‍मीदवार के बतौर प्रियंका गांधी के चुनाव न लड़ने के फैसले के समर्थन में कई तर्क गिनाए जा रहे हैं। कुछ मुख्‍य तर्क ये रहे:

- बनारस के चुनाव में जनता, मीडिया और मोदी-विरोधी लोगों की दिलचस्‍पी खत्‍म हो जाएगी और मोदी के आगे के ईवेंट फीके रहेंगे।
- स्‍टार मुकाबलों से कांग्रेस में बचने की परंपरा रही है क्‍योंकि ऐसे मामलों में वह दूध की जली है।
- सामाजिक न्‍याय के एजेंडे से भटकाव नहीं होगा।
- बीजेपी चुनाव को व्‍यक्ति-केंद्रित करना चाहती थी, कांग्रेस के इस फैस्‍ले ने उस पर पानी फेर दिया।
- वृहत्‍तर नैरेटिव को बनाए रखने में कांग्रेस का भला है।

आइए, एक-एक कर के इनका परीक्षण करें:

पहला, मोदी के बनारस केंद्रित आयोजनों में दिलचस्‍पी की बात। अव्‍वल तो जो लोग मीडिया का चरित्र समझते हैं, उन्‍हें यह बात कहनी ही नहीं चाहिए। जहां मोदी, वहां मीडिया, यह पांच साल का सबक है। मोदी टीआरपी हैं। मीडिया के लिए मोदी ही मालिक हैं, मोदी ही विक्रेता। जनता ग्राहक है। जो जनता मोदी के विरक्‍त होने के कगार पर खड़ी थी, उसके मन में कांग्रेस के इस फैसले के बाद और नाउम्‍मीदी जगेगी। वह घूम-फिर कर मोदी के साथ ही जाएगी। इसलिए मोदी का यह ईवेंट न पहला है न आखिरी, अगले ईवेंट होंगे, और तगड़े होंगे। बचा मोदी-विरोधी दिल्‍ली का गिरोह, तो वह बेगूसराय के बाद बनारस ही जाएगा और अबकी अजय राय के पीछे दम लगाएगा, जैसा आंशिक रूप से पिछली बार किया था। इस बार फ़र्क यह है कि केजरीवाल नहीं हैं इसलिए सारा दम राय के पीछे संगठित होगा। सेकुलर कोई स्‍वतंत्र इकाई नहीं है, कम्‍यूनल की जोड़ीदार है। इस देश में सेकुलर-कम्‍यूनल कम्‍बाइन काम करता है। इसलिए जहां-जहां कम्‍यूनल गिरोह, वहां-वहां सेकुलर गिरोह। शालिनी यादव अब भी डमी हैं, कुछ वोट काट लेंगी।

दूसरा, कांग्रेस अगर स्‍टार मुकाबलों से बचती है तो इसके दो कारण हैं। पहला अतीत में उपजी उसकी पारिवारिक मजबूरियां, जिन्‍हें गिनाने की ज़रूरत नहीं है। दूसरा, परिवार के सीमित सदस्‍यों की निजी प्रतिष्‍ठा खोने का भय। उसके रोके चुनाव का व्‍यक्ति-केंद्रित होना नहीं रुक जाएगा। चुनाव पांच साल से ऑलरेडी व्‍यक्ति केंद्रित है। नेहरू के जमाने में भी था और इंदिरा के ज़माने में भी। प्रेसिडेंशियल फॉर्म यहां आ चुका है, आपको बस इतना तय करना है कि इस खेल के नियमों को निभा पा रहे हैं या नहीं। जनता व्‍यक्तियों में पार्टियों को देखती है। इसका उलटा समझने वाला जनता से कटा हुआ है।

सामाजिक न्‍याय तीसरा मसला है। अगर कांग्रेस को वाकई सामाजिक न्‍याय के एजेंडे की फिक्र होती तो उसने सपा-बसपा के साथ गठबंधन कर लिया होता। कांग्रेस इस चुनाव का इस्‍तेमाल अपने सांगठनिक बहाली के लिए कर रही थी, जो अब मुश्किल ही दिखता है। आज के फैसले के बाद कांग्रेसी कार्यकर्ता, खासकर पूर्वांचल में पस्‍तहिम्‍मती के चरण में जा चुके हैं। उनकी प्राणवायु जैसे चली गई है। इसका असर आसपास की दर्जनों सीटों पर तो होगा ही, देश भर में कांग्रेस संगठन के पुनर्गठन पर भी होगा।

व्‍यक्ति-केंद्रित चुनाव की बात पहले कर चुका हूं। कांग्रेस इसे रोक नहीं सकती। मोदीजी का रिकॉर्ड देखिए, वे अकेले मेला लगाने में माहिर हैं और मीडिया उस मेले को दिखाने के लिए अपनी दुकान चलाता है। इसका ताज़ा उदाहरण अक्षय कुमार के साथ प्रधानमंत्री का ''गैर-राजनीतिक'' इंटरव्‍यू है जिसे सबने दिखाया, यहां तक कि मज़ाक उड़ाने के बहाने रवीश कुमार ने भी टुकड़ों में दिखा दिया।

एक कांग्रेसी नवतुरिया ने लिखा है कि इस फैसले से वृहत्‍तर नैरेटिव बनाए रखने में मदद मिलेगी। कौन सा नैरेटिव? पिछले पांच साल में कांग्रेस सहित समूचा विपक्ष हिंदू राष्‍ट्रवाद के बरअक्‍स कौन सा नैरेटिव गढ़ पाया है जिसे टिकाए रखने की दलील दी जा रही है? ये सब बौद्धिक चोंचले हैं। संसदीय चुनाव केवल और केवल परसेप्‍शन यानी धारणा और मैनेजमेंट यानी प्रबंधन का खेल है। इस धारणा को करिश्‍माई नेता और मीडिया मिलकर गढ़ते हैं और इसका मैनेजमेंट चुनाव आयोग जैसी लोकतांत्रिक संस्‍थाएं करती हैं। चूंकि व्‍यक्ति, मीडिया और संस्‍थाएं सब उनकी हैं और दूसरी तरफ एक ही चीज़ की गुंजाइश थी जो अब नहीं है, लिहाजा सारे समीकरण सत्‍ता की तरफ झुके हुए हैं।

आइए, अब कुछ सस्‍ती बातें। लिबरल विचारों के संग दिक्‍कत यह होती है कि उसे पॉलिटिकली करेक्‍ट बने रहने की मजबूरी है। दूसरे, व‍ह तर्क को अपने हिसाब से गढ़ता है जिसके चलते उसके अंतर्विरोध सामने आ जाते हैं। मसलन, कहा जा रहा है कि बनारस के चुनावी पर्यटन का मौका बहुत से लोग चूक गए इसलिए इस फैसले के खिलाफ हैं। यह बात कहने वाले कहां-कहां का चुनावी पर्यटन कर आए हैं या करने वाले हैं, इसका हिसाब कभी नहीं देते। यह ओछी बात है। उनके आर्गुमेंट को कमज़ोर करती है। आपका मन बेगुसराय में रमा है और आप बनारस में मन रमाये लोगों को चुनावी पर्यटक कह दें, यह तो अवसरवाद और बेईमानी है।

दूसरी सस्‍ती बात, हर कीमत पर कांग्रेस के फैसले को सही ठहराने की अदृश्‍य मजबूरी। ठीक है कि मजबूरी का नाम राहुल गांधी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप जनभावना से आंखें मूंद लें। कम से कम इतना तो पूछ सकते हैं कि जब प्रियंका को न खड़ा करने के पीछे इतने सारे सिद्धांत थे, तो आखिरी दम तक जानबूझ कर सस्‍पेंस क्‍यों बनाया गया? पहले ही कह देते कि प्रियंका नहीं लड़ेंगी, सस्‍पेंस खड़ा करने के बाद एंटी-क्‍लाइमैक्‍स? पांच साल के मोदीराज से पीडि़त लोगों से मजाक नहीं तो और क्‍या है, जो टिटिहरी की तरह गरदन उठाए हफ्ते भर से सस्‍पेंस के निपटने का सकारात्‍मक इंतजार कर रहा था? परसेप्‍शन बड़ी चीज़ है आजकल। कांग्रेस ने एक झटके में इसे पलट डाला है। मैं नहीं जानता इससे कांग्रेस को या दूसरे विपक्षी दलों को क्‍या नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन बड़ी मेहनत से बना-बनाया भरोसा बेशक कम हो जाएगा।

तीसरी और आखिरी बात, अगर आप मोदी-शाह की भाजपा को मासूम न मानते हों। आज अरुण जेटली ने प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर के पूरी मौज ली है यह कह कर कि "Priyanka has quietly chickened out", कल से उम्‍मीद करिए कि मोदी-शाह और उनके लोग हर एक सभा व रैली में ''नामदारों'' के पीछे हटने का संदर्भ देंगे और जनमत तैयार करेंगे। तब आप क्‍या करेंगे? यह मामला बनारस का या पूर्वांचल का नहीं, बचे हुए चार चरणों में मतदान करने जा रहे करोड़ों लोगों के इधर से उधर जाने का है। बेशक चुनाव बेमज़ा हुआ है, लेकिन 23 मई का जनादेश अब बिलकुल सामने दिख रहा है। आज सुबह तक चुनाव फंसा हुआ था, अब धुंध छंट गई है।

यह प्रियंका गांधी की रद्द हो चुकी उम्‍मीदवारी पर मेरी पहली और आखिरी पोस्‍ट है। इसके बाद मैं नहीं लिखूंगा इस मसले पर। केवल इसलिए ताकि जो लोग बनारस और बनारस की जनता को नहीं जानते, वे अपनी सदिच्‍छा और पॉलिटिकल करेक्‍टनेस की मजबूरियों के चलते दूसरों को फोकट में बरगलाएं नहीं। ज़मीन पर रहने वाले सब जानते हैं कि आज का फैसला एक विश्‍वासघात के रूप में इतिहास में दर्ज होगा। अगर ऐसा नहीं होता तो बनारस-2019 भारत के समकालीन राजनीतिक इतिहास का एक सुनहरा पन्‍ना बनने की कुव्‍वत रखता था।

इतने लंबे लिखे के बराबर मेरे दिमाग में फिलहाल केवल एक सवाल है- बहुत संभव है कि प्रियंका गांधी और राहुल गांधी बनारस में अजय राय का प्रचार करने के लिए डेरा डालें। दोनों से यदि पूछा गया कि उन्‍होंने अपना सबसे बढि़या दांव बनारस में क्‍यों नहीं खेला, तो वे ऊपर गिनाई पांच लिबरल सैद्धांतिक दलीलों में से कौन सी देंगे जो बनारस की जनता को समझ आ जाए?

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अभिषेक श्रीवास्तव जर्न�

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